Thursday, October 20, 2016

हम सब हाकिमे-वक्त का हुक्म बजा लाते हैं


'उद्भावना' के ताज़ा भीष्म साहनी स्मृति विशेषांक में प्रकाशित - 

भीष्म साहनी का उपन्यास 'मय्यादास की माड़ी' -इतिहास

'… न कोई नमकहलाल होता है, न नमकहराम। हम सब हाकिमे-वक्त का हुक्म बजा लाते हैं, सदा से ऐसा ही चलता आया है।'
'मय्यादास की माड़ी' एक ऐतिहासिक उपन्यास है। भीष्म साहनी का जन्म पंजाब के ऐसे इलाके में हुआ था जहाँ पिछली कई सदियों से लगातार तख्तापलट होता रहा है और आज भी लगभग यही माहौल है। ऐसे इलाके में शहरी अभिजात खानदान में पलने से उन्हें हाल की सदियों के इतिहास की जानकारी होनी स्वाभाविक थी। उनके पिता कपड़ों के खानदानी व्यापारी थे। बाद में लाहौर में कॉलेज की तालीम के दौरान भी इतिहास का गहन अध्ययन उन्होंने किया ही होगा। साथ ही परिवार में बुज़ुर्गों से सुनी कहानियों से उनको इतिहास की अच्छी समझ मिली होगी। उनका जन्म 1915 में हुआ था और उन्होंने अपने पिता और दादा की पीढ़ी से उन्नीसवीं सदी में पंजाब में हुई उथल-पुथल के बारे में बहुत कुछ सुन रखा होगा। उनकी पीढ़ी के लेखकों पर हिंदी में प्रेमचंद और विश्व-साहित्य में तॉल्सतॉय जैसे लेखकों का प्रभाव था। आज़ादी के पहले और तुरंत बाद में हिंदी में राष्ट्रवाद से प्रेरित होकर कई उपन्यास लिखे गए हैं। वृंदावनलाल वर्मा के उपन्यासों में राष्ट्रीय गौरव को प्रतिष्ठित करने की कोशिश है। ऐसे उपन्यासों का बुनियादी स्वरूप अक्सर ऐसा होता है कि उनमें इतिहास कम और पुनरुत्थानवादी चिंतन अधिक होता है। 'मय्यादास की माड़ी' इनसे अलग उन इंसानी पहलुओं की पड़ताल करता है जो ऐतिहासिक संकटों में उजागर होते हैं।
उन्नीसवीं सदी की शुरुआत में सदियों की उथलपुथल के बाद महाराजा रणजीत सिंह का सिख दरबार पंजाबी अस्मिता की पहचान बनकर प्रतिष्ठित हुआ। हालाँकि महाराजा खुद सिख धर्म के अनुयायी थे, उनके राज में हिंदू, मुस्लिम और सिखों को बराबर अधिकार थे। दरबार में भी सभी संप्रदायों का प्रतिनिधित्व था। रणजीत सिंह का शासन सिख मिस्लों के सह-अस्तित्व पर आधारित था। ये मिस्ल छोटे-छोटे रजवाड़े या स्थानीय जंगी सरदारों के सत्ता-केंद्र थे, जैसे पटियाला शाही, नाभा आदि। रणजीत सिंह के जीवित रहने तक सिख दरबार समृद्ध होता रहा। उनकी मृत्यु के बाद केंद्रीय शासन कमजोर पड़ता चला और मिस्लों में फूट बढ़ती चली। इस फूट का फायदा उठाते हुए अंग्रेज़ों ने आखिरकार दस ही सालों में सिखों को हराकर अपना शासन कायम कर लिया। 