Wednesday, October 17, 2018

ऐसे ही लँगड़ाता रहूँगा

ऐसे ही लँगड़ाते


कितनी ज़िंदगी जीते हो साथ-साथ?

किस-किस में मुस्कराते हो और



किसमें उजागर करते हो घाव

जैसे दाईं टाँग पर जलती सिगरेट का धब्बा

किसमें छिपा रखी हैं डरावनी कथाएँ जो रातों को अक्सर सीने पर बैठती हैं

नाचने-गाने की अलग-अलग अदाओं में कौन सी है नॉर्मल और कौन सी है 

सच के भार से दबी?



समझौते और हताशा छिपे हों या उजागर

सब में बरसातें बहेंगी नदी-नाले भर-भर कर

सारी की सारी खत्म होंगी एक साथ

धरती सबको साथ पालती रही और सबको विदा कहेगी साथ

ऐसे ही लँगड़ात रहूँगा एक से दूसरी पर टिकाए बीत चुके पलों का भार

-(पाठ - 2018)

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