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मेरी ये आम आँखें


आत्मकथा


1
जो कुछ कहूँगा सच कहूँगा
सच के सिवा जो कहूँगा
वह भी सच ही होगा
आज सच कहने में डर भी क्या
जो मैंने कहा वह किसने पढ़ा

2
सच कि मैं चाहता हूँ काश्मीर जाऊँ
मेरी मित्र वहाँ सिंहासननुमा कुर्सी पर बैठी है
उसके हाथ में बेटन है
वह कोशिश में है कि
मैं वहाँ आ सकूँ
दस साल पुराने केमिस्ट्री के पाठ
फिर से पढ़ा सकूँ
हो सकता है कि इस बार इतना कुछ सीख ले
कि सी आर पी की नौकरी छोड़ दे
और हवा पानी फूल पत्तों से रिश्ता जोड़ ले
और जब वह एक भरपूर औरत है
मेरी दोस्त बने एक दोस्त की तरह मुझे चूम ले
सच यह कि मैं काश्मीर नहीं जाऊँगा
दूरदर्शन के परदे पर उसे देखूँगा
उसकी खूबसूरत आँखें उसकी गुलाम आँखें
आज़ादी के डर में हो गईं नीलाम आँखें
दूरदर्शन तक मेरा काश्मीर होगा
दूरदर्शन भर होंगी उसकी आँखें
औरों की गुलामी में शामिल होगी
मेरी आवाज़
सच यह कि सच के सिवा
कुछ और ही देखती रहेंगी
मेरी ये आम आँखें
(साक्षात्कार 1999)

Comments

Manu Kant said…
In romantic vein...pass marks

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