'मय्यादास की माड़ी' उन्नीसवीं सदी के इन्हीं दस सालों से लेकर 1858 के बाद भारत के ब्रिटेन साम्राज्य का हिस्सा बन जाने के कुछ समय बाद तक के दौरान लाहौर और पंजाब के कस्बाई जीवन पर आधारित है। इसमें इतिहास है, समाजशास्त्र है, साझी विरासत को दिखलाते हुए फिरकापरस्ती के खिलाफ बुनियाद है और इस सबके बीच घरेलू स्त्रियाँ हैं, प्रेम-मुहब्बत है, रूढ़ियों के खिलाफ संघर्ष है। निजी दायरे से आगे, परिवार से लेकर सामुदायिक संबंधों तक को सहजता से कहने में भीष्म जी की महारत अव्वल दर्जे की थी। 'मय्यादास की माड़ी' में इसका बेहतरीन नमूना हम देखते हैं।
इंसानी ड्रामे के आरोह-अवरोह में एक ओर कला और सृजन के आयाम हैं, तो दूसरी ओर इतिहास का कैसा पाठ पढ़ा जा रहा है, यह अहम सवाल है। यह कहना सही नहीं होगा कि 'मय्यादास की माड़ी' में कोई फॉर्मूला नहीं है, पर यह सिर्फ प्लॉट तक सीमित है। इतिहास को देखने का लेखक का खुला नज़रिया है, और अपने समय के दूसरे रचनाकारों की तुलना में भीष्म साहनी का यह पक्ष आदर्श बन कर सामने आता है। उत्तर-औपनिवेशिक लेखन में आम तौर पर उन्नीसवीं सदी के इतिहास को एकांगी ढंग से देखा गया है और भारतीय समाज की सभी बुराइयों के लिए औपनिवेशिक व्यवस्थाओं पर दोष मढ़ा गया है। कुछ लोग तो बात यहाँ तक खींच ले जाते हैं कि अंग्रेज़ी शासन के पहले तक जाति-प्रथा में कोई दिक्कत नहीं थी, उनके आने के बाद से ही सारी समस्याएँ शुरू हुई हैं। इतिहास को इस तरह विकृत कर शोषण व्यवस्थाओं के पक्ष में ज़मीन तैयार करना ब्राह्मणवादी बुद्धिजीवियों की प्रवृत्ति रही है।
हालाँकि सृजनात्मक साहित्यिक रचना और इतिहास में फर्क होता है, पर तथ्यों के बारे में ऐतिहासिक घटनाओं पर आधारित साहित्य और इतिहास लेखन पर एक जैसे मानदंड लागू होते हैं। इतिहास लेखन और विचारधारा के संबंध पर हावर्ड ज़िन का यह कथन मौजूँ है, 'यह सच है कि हर इतिहास लेखक को कुछ तथ्यों को नज़रअंदाज़ करना पड़ता है, जैसे एक नक्शाकार को पृथ्वी की आकृति को कागज़ पर चपटा दिखलाना पड़ता है और फिर उस चपटे चित्र से आवश्यक भौगोलिक सूचनाएँ चुननी पड़ती हैं ... चयन या सरलीकरण ... पर वज़न डालना गलत नहीं है। पर नक्शाकार को एक तकनीकी सीमा की वजह से नक्शे को विकृत करना पड़ता है और इसे सभी नक्शा देखने वाले समझते हैं। इतिहास लेखकों द्वारा किया गया तोड़-मरोड़ तकनीकी कारणों से नहीं, सैद्धांतिक कारणों से होता है। ऐसी दुनिया में, जहाँ अलग-अलग शक्तियाँ काम कर रही हों, यह तोड़-मरोड़ चाहे-अनचाहे किसी एक स्वार्थ का, आर्थिक या राजनैतिक या जाति-विशेष या लिंग-विशेष, का समर्थन करता है। ...ये सैद्धांतिक स्वार्थ, इतने खुले रूप में सामने नहीं आते, जैसे कि नक्शाकार का नक्शे को अलग ढंग से दिखलाने का तकनीकी कारण स्वतः स्पष्ट हो जाता है...'
