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So how should I presume?

हल्की ठंडक भरी पठारी हवा।
तपने को तैयार कमरा, अभी अभी बिजली गई है।

खबरें। मानव मूल्य।

नैतिकता।
कछ दिनों पहले किसी ने अरस्तू और अफलातून के संवादों का जिक्र किया था।

-क्या नैतिकता सिखाई जा सकती है। अगर हाँ तो कैसे?

-मै नही जानता कि नैतिकता है क्या, सिखाना तो दूर की बात।

कुछ लोग जबरन मानव मूल्य नामक एक कोर्स पर बहस करते हैं।

जिनका वर्चस्व है, वे चाहते हैं कि वे युवाओं से चर्चा करें कि भला क्या है, बुरा क्या है। विरोध करता हूँ तो कभी औचित्य पर सवाल उठते हैं तो कभी 'प्रोफेसर साहब बहुत विद्वान हैं' सुनता हूँ। सुन लेता हूँ, और समझौतों की तरह यह भी सही।

तकरीबन सौ साल के बाद भी एलियट की पंक्तियाँ ही सुकून देती हैं।

For I have known them all already, known them all:—
Have known the evenings, mornings, afternoons,
I have measured out my life with coffee spoons;
I know the voices dying with a dying fall
Beneath the music from a farther room.
So how should I presume?

मेरी चिंताएँ इतनी विकट हैं कि यह सब बेकार की बहस लगती है। फिलहाल ज़िंदगी और मौत की चिंताएँ हैं। सबको ज़िंदा रहना है। एक दिन और ज़िंदा रहना है।

साइंटिफिक अमेरिकन में आलेख है कि बीस की उम्र के बाद ही मस्तिष्क में सफेद पदार्थ या 'माएलिन' बनने की रफतार में बढ़ोतरी आती है, इसिलए 'वयस्क' निर्णय लेने की क्षमता हमें बीस से पचीस की उम्र तक ही मिल पाती है। पर अनुभव
से 'माएलिन' बनने में तेजी आ सकती है। जिस क्षेत्र का अनुभव अधिक होगा, उसी से जुड़े मस्तिष्क के क्षेत्र में माएलिन ज्यादा बनेगा। 'वयस्क' निर्णय में ज़िंदा रहना भी है। सतही तौर पर पढ़ा जाए तो युवाओं के खिलाफ षड़यंत्र सा लगता है। और इसका फायदा उठाने वाले उठाएँगे भी।

जब तक संभव है, सबको ज़िंदा रहना है। किसी को ज़िंदा रखने की जिम्मेवारी है तो निभाना है।

दोस्त फोन पर कह रहा है कि वह उदास है, हर खबर और अधिक उदासी लाती है। मै बुज़ुर्ग साहित्यकार मित्र को सालों पहले भेजा कार्ड याद करता हूँ (बाद में बच्चों और नवसाक्षरों के लिए संग्रहों मे शामिल गीत) - जीतेंगे, जीतेंगे हम जीतेंगे रे जीतेंगे।
कोई सुनाता है कि कोलकाता की क्रिकेट टीम का नारा है। जैसे पिछले साल टी वी पर किसी लाखों की गाड़ी के विज्ञापन में साठ के दशक का चुराया हुआ सुर था - लिटल हाउसेस आन द हिल टाप दे आल लुक जस्ट द सेम।

रात को न आते आते भी नींद आती है। इंतज़ार करता हूँ नई सुबह का, नई कविता की नई सुबह।

Comments

शायदा said…
हमें भी इंतजार उस सुबह का ही है, वो सुबह कभी तो आएगी।
Arun Aditya said…
प्रोफेसर साहब विद्वान हैं। जहाँ विद्वान होना व्यंग्य का विषय हो, और संवेदनशील होना पागलपन माना जाता हो, वहां कोई भी सुबह बड़ी मुश्किल से ही आ पाएगी। आइये हाथ उठाएं हम भी कि ये मुश्किल कुछ कम हो सके।

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