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जो दमक रहा, शर्तिया काला है



यूनिवर्सिटी में छात्रों का आंदोलन रुका नहीं है। कैंपस में आए तरह-तरह के 
राजनैतिक नेताओं में सीताराम येचुरी और कविता कृष्णन ने सबसे बेहतर ढंग 
से बातें रखीं। जे एन यू से आए छात्र नेता शहेला रशीद को सुनकर भी अच्छा 
लगा। कल शाम शहर के सांस्कृतिक केंद्र ला मकां में रोहित वेमुला पर 
सार्वजनिक सभा हुई। यह बात सामने आई कि जातिगत भेदभाव को जड़ से उखाड़ने का वक्त आ गया है। 25 जनवरी को चलो एचसीयू (हैदराबाद सेंट्रल यूनिवर्सिटी)का आह्वान है। दूसरी ओर यूनिवर्सिटी के अध्यापकों में अधिकतर यह चाहने लगे हैं कि नियमित क्लासें लगनी शुरु हो।

चार दिन पहले यह छोटा लेख दैनिक भास्कर के लिए लिखा था। आज छपा है- मामूली काट-छाँट के साथ। 
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क्या आपके किसी परिचित ने कभी खुदकुशी की है? रोहित वेमुला एक युवा छात्र कार्यकर्ता था, जिससे दो चार बार मेरी मुलाकात हुई थी। आम सभाओं में मिले, एकबार शायद एक व्याख्यान के बाद भी हम कुछ देर तक साथ थे। एक इंसान जिसे मैं जानता था हमेशा के लिए गायब हो गया है। हम खबरों में किसानों की खुदकुशी की खबर पढ़ते हैं। किशोरों और युवाओं में खुदकुशी से मौत आमफहम बात होती जा रही है। करीब अड़तीस साल पहले आई आई टी कानपुर में पढ़ने के दौरान एक खुदकुशी की घटना हुई तो मुझे याद है मेरे अधिकतर दोस्त उसको कोस रहे थे जिसने खुदकुशी की थी। मैं बहस करता रहा कि यह किसी एक आदमी की नहीं सामाजिक बीमारी है। बहुत बाद में मैंने जाना कि समाजशास्त्र के संस्थापक माने जाने वाले विद्वान एमिल दुर्खाइम और माक्स वेबर दोनों ने अलग-अलग वैचारिक पक्ष रखते हुए खुदकुशी को सामाजिक परिघटना माना है। बेशक खुदकुशी का निर्णय ले रहा व्यक्ति हम आप जैसे आम लोगों से कुछ तो अलग होगा, पर यह मान लेना कि हम आप किसी की खुदकुशी के लिए बिल्कुल जिम्मेदार नहीं हैं, सही नहीं है। मसलन किसानों की बड़ी तादाद में हो रही खुदकुशी पर हम क्या कर रहे हैं? हम खबरें पढ़ते हैं और मन मसोस कर रह जाते हैं। पर सच तो यही है कि हमने आम लोगों को गैरबराबरी के इस स्तर पर लाकर खड़ा किया है कि लोग कर्ज और भुखमरी से छुटकारा पाने का और कोई रास्ता नहीं ढूँढ पा रहे हैं।

रोहित वेमुला की खुदकुशी के लिए वे सब लोग जिम्मेदार हैं, जिन्होंने मुल्क में ऐसे माहौल को उभरने दिया है, जिसमें विरोध की कोई भी आवाज़ सही नहीं जाती है। एक केंद्रीय मंत्री मानव संसाधन विकास मंत्री को लिखता है कि हैदराबाद विश्वविद्यालय राष्ट्रविरोधी तत्वों का गढ़ बन गया है। क्यों, इसलिए कि कुछ छात्रों ने अदालत के किसी निर्णय को सही नहीं माना है और वे प्रतिवाद कर रहे हैं। क्या इस देश में इतना भी लोकतंत्र नहीं बचा है कि युवा नागरिक अपनी असहमति जाहिर कर सकें? मानव संसाधन विकास मंत्री विश्वविद्यालय से बार बार पूछती है कि साथी मंत्री की शिकायत पर कारवाई क्यों नहीं हो रही है। दबाव में आकर विश्वविद्यालय प्रशासन छ: दलित छात्रों के सामाजिक बहिष्कार की घोषणा करता है। उनमें से एक, रोहित वेमुला, खुदकुशी कर लेता है।

