सात
महीने पहले पूरे हिंदी प्रदेश
में भाजपा का बोलबाला था।
दिल्ली में उलटबासी का राग
है, आआपा
को सड़सठ सीटें मिल गई। पिछले
एक महीने में लोगों ने इस बात
को कई तरीके से समझा है। केजरीवाल
की जीत बनाम मोदी की हार पर
सारे एक्सपर्ट कुछ बोल रहे
हैं। मोदी का जादू उतरने लगा
है; सी
एम केजरीवाल तो पी एम मोदी
वगैरह। एक बात जिस पर चर्चा
खुल कर नहीं हुई है,
वह यह
कि इस जीत के पीछे भी एक बुनियादी
इंसानी फितरत काम कर रही है।
वह है डर। डर। डर ने जिताया
मोदी को, डर
ने हराया मोदी को।
साल
भर पहले भाजपा और संघ परिवार
के चुनाव जीतने के तरीकों पर
मैंने खेद जताया था कि वे इंसान
में असुरक्षा की भावना को भड़का
कर हिंसात्मक प्रवृत्तियों
को जगा रहे हैं,
तो पाठक
अक्सर फ़ोन कर पूछते कि मैं ऐसा
क्यों लिख रहा हूँ। एक बार
किसी ने कहा कि यह ठीक ही तो
है कि 'उन
लोगों' को
दबाकर रखा जाए। 'वो
लोग' बहुत
ज्यादा चढ़ गए हैं। मैं फ़ोन पर
उस डर को सुन रहा था,
जिसे
जगाने में संघी काबिल हैं।
डर जो इंसान को डरे कुत्ते की
तरह खूँखार बना देता है। डर
एक ऐसी आदिम प्रवृत्ति है
जिससे
शरीर में जैव-रासायनिक
क्रियाएँ चल पड़ती हैं। जो महज
भावनात्मक लगता है,
वह
कब हमारा जैविक गुण बन जाता
है,
पता
तक नहीं चलता। डर से पसीना ही
नहीं छूटता,
इससे
ऐसी उत्तेजना भी होती है,
जो
हमें हमलावर बना देती है। जब
कई लोगों को एक सा डर होने लगे
तो वह सामूहिक राजनैतिक औजार
बन जाता है। इसी
का फायदा उठाकर संघ परिवार
जैसे गुट सत्ता में आते हैं।
मनोविज्ञान में
इस बात पर
शोध हुआ है। वैज्ञानिकों
का मानना है कि सामूहिक
गुंडागर्दी के लिए बीमार
विचारधारा पर आधारित नेतृत्व,
भय
में डूबी नुकसानदेह मानसिकता,
बड़ी
तादाद में लोगों में आहत
होने का अहसास और बाकी
लोगों की सुन्न
पड़ गई संवेदनहीन मानसिक दशा
कच्चा माल की तरह
हैं,
जिन्हें
सही मौकों पर घुला-मिला
कर संकीर्ण सोेच में ग्रस्त
नेतृत्व सत्ता
हासिल करने के लिए इस्तेमाल
करता है। आम
समझ यह होती है कि नेतृत्व का
मतलब है देश या समाज को सही
दिशा में ले जाना,
यानी
सामाजिक स्थिरता और आर्थिक
तरक्की की ओर ले चलना। पर
समाज का मनोवैज्ञानिक
चरित्र भी होता है और जनता
को भावनात्मक रूप से अपने
वश में रखना,
इस
पर नेताओं को गंभीरता से सोचना
पड़ता है। जैसे सोशल मीडिया
की नई तक्नोलोजी का इस्तेमाल
करने में भाजपा के दिग्गज
माहिर साबित हुए हैं,
वैसे
ही आम लोगों को भावनात्मक रूप
से भड़काने में भय का इस्तेमाल
करने में उनकी महारत शिखर पर
है। अपने सामाजिक
स्वरूप में एक समूह महज लोगों
का हुजूम नहीं होता,
बल्कि
उसका एक सामूहिक मनोविज्ञान
होता है। इसी मनोविज्ञान पर
भला या बुरा नेतृत्व भले-बुरे
उद्देश्यों
के लिए प्रयोग करता
है। जैसे एक व्यक्ति
में भगवान और शैतान दोनों को
जगाया जा सकता है,
वैसे
ही समुदायों में भी नैतिक संकट
के बीज बोए जा सकते हैं और
वक्त आने पर उसके ज़हरीले फल
तोड़े जा सकते हैं। माना
जाता है कि समूह में बड़े संकट
अपेक्षा से ज्यादा तेज़ी से
आते हैं;
दो
और दो मिलकर चार नहीं,
चार
से ज्यादा का प्रभाव दिखलाते
हैं। तानाशाह के
खुद जनता पर हावी होने की जगह
उसे नेता बनाने की माँग जनता