सच यह है कि यूरोपी ताकतों द्वारा उपनिवेश बनाए कई दीगर मुल्कों की तरह, भारत में भी वर्ग, जाति और लिंग पर आधारित सत्ता और सामाजिकता के मजबूत ढाँचे थे। उन्नीसवीं सदी की शुरुआत में भारत के कुछ ही इलाकों तक ईस्ट इंडिया कंपनी की पहुँच थी। इलाके में स्थानीय अस्मिता का हसास गहरा था और राष्ट्रीय चेतना नहीं के बराबर थी। उपमहाद्वीप के एक हिस्से में बड़ी तादाद में लोगों के साथ क्या गुज़र रही है, अक्सर और इलाके के लोगों को इसकी कोई खबर नहीं होती थी। पहले से ही शोषण की भयंकर व्यवस्था मौजूद थी, जिसे कंपनी के क्रूर पूँजीवाद ने और बदतर बना दिया था। पहले की व्यवस्था में धन देश में ही रहता था और अकाल जैसी स्थिति में राजा उदारता दिखलाते लोगों में अनाज बाँट सकते थे, कंपनी सारी कमाई इकट्ठा कर ब्रिटेन भेज रही थी। सवाल उठता है कि कुछेक गोरे ऐसा भयंकर शोषण कर पाने में सफल कैसे हुए। शक इसमें स्थानीय समाज के ताकतवर वर्गों की बड़ी भागीदारी थी। जाति की जटिल शृंखलाओं का पूरा फायदा उठाते हुए सामंती वर्ग ने सत्ता पर पूरी पकड़ बनाए रखी थीहालाँकि पंजाब में सिख गुरुओं और सूफी संतों की कोशिशों से पुरोहित वर्ग का वर्चस्व काफी हद तक कम हो गया था और 17 वीं सदी की शुरुआत तक अधिकतर इलाकों में किसानों ने बहुतायत से सिख धर्म अपनाते हुए पारंपरिक सत्ता समीकरणों को कड़ी चुनौती दी थी, फिर भी सामंती जकड़ मजबूत थी। संपन्न जातियों/वर्गों की मेहनतकश वर्गों के प्रति संवेदनाहीनता बदली नहीं। आम जन के लिए वही गहरी संवेदनाहीनता आज तक बनी हुई है और यह हमें यूरोपियों से नहीं मिली है, बल्कि यह हमारी अपनी विरासत है। अंध राष्ट्रवादी ही यह मानते हैं कि यूरोपियों के आने के पहले जातिगत भेदभाव नहीं था। इसी तरह पूरे समाज में लिंग-आधारित भेदभाव आम था और आज भी हर जगह है। उपन्यास के कथानक में बार-बार ऐसे संदर्भ आते हैं, जिनसे हम इसे देख सकते हैं। कस्बे में वानप्रस्थी का महज लड़कियों के लिए स्कूल खोलना उसकी 'मत्त' मारी जाना है। लड़कियों क स्कूल कंजरखाना कहलाता है। बलराम साँप के डँसने से मारा जाता है तो यह पत्नी भागसुद्धी का दोष है। भीष्म साहनी अपने समूचे लेखन में समाज में स्त्रियों की स्थिति को लेकर सचेत रहे हैं और स्त्रियों की आज़ादी के प्रबल पक्षधर रहे हैं। यहाँ भी उपन्यास में रुक्मणी का सशक्त चरित्र है, जो दकियानूसी मान्यताओं से लोहा लेकर पढ़ाई करती है और अध्यापक बन जाती है। ऐसा ही 'कुन्तो' और दूसरे उपन्यासों के बारे में कहा जा सकता है।
उन्नीसवीं सदी के वे दशक जिन पर 'मयदास की माड़ी' आधारित है, पूरे भारतीय उपमहाद्वीप के लिए निर्णायक दशक थे। धीरे-धीरे यूरोपी आधुनिक तक्नोलोजी भारत पहुँच रही थी और इसका इस्तेमाल संसाधनों के शोषण के लिए खुल कर हो रहा था। उपन्यास में एक रोचक वाकया लंदन के इंडिया हाउस में भारत में रेलगाड़ियों में पूँजी लगाने को लेकर हो रही एक बैठक का है। इसमें एक बरतानवी मंत्री का बयान है, '… रेलगाड़ियों के निरमाण का सारा खर्च भारत के नाम डाला जा रहा है, भारत ही मूल पूँजी भी अदा करेगा। उस पर सूद भी,.... इसमें भारत का ही हित है। भारत की ही ज़मीन पर रेलों का जाल बिछाया जा रहा है। हम एक तरह से भारत की ही उन्नति का पथ प्रशस्त कर रहे हैं।' सभा में एक अध्यापक है जो किसी संबंधी के कहने पर भारतीय रेलवे के कुछेक हिस्से खरीद बैठा था। वह मंत्री की बातों का विरोध करता है और उन ज़ुल्मों और शोषण की बात करता है, जो कंपनी और बाद में ब्रिटिश सरकार ने भारतीयों पर ढाए थे।