हम ग़मजदा हैं, परेशान हैं, पर सचमुच इस तरह की घटनाओं की तैयारी हमारी होनी चाहिए। हमें पता होना चाहिए कि व्यापक हिंसक गुंडा संस्कृति की शुरुआत डेढ़ साल पहले संसदीय चुनावों के पहले से हो चुकी है। लोकतंत्र जिनके लिए ढकोसला मात्र है, उनकी हुकूमत है। वे नगर-नगर दंगे करवाएँगे, वे बुद्धिजीवियों का कत्ल करेंगे, भय का मौसम लाएँगे, यह किसको नहीं मालूम था? ऐसी स्थिति में सवाल यह है कि हमने इन स्थितियों को उभरने दे कर युवाओं के साथ दगा नहीं किया? आज अगर देश भर में दलितों में आक्रोश का उफान है तो इसमें अचरज किस बात का है? आज तो जो भी सत्ता पर काबिज परिवार के साथ नहीं है, वह राष्ट्रविरोधी है। जिसमें भी स्वाभिमान है, वह राष्ट्रविरोधी है। वह दलित या मुसलमान हो तो और भी राष्ट्रविरोधी है! क्या देश के किसी भी नागरिक को बेवजह राष्ट्रविरोधी कह देना सबसे बड़ा राष्ट्रविरोधी काम नहीं है? क्या किसी के भी खिलाफ राष्ट्रविरोधी होने का इल्ज़ाम लगाकर उस पर कारवाई करने की माँग राष्ट्रविरोधी काम नहीं है? रोहित वेमुला की खुदकुशी इस देश के सचेत लोगों के लिए यह सवाल रख गई है कि क्या हम अपनी जिम्मेदारियों को निभा रहे हैं? क्या इस देश में अकादमिक संस्थान राजनैतिक ताकतों के सामने इतने गुलाम हो गए हैं कि अपनी ही समिति के निर्णय को दरकिनार कर मंत्रियों के दबाव में छात्रों को सामाजिक बहिष्कार के फतवे जारी करने लगें? क्या यह देश वह देश रह गया है जिसे हम अपना देश मानते हैं?

गणतंत्र दिवस की संध्या पर हम रोहित वेमुला और उस जैेसे अनगिनत बेचैन युवाओं की ओर से आह्वान करते हैं कि ऐ देश के लोगों, इन असली गद्दारों को पहचानो, जो इस मुल्क को तबाह करने को तत्पर हैं। हाल में हमें छोड़ गए कवि वीरेन डंगवाल की पंक्तियों को हम याद करें - 'हमने यह कैसा समाज रच डाला है/ इसमें जो दमक रहा, शर्तिया काला है।' हम कब तक इन शर्तिया हत्यारों को झेलते रहेंगे?

ोहित वेमुला एक प्रतिभाशील युवा था, जिससे मैं दो चार बार मिला था। वह अब इस दुनिया में नहीं है। मैं इस निष्ठुर समाज में किससे कहूँ कि जिन राजनैतिक परस्थितियों में देश के ईमानदार युवाओं को धकेला गया है, वह ग़लत है। फिलहाल मैं सिर्फ खुद को कटघरे में खड़ा कर सकता हूँ और पूछ सकता हूँ कि तुमने क्या किया। क्या ऐसा वक्त आ गया है कि हम समझदारी की रस्मों को तोड़ें और शहर के सबसे व्यस्त चौक पर नंगे खड़े हो कर चीख कर कहें कि कोई हमारे बच्चों को इन हिंसक बीमारों से बचाए, जो मुल्क के तख्त पर आसीन हैं?

Comments

आपकी इस बात से पूरी तरह सहमत हूँ कि रोहित वेमुला की खुदकुशी के लिए वे लोग जिम्मेदार हैं जिन्होंने ऐसे माहौल को उभरने दिया है जिसमें विरोध की कोई भी आवाज़ सही नहीं जाती है. यह गौण है कि वेमुला दलित था या नहीं.

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