Monday, October 15, 2018

धरती और आस्मां गुजरे हैं हम से


उम्मीद के पैंतालीस मिनट

तपती रविवार मई की शाम

खोलता हूँ दरवाजे, बरामदे में बाल्टी से पानी छिड़कता हूँ

पड़ोस के घरों से लोग बरामदों में आने लगे हैं

अकेला मैं पानी छिड़कता हूँ, पड़ोसी आश्वस्त हैं

कि वापस ठंडे कमरे में चले जाएँगे



आँखों पर ऐनक कभी ठीक देखने नहीं देती

उम्र है या वक्त है, कहना है मुश्किल

हर तरफ धुँधला सब कुछ

मन सशंक कि यह महज चेतावनी है

मध्यवर्गी इस रिहाइश में

सब कुछ शांत है

शोर है तो पार्क में खेलते बच्चों का है

उल्लास में सराबोर

माँ-बाप बरामदों में दिखते निश्चिंत

कि सब कुछ ठीक है



बच्चों को देख धड़कता है दिल एकबारगी

भूल जाता हूँ वक्त और खो देता हूँ खुद को

एक बार खुद बच्चा बन जाता हूँ



यहाँ सोहनपापड़ी बेचने कोई बूढ़ा नहीं आता

कोई भेल-मूड़ी बेचने नहीं आता

सिक्योरिटी के लोग उनके लिए नहीं हैं

वे इस ओर भटकते ही नहीं

बड़ी सड़क से कहीं और चले जाते हैं



ज़मीं और इंसान इस तरह बँटे हैं

पंछी ढलती शाम यहाँ आस्मान पर गुजरते हैं

जैसे गुजरेंगे वे उन मुहल्लों की छतों से भी ऊपर

जहाँ यहाँ के बच्चे नहीं जाएँगे

और जहाँ के बच्चे अक्सर यहाँ आते हैं

बर्तन माँजने और झाड़ू पोछा करने वाली माँओं के साथ

यह सोचे बिना नहीं रहा जाता

कि धरती पर कितने पंछी बचे हैं



फिलहाल वापस डेस्क पर लौटना है

फाइलें देखनी हैं

वक्तव्य और दृश्य के गड्डमड्ड में लौटना है



बनाने हैं मंज़र

पैंतालीस मिनटों में लड़ाई, उल्लास

कुदरत के हार-जीत के

नपे-तुले एहसास



सजाते चलना है एक के बाद एक

दस्तावेज कि हम भी गुजरे हैं धरती पर

या कि धरती और आस्मां गुजरे हैं हम से



तरक्की हुई है इतनी कि

पिछली सदियों की खो गई साँसों जैसे

नहीं खो जाएँगे हम

हजारों साल बाद हमारी पहचान मौजूद रहने की

उम्मीद है इन पैंतालीस मिनटों में।

लौटने से पहले देखता हूँ नीचे

बच्चे ज़मीं पर अपना इतिहास तराश रहे हैं

जो सयाने हैं वे मिट्टी नहीं चट्टान पर लिख रहे हैं

इतनी दूर से खरोंच की आवाज नहीं आती

और साथ मुड़ती है मुस्कान होंठों पर। 

- 2013 (पाठ - 2018) 

1 comment:

Dadu said...

उम्र है या वक्त है, कहना है मुश्किल