बीस साल पहलेः
उन दिनों दक्षिण अफ्रीका में रंगभेदी अपार्थीड वाली सरकार थी।
नहीं समझ सकते
कितने अच्छे हो सकते हैं हम
उठ सकते कच्ची नींद सुबह
पहुँच सकते दूर गाँव
भीड़ भरी बस चढ़
भूल सकते दोपहर-भूख
एक सुस्त अध्यापक के साथ बतियाते
पी सकते एक कप चाय
समझ सकते हैं
पाँच-कक्षाएँ-एक-शिक्षक पैमाना समस्याएँ
लौटते शाम ढली थकान
ब्रेड आमलेट का डिनर
पढ़ते नई किताब
पर नहीं समझ सकते हम
कि है अध्यापक
नाखुश अपनी ज़िंदगी से
कितने अच्छे हो सकते हैं हम
बेसुरी घोषित कर सकते
सोलह-वर्ष-अंग्रेज़ी शिक्षा
फटी-चड्ढी-मैले-बदन-बच्चों से
सीख सकते नए उसूल
भर सकते आँकड़े रचे दर परचे
सभा बुला सकते हैं
सबको साथी मान
साझा कर सकते हैं
देश विदेश अपनी उनकी बातें
मौका दे सकते हैं
सबको बोलने का
लिख सकते डायरी में
मनन कर सकते
फिर भी नहीं समझ सकते कि
हैं कम पैसे वाले लोग
नाखुश अपनी ज़िंदगी से
कितने अच्छे हो सकते हैं हम
दारु, फिल्में, कॉफी-महक-परिचर्चाएँ
एक-एक कर छोड़ सकते हैं
बन सकते आदर्श
कई भावुक दिलों में
हो सकते इतने प्रभावी
कि लोग भीड़-धूल-सड़क में भी
दूर से पहचान लें
आकार लें हमारे शब्दों से
गोष्ठियाँ, सुधार-मंच, मैत्री संघ
पर नहीं समझ सकते
क्यों बढ़ते रहें झगड़े, कुचले जाएँ गरीब
हम हो सकते हैं बहुत अच्छे
गा सकते कभी नागार्जुन, कभी पाश...
सुना सकते फ़ैज ऐसे कि
लोग झूम उठें
नहीं समझ सकते फिर भी
कैसे घुस आता दक्षिण अफ्रीका
हर रोज घर में रोटियाँ पकाने
झाड़ू लगाने
हम यह सब नहीं समझ सकते
हम ऐसा नहीं बन सकते
कि ज़िंदगी में हम हों नाखुश इस कदर
कि उठाने लगें पत्थर
सोच समझ निशाने लगाएँ
तोड़ डालें काँच की दीवारें
जिनके आरपार नहीं दिखता हमें
जो हम नहीं सोच सकते।
(मूल रचनाः १९८७; मुंबई की एक पत्रिका में प्रकाशित (नाम याद नहीं) १९८९)
उन दिनों दक्षिण अफ्रीका में रंगभेदी अपार्थीड वाली सरकार थी।
नहीं समझ सकते
कितने अच्छे हो सकते हैं हम
उठ सकते कच्ची नींद सुबह
पहुँच सकते दूर गाँव
भीड़ भरी बस चढ़
भूल सकते दोपहर-भूख
एक सुस्त अध्यापक के साथ बतियाते
पी सकते एक कप चाय
समझ सकते हैं
पाँच-कक्षाएँ-एक-शिक्षक पैमाना समस्याएँ
लौटते शाम ढली थकान
ब्रेड आमलेट का डिनर
पढ़ते नई किताब
पर नहीं समझ सकते हम
कि है अध्यापक
नाखुश अपनी ज़िंदगी से
कितने अच्छे हो सकते हैं हम
बेसुरी घोषित कर सकते
सोलह-वर्ष-अंग्रेज़ी शिक्षा
फटी-चड्ढी-मैले-बदन-बच्चों से
सीख सकते नए उसूल
भर सकते आँकड़े रचे दर परचे
सभा बुला सकते हैं
सबको साथी मान
साझा कर सकते हैं
देश विदेश अपनी उनकी बातें
मौका दे सकते हैं
सबको बोलने का
लिख सकते डायरी में
मनन कर सकते
फिर भी नहीं समझ सकते कि
हैं कम पैसे वाले लोग
नाखुश अपनी ज़िंदगी से
कितने अच्छे हो सकते हैं हम
दारु, फिल्में, कॉफी-महक-परिचर्चाएँ
एक-एक कर छोड़ सकते हैं
बन सकते आदर्श
कई भावुक दिलों में
हो सकते इतने प्रभावी
कि लोग भीड़-धूल-सड़क में भी
दूर से पहचान लें
आकार लें हमारे शब्दों से
गोष्ठियाँ, सुधार-मंच, मैत्री संघ
पर नहीं समझ सकते
क्यों बढ़ते रहें झगड़े, कुचले जाएँ गरीब
हम हो सकते हैं बहुत अच्छे
गा सकते कभी नागार्जुन, कभी पाश...
सुना सकते फ़ैज ऐसे कि
लोग झूम उठें
नहीं समझ सकते फिर भी
कैसे घुस आता दक्षिण अफ्रीका
हर रोज घर में रोटियाँ पकाने
झाड़ू लगाने
हम यह सब नहीं समझ सकते
हम ऐसा नहीं बन सकते
कि ज़िंदगी में हम हों नाखुश इस कदर
कि उठाने लगें पत्थर
सोच समझ निशाने लगाएँ
तोड़ डालें काँच की दीवारें
जिनके आरपार नहीं दिखता हमें
जो हम नहीं सोच सकते।
(मूल रचनाः १९८७; मुंबई की एक पत्रिका में प्रकाशित (नाम याद नहीं) १९८९)
Comments
एक बात देखि है मैंने आपकी पोस्टों में की.. आप हर चीज, मुददे, हालत पर सवाल उठाते हैं ..जो की मुझे लगता है सही है और जरूरी भी हैं ... अगर आप उन चीजो को देख सकते हैं और बता सकते हैं तो उन सब के जवाब, नहीं तो कम से कम जवाब की दिशा तों दे सकते हैं .. नहीं तो पढ़ते पढ़ते ऐसा लगता है हम समस्यों की बीच में जी रहें और कुछ रास्ते नहीं है ..