Friday, July 12, 2019

शहर-दर-शहर भटकता हूँ


सब मेरे हो सकते थे

वह गाँव मेरा हो सकता था
घर जो बिक गया
उसके पास खड़ा मैं
रो सकता था
कहीं तो दर्ज होगा
कि हजार साल पहले उस घर में किसके वीर्य में
रचा गया मेरे गुणसूत्रों का इतिहास

अंबो को मैंने ज़िंदा देखा (*अंबो = दादी)
उसकी मौत की खबर सुनी थी
और बापू को रोते देखा था
अकेले में चली गई वह
छोड़कर हफ्ते भर का अखंड पाठ
जो उसकी मौत के कुछ पहले भी एक बार हो चुका था

वह गाँव अक्सर मेरे पास आ खड़ा होता है
किसी को कहता हूँ तो पता चलता है
कि मेरी कविताओं में संस्मरण बढ़ने लगे हैं
क्या मैं वक्त से ज्यादा जी चुका हूँ

ऐसे सवाल अंबो के ज़हन में नहीं आते थे
गाँव की ज़िंदगी की खासियत थी यह

बिक गया वह घर
जो अकेला कभी नहीं हो सकता था
इसलिए लुका-छिपी खेलते हुए
हमें वह छिपा लेता था पड़ोस के घरों में
वे सब मेरे हो सकते थे

आँगन में आम और बबूल के
परस्पर हमेशा नाराज़ खड़े पेड़
उपलों की महक
पिछवाड़े कबूतरबाज मुकुंदा
सब मेरे हो सकते थे

शहर-दर-शहर भटकता हूँ
सुनता अँधेरी रातों में साँसों का चढ़ना-उतरना
गुनगुनाना मच्छरों के साथ
कि सब मेरे हो सकते थे।
(पहल - 2019)

No comments: