हाल में राष्ट्रीय सहारा में प्रकाशित आलेख -
उच्च
शिक्षा में एक और छलावा
देश
के हर बच्चे में यह चाह है वह
ऊँची तालीम तक पहुँच पाए और
स्तरीय शिक्षा प्राप्त कर
सके। प्राथमिक स्तर पर स्कूल
में भर्ती होने वाले बच्चों
में से एक तिहाई भी आज उच्च-शिक्षा
तक नहीं पहुंच पाते हैं। जो
पहुँच पाते हैं उनके लिए अलग-अलग
स्तर की शिक्षा मुहैया करवाई
जा रही है। भारत जैसे ग़रीब
मुल्क में सरकार की नैतिक
जिम्मेदारी है कि हर नागरिक
को समान और श्रेष्ठ स्तर की
उच्च-शिक्षा
पाने में मदद करे और उसके लिए
संसाधन जुटाए। हर कोई जानता
है कि संविधान के निर्देश
मुताबिक पहली शिक्षा नीति
में यह तय किया गया था कि सकल
घरेलू उत्पाद का 6% शिक्षा
के मद में लगाया जाए। यह लक्ष्य
आज तक पूरा नहीं हो पाया है और
वक्त के साथ घाटा बढ़ता ही रहा
है। कई दशकों से सरकारी बजट
का 10-11% ही
तालीम के लिए तय रहा है,
जबकि दमन
तंत्र और सुरक्षा के नाम पर
जितना उजागर है, वह
भी 20% से
ऊपर रहा है। हाल में सरकार ने
उच्च शिक्षा के लिए जो निधि
बनाने की घोषणा की है जिसे
HEFA (हेफा)
या उच्च
शिक्षा वित्तपोषण एजेंसी कहा
गया है, सतही
तौर पर वह अच्छी योजना लगती
है, पर
इसका मुख्य मकसद दरअसल सरकार
का शिक्षा से अपने हाथ झाड़
लेने का है।
'हेफा'
को कुल 20
हजार करोड़
रुपए जुटाने की जिम्मेदारी
दी गई है, जिसमें
शुरुआती पूँजी 2 हजार
करोड़ रुपए होगी और इसमें से
सरकार सिर्फ 1 हजार
करोड़ रुपए देगी। तुलना के लिए
हम किसी पुराने विश्वविद्यालय
का वार्षिक बजट देखें तो वह
औसतन 500 करोड़
रुपए होता है। यानी सरकार
द्वारा तय शुरुआती मदद नगण्य
है। बाकी पैसा बाज़ार से इकट्ठा
करने की योजना है। अहम सवाल
है कि बाज़ार ने आज तक ऊँची
तालीम में बगैर मुनाफे के मकसद
से कभी पैसा नहीं लगाया है।
इसके कुछेक अपवाद हैं,
पर अपवादों
के आधार पर राष्ट्रीय नीतियाँ
नहीं बनाई जातीं। आखिर बाज़ार
क्यों पैसा लगाए? इस
सवाल का जवाब ढूँढते हुए हमें
तालीम के बुनियाद तक सोचना
होगा। सही है कि तालीमयाफ्ता
लोग नई तकनीकों के विकास में
मदद करते हैं, जिससे
व्यापारियों को फायदा पहुँचता
है, पर
कल्पना कीजिए कि अगर किसी ने
सौ साल पहले आइन्स्टाइन से
कहा होता कि आपको शोध के लिए
संसाधन तभी मिलेंगे अगर आप
बतलाएँ कि एक नियत समय के बाद
सापेक्षता के सिद्धांत से
कौन सी तकनोलोजी का विकास
होगा, तो
आधुनिक भौतिकी का क्या हश्र
होता! तालीम
का मकसद थोड़े ही वक्त में
मुनाफाखोरी नहीं, बल्कि
इंसान का सर्वांगीण विकास
है। बाज़ार के सरमाएदारों
में ऐसा धीरज नहीं होता कि
इंसान की कल्पनाशीलता का विकास
हो, इंसान
कुदरत के गहरे रहस्यों को जान
जाए। इसलिए बाज़ार पर निर्भर
ऐसी एजेंसी से बड़ी अपेक्षाएँ
रखना बेमानी है। योजना में
यह भी है कि जिस मकसद से कर्ज़
दिया जाएगा, वह
वक्त पर पूरा न हो पाए तो उसके
लिए भारी हरजाना देना होगा।
इन्फ्रा-स्ट्रक्चर
के लिए कर्ज़ का प्रबंध तो ठीक
है, पर
तालीम के संस्थान कोई सौदागर
तो हैं नहीं कि वे लोन वक्त पर