इस वक्त के बारे में 1853 में मार्क्स ने लंदन में उपलब्ध कागज़ात पर आधारित न्यूयॉर्क हेराल्ड ट्रिब्यून में प्रकाशित अपने प्रसिद्ध लेख 'द ब्रिटिश रुल ऑफ इंडिया' लिखा है, 'बेशक हिंदोस्तान पर बर्तानवी राज ने जो कहर बरपाया है, वह पहले की सारी पीड़ाओ से कहीं ज्यादा गहरा और अलग है।... अब तक के तमाम गृहयुद्ध, बाहरी हमले, क्रांतियाँ, अकाल, एक के बाद एक तेजी से विनाश लाती जटिल प्रक्रियाएँ सतह से गहरी पैठ नहीं कर पाई थीं। इंग्लैंड ने भारतीय समाज का पूरा ढाँचा तोड़ डाला है, और कोई नया बनता अभी तक दिख नहीं रहा है। बिना किसी नए संसार के बने पुराने संसार के इस तरह ढह जाने से हर हिंदू ('भारतीय' अर्थ में) पर एक खास किस्म का सदमा गहराया है और इस तरह ब्रिटेन शासित हिंदोस्तान अपनी सभी पुरानी परंपराओं और अपने सारे इतिहास से अलग-थलग हो गया है।' इसके बाद औपनिवेशिक शोषण के आर्थिक पहलुओं पर विस्तार से चर्चा कर आखिर में वे कहते हैं कि इस भयंकर विनाश से जितनी भी तकलीफ होती हो, हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि 'खूबसूरत और सादगी से भरे दिखते गाँव आधारित समुदाय ही पूरब के लुटेरा-राज की ठोस बुनियाद थे, जिनकी वजह से इंसान के दिमाग को घोर संकीर्णताओं में बाँध रखा गया, उसे अंधविश्वासों का औजार बनाया गया, पारंपरिक कानूनों के तले गुलाम रखा गया, जिससे उसकी ताकत और ऐतिहासिक क्षमताएँ ष्ट हो गईं। ... हमें भूलना नहीं चाहिए कि इन छोटे-छोटे समुदायों में जातिप्रथा और दासप्रथा जैसी खासियत थी और वे इंसान को परिस्थितियों पर विजय प्राप्त करने की जगह उसे बाहरी परिस्थितियों का गुलाम बनाते रहे, और उन्होंने सामाजिक सत्ता को शाश्वत नियति बना कर रख दिया, जिससे कुदरत की पूजा की क्रूर रुढ़ियाँ प्रतिष्ठित हो गईं।' मार्क्स हनुमान और गाय की पूजा का उदाहरण देकर बतलाते हैं कि भारतीय समाज कितना पिछड़ा था। आगे वे वह बात कहते हैं, जिन पर राष्ट्रवादी इतिहासकारों को घोर आपत्ति है, 'सच है कि हिंदोस्तान में सामाजिक बदलाव लाने के पीछे इंग्लैंड के जघन्य हित थे और बड़ी बेवकूफी के साथ इन हितों को लागू किया गया। पर सवाल यह नहीं है। सवाल यह है कि क्या एशिया की सामाजिक सत्ता में बुनियादी इन्कलाब लाए बिना मानव अपनी नियति तक पहुँच पाएगा? अगर नहीं, तो इंग्लैंड ने जो भी ज़ुर्म किए हो, उस इंकलाब को लाने में इंग्लैंड अंजाने ही इतिहास का औजार बन गया।' फिर वे इसी बात को जर्मन दार्शनिक कवि गेटे की पंक्तियाँ उद्धृत करते हुए समझाते हैं कि तमाम पीड़ाओं क बावजूद हमें समझना चाहिए कि बेहतर भविष्य के लिए यह ज़रूरी था। बेशक