से ही आने लगती है। इतिहास में
ऐसा होता रहा है,
कभी
मुल्कों में,
कभी
धर्म-संप्रदायों
में,
तो
कभी मुक्तिकामी संगठनों में
भी।
डर
बहुत दूर तक जाता है। पूर्वी
यूरोप से अमेरिका आए यूरोपी
यहूदियों में एक कहानी प्रचलित
थी कि दो हजार साल की उम्र का
एक आदमी ने यह बतलाया है कि
पुराने जमाने में डर ही यातायात
का सबसे तेज़ साधन था। आप जंगल
में जा रहे हैं,
अचानक
पीछे से आई शेर की दहाड़। जान
बचा कर दौड़ने के अलावा कोई
उपाय नहीं। और जल्दी से जल्दी
गंतव्य पर पहुँच जाएँगे। वैसे
तो यह कहानी हमें हँसाती है,
पर इसका
सार यह है कि डर बहुत दूर जाता
है।
जब
जनता को भारी तकलीफ सहनी पड़े
तो नेतृत्व पर सवाल उठना लाजिम
है। पर बड़ी तादाद में लोगों
को भड़का कर अपने पक्ष में करके
ही नेतृत्व हाथ आया हो,
और
ऐसी
तबाही मचे कि
वे लोग खुद उस हिंसा में शरीक
हैं,
जिन्होंने
सत्ता पर नेताओं को बैठाया
है,
तो
क्या कहा जाए।
इसलिए बहुसंख्यक लोगों में
लघुसंख्यकों पर धौंस जमाने
की भावना भड़का कर सत्ता पर
कब्जा कर संघ परिवार
खुद को सुरक्षित महसूस कर ही
सकता है।
जो
बातें कई लोगों को तब स्पष्ट
नहीं थीं,
वे भाजपा
के सत्ता में आने के बाद तेज़ी
से साफ होने लगीं। संघ का एजेंडा
है कि पहले डर को जगाओ,
फिर
जिनका डर दिखलाते हैं,
उनको
डराओ।
संघ
परिवार की ग़लती यह कि वे भूल
गए कि डर का साया अभी समूची
जनता पर हावी हुआ नहीं था।
चुनाव जीतने के लिए तो बस इतना
ही चाहिए कि और प्रार्थियों
से ज्यादा वोट मिलें। यहीं
गड़बड़ हो गई। तो जिनका डर दिखला
कर जीत मिली थी,
वे लोग
डर गए। डरे हुए लोग इकट्ठे हो
गए। मफलर मैन की जीत कुछ हद तक
एक राजनैतिक विकल्प की और काफी
हद तक भय की जीत थी। इस देश में
कौन यह कह सकता है कि वह शासक
दल के गुंडों से सुरक्षित है?
किसी
के साथ कभी भी कुछ हो सकता है।
पिछले कुछ महीनों में लगने
लगा था कि सामान्य नागरिक को
अगर जीना है तो विहिप और
हिंदुत्ववादी संगठनों के
वर्चस्व को मान कर ही जीना
पड़ेगा। इसीलिए तो एक वामपंथी
दल ने अपने काडर को चिट्ठियाँ
तक भेजीं कि आआपा को वोट डालना
है।
तो
क्या सड़सठ सीटें मिलने से डर
की राजनीति खत्म हो जाएगी?
नहीं,
डर बहुत
ताकतवर औजार है। सत्ता वालों
को भी डर रहता है। मोदी ने डर
कर कहा कि अब किसी धर्म को मानने
में डरो मत – सरकार आपके साथ
है।
यह
अच्छी बात होती,
अगर
इसका कारण डर न होता। अगर आस्था
के साथ बात कही गई होती,
तो ज़रूर
अच्छी बात होती। पर यह बात इस
डर से कही गई कि कुर्सी खिसकने
न लगे। हिंदी प्रदेश में घोर
अशिक्षा और निरक्षरता है।
वहाँ जितनी आसानी से संघ परिवार
भय और सांप्रदायिकता की राजनीति
कर पाया है,
दूसरे
राज्यों में यह इतना आसान
नहीं। खास तौर पर दक्षिण के
राज्यों में जहाँ ऐतिहासिक
संदर्भ भी बहुत अलग हैं,
ज़हर
फैलाना इतना आसान नहीं होगा।
उल्टा, उत्तर
भारत में तेज़ी से सांप्रदायिक
माहौल बिगड़ने का असर दक्षिणी
राज्यों में भाजपा के हित में
नहीं जाने वाला। यानी,
एक तो
उत्तर में भी आधी जनता को भी
पक्ष में नहींकर पाए,
मात्र
अधिकतम मतों के बल पर सत्ता
मिली और दक्षिण में तो दिल्ली
दूर अस्त;
इसलिए
उसी नरेंद्र मोदी को जिसने
आज तक धर्म निरपेक्षता पर कोई
साफ बात न की थी,
उन्हें