लौटा सकें। यह माना गया है कि
कर्ज़ लौटाने के लिए संस्थान
अपने अंदरुनी आय के तरीकों
को अपनाएगी। शिक्षा संस्थानों
में आय का तरीका या तो छात्रों
से मिली फीस है या फिर निजी
क्षेत्र की कंपनियों को ज़मीन
और भवन किराए देकर मिले पैसे
या इनसे अलग कन्सल्टेंसी आदि
से मिले थोड़े बहुत पैसे होते
हैं। क्या सरकार शिक्षा
संस्थानों को कंपनियों में
बदल रही है? क्या
अब हर अध्यापक को पढ़ाने से
ज्यादा कन्सल्टेंसी करने पर
सोचना होगा? ऐसे
माहौल में जो अध्यापक पढ़ाने
और बुनियादी शोध करने (जिसका
उद्योगपतियों को तात्कालिक
फायदा नहीं मिलता) को
अधिक महत्व देंगे, उनकी
पदोन्नति देर से होगी या कभी
नहीं होगा। इससे ईमानदार
अध्यापकों और छात्रों में
हताशा फैलेगी। जाहिर है कि
वक्त पर कर्ज़ लौटाने के लिए
छात्रों की फीस लगातार बढ़ाई
जाएगी। 'हेफा'
के इस लक्ष्य
में कि आई आई टी आदि संस्थानों
में प्रयोगशालाओं आदि के लिए
निधि पैसे जुटाएगी में यह बात
निहित है कि दर्शन, कला
या साहित्य आदि विषयों का इस
निधि से कोई संबंध नहीं होगा।
सच बात यह है कि सरकार इस तरह
के चोंचले अपनाकर तालीम के
प्रति अपनी जिम्मेदारी से
बचना चाह रही है। विज्ञान और
तक्नोलोजी में तालीम का बाज़ार
के साथ नाता है भी, फिर
भी यह पूछना वाजिब है कि इनके
अलावा दूसरे विषयों का क्या
होगा? आज
जब सारी दुनिया में यह समझ बढ़
रही है कि विज्ञान और तकनोलोजी
की शिक्षा में मानविकी के अभाव
से हमें बहुत नुकसान पहुँचा
है, ऐसे
में मानविकी को बिल्कुल दरकिनाकर
कर देना कहाँ की समझदारी है?
योजना
मुताबिक सार्वजनिक क्षेत्र
की कंपनियों (पी
एस यू) से
भी कॉर्पोरेट सामाजिक दायित्व
के नाम पर पैसा लिया जाएगा।
यह विड़ंबना है कि एक ओर तो
सार्वजनिक क्षेत्र को लगातार
खत्म कर निजी क्षेत्र (सुरक्षा
तक में विदेशी निवेश) को
बढ़ाया जा रहा है, दूसरी
ओर उनसे पैसा लेकर तालीम में
लगाने की बात हो रही है।
चिंता
की बात है कि सरकार से इससे
अलग कुछ की उम्मीद करना बेकार
लगता है। जब से नवउदारवादी
पूँजीवाद ने पैर जमाए हैं,
तालीम को
लगातार इंसान के विकास के मकसद
से हटाकर उसे महज बाज़ार के
लिए काम करती मशीन बनाने की
ओर धकेला जा रहा है। पहले ही
विश्व व्यापार संस्था के गैट्स
समझौते तहत उच्च-शिक्षा
को बाज़ार में खुला छोड़ने का
ऑफर दिया हुआ है। मौजूदा सरकार
ने तथाकथित नई शिक्षा नीति
में स्किल के नाम पर इसी प्रक्रिया
को आगे बढ़ाया है। ऐसा नहीं है
कि किसी को अच्छी तालीम नहीं
मिलेगी। जो संपन्न हैं,
जो ऊँची
जाति के हैं, वे
महँगी शिक्षा के योग्य माने
जाएँगे, उन्हें
बेहतर और बुनियादी तालीम
मिलेगी। जो विपन्न हैं,
जो पिछड़ी
जातियों के हैं, वे
महज बाज़ार के लिए काम करने
की काबिलियत पाएँगे। कर्ज़
लेकर पढ़ने में सबसे पहले लड़कियाँ
पीछे छूटेंगी। स्कूली शिक्षा
से लेकर उच्च-शिक्षा
तक हर ओर सरकार की यह नीति उजागर
हो रही है। इस घोर जनविरोधी
नीति को जन-आंदोलनों के जरिए
ही पलटा जा सकता है। आगामी
दिनों में इस प्रतिरोध के लिए
हमें तैयार होना है।
Comments