मार्क्स का यह कथन उस दूरी को दिखलाता है जो उनके भारतीय उपमहाद्वीप में कभी न आने से और यहाँ के लोगों के साथ नहीं जुड़ पाने की वजह से थी। पर इस बात को धरमपाल ('अ बिउटिफुल ट्री' की भूमिका में) एक बेचैनी मानते हैं, जो भारतीय दिमाग को पश्चिमी या यूरोपी दिमाग बनाने की थी। इसमें शक नहीं कि मार्क्स में तरह-तरह की बेचैनी थी, पर धरमपाल का कथन महज राष्ट्रवादी चोंचलेबाजी है। अगर बेचैनी की कोई परिभाषा ढूँढनी ही है तो हमें इसे हर इंसान के दिमाग को, भारतीय भी, समाजवादी दिमाग बनाने की बेचैनी कहना होगा। यूरोपी आधुनिकता की जो आलोचना मार्क्स ने की है, उसके बौद्धिक कथ्य पर कुछ न भी कहें तो भी इतना तो कहना होगा कि उसके प्रभाव से दुनिया में बहुत कुछ बदल गया है। इसलिए उसकी बेचैनी को यूरोपकेंद्रिक बेचैनी मान लेना नासमझी ही कहला सकती है।
उपन्यास की शुरुआत में ही हम देखते हैं कि समाज अंधविश्वासों से भरा हुआ है। पुरोहित कहता है कि किसी का वक्त आ गया है तो वह मर जाता है। समाज इसे मरने वाले की शारीरिक स्थिति से नहीं बल्कि पुरोहित की अधकचरी नीम-हकीमी समझ के साथ जोड़ कर देखता है। यहाँ तक कि उसकी जादुई क्षमता की कल्पना है। अगर कोई इस जादूगर से टक्कर ले सकता है तो वह या तो खुद असहाय हो चुकी वृद्धा भागसुद्धी है या कच्ची उम्र के लौंडे जो आसन्न विपदाओं से बेफिक्र किसी को भी परेशान कर सकते हैं। इन चरित्रों को पढ़ते देखते हुए एकबारगी तो हमें लगता है कि हम आज भी वहीं, उन्नीसवीं सदी की शुरुआत में ही लटके हुए हैं। सचमुच ऐसा है भी, मंगल ग्रह की उड़ान के लिए आतुर यह मुल्क आज भी अपने बुनियादी चरित्र में वैसा ही संकीर्ण और रुढ़िवादी है, जैसा सदियों पहले था। आज भी छोटी बच्चियाँ वैसे ही तक़रीबन बेच दी जाती हैं, जैसे बड़े भोलेपन के साथ हरनारायण अपनी बच्ची रुक्मणी को पुरोहित के हाथ दे देता है। आज भी दूल्हों के साथ आए बाराती लड़की वालों पर जुल्म ढाते हैं। नाचगान शोरगुल में भी लड़की के घरवालों की धड़कनें नहीं दबतीं। शादियों के समारोह अक्सर पवित्र संबंधों की शुरुआत की जगह बदतमीज़ी का आलम होते हैं।
सरमाएदारी के अंतर्निहित संकट ऐसे समझौतों को साथ लाते हैं, जो विरोधाभासों को जन्म देते हैं। राष्ट्रवाद और पूँजीवाद की मिलीभगत भी ऐसा ही समझौता है, जिससे तमाम दूसरे संकट, मसलन कुदरत के विनाश के लिए विज्ञान का इस्तेमाल, स्त्री का एक वस्तु की तरह इस्तेमाल आदि पनपते हैं। भीष्म साहनी की रचनाएँ ऐसी विकृतियों के बारे में हमें सचेत करती हैं। ऐसा नहीं है कि भीष्म साहनी राष्ट्रवाद से बिल्कुल मुक्त थे, उनकी दृष्टि में भी औपनिवेशिक काल गुलामी का काल है और इसके खिलाफ लड़ाई में वे खुद शामिल रहे थे। पर उनका राष्ट्रवाद पुनरुत्थानवादी अंधभक्ति नहीं है। वे हमें अपने समाज की ओर आलोचनात्मक दृष्टि से देखने को कहते हैं। सरमाया की ताकत से ही रुक्मणियाँ खरीदी जाती रही हैं। सरमाया ही है जिससे आज भी चन्द्राएँ रखैल हो सकती हैं और जब उनका शरीर बिक नहीं सकता तो वे वापस सड़क पर असहाय फेंक दी जाती हैं। चाहे वह उन्नीसवीं