भी कहना पड़ा कि सरकार नागरिकों
को अपने धर्मों का पालन करने
का आज़ादी देती है।
डर
का इस्तेमाल कायम रहेगा। एक
ओर तो धार्मिक आज़ादी पर मोदी
का बयान आता है,
वहीं
दूसरी ओर तीस्ता सेतलवाड़ को
डराना चलता रहता है,
कामरेड
पंसारे और उनकी पत्नी पर जानलेवा
हमला होता है। जिन्हें जेल
में होना चाहिए था,
उन
हत्यारों को छोड़ा जा रहा है,
वापस
नौकरी में बहाल तक किया जा रहा
है। इसका सीधा नतीज़ा यह होगा
- और
यह अरसे से होता रहा है -
कि कई
भले लोग उदासीन हो थक हार कर
बैठ जाएँगे तो कई और इस उम्मीद
में कि स्थितियाँ बिगड़ेंगी
तो फिर कभी सुधरेंगी भी,
सत्ता
और गुंडों के साथ हो लेंगे।
बाकी लोग पिटेंगे,
पंसारे
बार बार पिटेंगे,
तीस्ताओं
को बार बार धमकियाँ मिलेंगी।
सोचने
पर लगता है कि आज भी हम अंधकार
युग में जी रहे हैं। ऐसे तो
इंसान का जीना दूभर हो जाएगा।
अगर हम आप कुछ न करें तो हालात
वैसे ही हो जाएँगे,
जैसे
ईराक, अफग़ानिस्तान
जैसे मुल्कों में हैं। इसी
की ओर संकेत करते हुए पाकिस्तान
की शायरा फहमीदा रियाज ने भारत
के लोगों को चेताते हुए लिखा
था -
हम
तो हैं पहले से वहाँ
पर,तुम
भी समय निकालते रहना,अब
जिस नरक में जाओ,
वहाँ
से
चिट्ठी-विट्ठी डालते रहना!
चिट्ठी-विट्ठी डालते रहना!
जहाँ
चुनाव लड़े जाएँगे,
वहाँ
डर खत्म तो नहीं ही होने वाला,
बढ़ता
ही रहेगा। तो क्या अगले साल
बंगाल का चुनाव भी डर पर आधारित
होगा? वहाँ
लंबे अरसे से डर का बोलबाला
रहा है। पहले बस पार्टी के
गुंडे थे -
अब
सांप्रदायिकता नंगी नाच रही
है। संघ परिवार का एजेंडा यही
रहेगा कि जैसे भी हो,
बहुसंख्यकों
को एक साथ ले आओ,
इसके
लिए जहाँ जो बात भड़काई जा सके
- असम
में बांग्लादेशी घुसपैठिए
का डर दिखलाओ,
बंगाल
में भी सीमांत इलाकों में यही
बात चलेगी और दूसरे इलाकों
में चुन कर उन गुंडों की बात
की जाए जिनसे बहुसंख्यकों
में भय जगे,
फिर वह
धीरे-धीरे
आक्रोश में बदले और अंततः नफ़रत
की उस राजनीति में तबदील हो
जाए जिससे भाजपा को वोट मिल
सकें। यह प्रक्रिया साल भर
से चल रही है। मध्य-वर्ग
के जिन लोगों को सतही तौर पर
दूसरे किस्म की लफ्फाजी चाहिए,
उनके
लिए विकास का नारा अभी भी चलेगा।
और धार्मिक आज़ादी का मुखौटा
तो अब प्रधान-मंत्री
भी पहन लिए।
आर्थिक
मंदी और अनिश्चितताओं
से घिरे धरती पर
हर जगह डर का माहौल है और इस
वजह से चारों ओर दक्षिणपंथी
ताकतों का हौसला बढ़ रहा है।
अच्छी बात यह है कि इस संकट को
पहचानते हुए भले लोग भी इकट्ठे
हो रहे हैं। किसी हिटलर का फिर
से अपनी खूँखार शक्ल में प्रकट
होना अब इतना आसान नहीं है,
पर
इसका डर है। और अच्छी बात है
कि डर है। डरते हुए ही हम बोल
उठते हैं -
इतना
डर चुके,
कि
भय ही जीवन हो गया
है। मन कहता
है -
उठो,
इस
डर के खिलाफ कुछ करो। धरती
पर हर जगह भले लोग हैं। क्यों
न हम सब मिल कर डर के
सौदागरों को चुनौती दें। कभी
वह दिन भी आएगा जब भय की नहीं,
भय
पर जीत हासिल
होगी। हमारे पास
विकल्प नहीं हैं। एक ओर निश्चित
विनाश है,
भीतर
बाहर हर तरह की जंग लड़ाई का
खतरा है,
दूसरी
ओर इकट्ठे
आवाज़ उठाने का,
बेहतर
भविष्य के सपने के लिए पूरी
शिद्दत से जुट जाने का
विकल्प है।
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