सदी के सामंती समाज का सरमाया हो या कि इक्कीसवीं सदी का नवउदारवादी सरमायादारी शहरी समाज है। और यह समाज ऐसी सड़न में डूबा है कि अधिकतर लोग जालिमों के साथ ही होते हैं, उनके ज़ुल्मों को ही ठीक ठहराते हैं। इसलिए रामजवाया का यह कथन है, 'न कोई नमकहलाल होता है, न नमकहराम। हम सब हाकिमे-वक्त का हुक्म बजा लाते हैं, सदा से ऐसा ही चलता आया है।' अपनी फूल सी बच्ची को ग़लत तरीके से मिरगी के रोगी के साथ ब्याहने के खिलाफ कुछ कर पाने में असफल हरनारायण बस यह सोचने को मजबूर है, 'कस्बे की अँधेरी गलियों में जिस जीवन-परिपाटी ने जन्म लिया था, उसके अपने ही तर्क थे, अपने ही नियम थे'। यही खाप-पंचायती रवायतें आज भी जारी हैं और इन दिनों फासीवादी प्रवृत्तियाँ इन्हें और भी सख्ती से लागू करने को तत्पर हैं। पूँजीवाद का आना सामंती समाज के सामान्य मानवीय मूल्यों का खत्म होना भी है, जैसे सालों बाद लौट कर आकर लेखराज दीवान धनपत के ज़ुल्म देखता हुआ सोचता है, '...एक अमलदारी वह होती है जिसमें मनुष्य की अच्छी भावनाओं को बल मिलता है, प्रोत्साहन मिलता है, दर्दमंदी को, सेवाभाव को, दिल की उदारता को, सहनशीलता को, एक-दूसरे का दर्द बाँटने की भावना को। एक अन्य प्रकार की अमलदारी होती है जिसमें नोच-खसोट, घृणा-द्वेष, धन-लोलुपता को बढ़ावा मिलता है। एक में मनुष्य की उदात्त भावनाएँ विकास पाती हैं, जिसमें आपसी सद्भावना बढ़ती है। बेशक, पाँचों उँगलियाँ एक बराबर तो नहीं होतीं, स्वार्थी लोग तो हर ज़माने में पाए जाते हैं, पर समूचे वातावरण में स्वार्थ का विष नहीं घुला रहता, जनमत लोगों की दुर्भावनाओं पर अंकुश लगाए रखता है।'

अक्सर भीष्म साहनी को प्रेमचंद की परंपरा का लेखक कह दिया जाता है। उनकी रचनाएँ अपने समय की जीवंत कथाएँ हैं। 'मय्यादास की माड़ी' समकालीन समाज की विसंगतियों की यथार्थपरक और मार्मिक तस्वीर दिखलाता है उनकी दूसरी रचनाओं की तरह ही यह भी और बेहतर समाज बनाने के लिए हमें प्रेरित करता है। वे उपन्यास की विधा की पारंपरिक सीमाओं में रहते हुए शब्द-चित्रों और कलात्मक शैली में इंसान की ज़िंदगी की जटिलताओं को ऐसे पेश करते हैं कि पाठक शुरु से अंत तक बँधा रहता है। इसे पढ़ते हुए तीन पीढ़ियों में बदलते मूल्यों, सामाजिक-राजनैतिक सरोकार और समाज की टूटन को हम अपने सामने घटते देखते हैं। सचमुच वे प्रेमचंद से अलग और आगे के रचनाकार थे। न केवल भाषा के स्तर पर, बल्कि विषय, शैली और दृष्टि में वे प्रेमचंद से काफी अलग थे। उनके सरोकार जनपक्षधर थे, पर उनकी रचनाओं को पढ़कर आप यह सोचकर चैन की नींद नहीं सो सकते कि वाह, कितना यथार्थपरक लेखन है। वे गहरे चोट करती हैं। उनकी भाषा सरल थी और पाठक से ऐसे जुड़ती थी जैसे कोई किसी यात्रा में बैठे हुए साथी से बातें कर रहा हो। पंजाब की पृष्ठभूमि को अपनी रचनाओं में बड़े स्वाभाविक ढंग से पिरोते थे। अक्सर लोक कहावतें और बोलियों का इस्तेमाल करते थे। उदाहरण के लिए देखिए - लेखराज से बातें करते हुए अपनी बेटी के ज़बरन कल्ले के साथ ब्याहे जाने के दुख को हरनारायण यूँ बयां करता है, 'माए पुत्तर जणेनिए, करम न देंवे बंड,/ इक चढ़ेंदे घोड़ियाँ, इक टुकड़े खांदे मंग।' वे अपने समकालीन यशापाल और दूसरे कई प्रगतिशील कथाकारों से इस मायने में अलग थे कि उनके लेखन में हम विचार से पहले कहानी को पढ़ते हैं। मूलत: वे मानवतावादी थे। देश के बँटवारे के वक्त हुई त्रासद घटनाओं जैसे विषयों पर भी उनका लिखा सहज बनकर सामने आता है - हालाँकि 'तमस' फिल्म में इसे भरपूर नाटकीयता के साथ दिखलाया गया है। उनकी कई रचनाओं में ग़रीब और कमज़ोर तबकों के चरित्र प्रधान भूमिका में नज़र आते है। पर मुख्यत: उनका लेखन मानव नियति पर केंद्रित था। सामाजिक प्रक्रियाओं से समूह-संस्कृतियों का बनना और ऐसे समूहों का परस्पर के प्रति हिंसा और नफ़रत में बह जाना, इसी के बीच संवेदनशील इंसान का पलना, बचपन से लेकर पूर्ण वयस्क अनुभवों तक से गुजरना, इन बातों को ही हम उनके लेखन में पाते हैं। इस अर्थ में उनके लेखन में संवेदनाओं की ऐसी सार्वभौमिकता है, जो उसे अनन्य बना देती है। ‘मय्यादास की माड़ी’ इतिहास पर अपने खुले नज़रिए की वजह से हिन्दी लेखन में एक मील का पड़ाव है। भीष्म साहनी के लेखन को किसी निश्चित समाजशास्त्रीय ढाँचे में डाल कर देखना सही नहीं हैवे मूलत: इंसानी फितरत और पाखंड से उपजी तकलीफों को सामने लाने वाले ऐसे लेखक थे, जो हमें अपने साथ ऐसी यात्राओं पर ले जाना चाहते थे, जहाँ हम कुदरत को देख-जान सकें और परस्पर नफ़रत से निकल कर आपस में प्यार का बीज बो सकें। बेशक खास ऐतिहासिक स्थितियों से अलग हटकर हम उनके लेखन को पूरी तरह नहीं पढ़ सकते, यह सामान्य तथ्य है जो किसी भी अच्छे रचनाकार के लिए लागू होता है, पर उनका फोकस ऐतिहासिकता पर नहीं, बल्कि मानविकता पर था।

उपन्यास में चरित्र निरुपण में एक बड़ी तकलीफदेह बात है। धनपत का रखैल का बेटा होने तक तो बात ठीक है, पर क्या उसी को कहानी का 'विलेन' होना ज़रूरी था? गोकुलदास के 'अच्छे' बेटे लेखराज का रस्म मुताबिक करवाई शादी से पैदा होना लाजिम था? तो क्या भीष्म साहनी की तरक्कीपसंदी की भी अपनी हदें थीं? या पारंपरिक किस्सागोई, जिसमें हर किसी को अपने जन्म और करमों की सजा मिलनी तय है से वे भी पूरी तरह निकल नहीं पाए थे!

बहरहाल, उपन्यास का अंत प्रतिरोध के अनोखे जज्बे के साथ होता है, जब सत्ता के दलाल हुकूमतराय को 'आज़ाद' चुनौती देता कहता है कि कल फिर जुलूस निकलेगा और तुम लाठियाँ गोलियाँ चलवाओ, वह नहीं रुकेगा। जुलूस निकलता भी है और पूरा कस्बा गा रहा होता है, 'असाँ ते साइयाँ, साडा करम कमा दे,/ साडा गुलामी कोलों देस छुडा दे।' अंतत: प्रतिरोध ही इस उपन्यास का मुख्य स्वर बनकर उभरता है, वह विलेन धनपत का प्रतिरोध है, मंसाराम मलिक का है, लेखराज का है, रुक्मणी का है और आज़ाद चाचा का भी है, उस उल्लू का भी है जो सत्ता के दलाल हुकूमत राय की माड़ी की छत पर बैठा है, जिसे देखता आने वाले कल का इंकलाबी जोगा पल रहा है।


1 comment:

HindIndia said...

बहुत ही उम्दा ..... बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति .... Thanks for sharing this!! :) :)