यूनिवर्सिटी में छात्रों का आंदोलन रुका नहीं है। कैंपस में आए तरह-तरह के
राजनैतिक नेताओं में सीताराम येचुरी और कविता कृष्णन ने सबसे बेहतर ढंग
से बातें रखीं। जे एन यू से आए छात्र नेता शहेला रशीद को सुनकर भी अच्छा
लगा। कल शाम शहर के सांस्कृतिक केंद्र ला मकां में रोहित वेमुला पर
सार्वजनिक सभा हुई। यह बात सामने आई कि जातिगत भेदभाव को जड़ से उखाड़ने का वक्त आ गया है। 25 जनवरी को चलो एचसीयू (हैदराबाद सेंट्रल यूनिवर्सिटी)का आह्वान है। दूसरी ओर यूनिवर्सिटी के अध्यापकों में अधिकतर यह चाहने लगे हैं कि नियमित क्लासें लगनी शुरु हो।
चार दिन पहले यह छोटा लेख दैनिक भास्कर के लिए लिखा था। आज छपा है- मामूली काट-छाँट के साथ।
-------------
रोहित
वेमुला की खुदकुशी के लिए वे
सब लोग जिम्मेदार हैं,
जिन्होंने
मुल्क में ऐसे माहौल को उभरने
दिया है,
जिसमें
विरोध की कोई भी आवाज़ सही
नहीं जाती है। एक केंद्रीय
मंत्री मानव संसाधन विकास
मंत्री को लिखता है कि हैदराबाद
विश्वविद्यालय राष्ट्रविरोधी
तत्वों का गढ़ बन गया है। क्यों,
इसलिए
कि कुछ छात्रों ने अदालत के
किसी निर्णय को सही नहीं माना
है और वे प्रतिवाद कर रहे हैं।
क्या इस देश में इतना भी लोकतंत्र
नहीं बचा है कि युवा नागरिक
अपनी असहमति जाहिर कर सकें?
मानव
संसाधन विकास मंत्री विश्वविद्यालय
से बार बार पूछती है कि साथी
मंत्री की शिकायत पर कारवाई
क्यों नहीं हो रही है। दबाव
में आकर विश्वविद्यालय प्रशासन
छ: दलित
छात्रों के सामाजिक बहिष्कार
की घोषणा करता है। उनमें से
एक, रोहित
वेमुला,
खुदकुशी
कर लेता है।
हम
ग़मजदा हैं,
परेशान
हैं, पर
सचमुच इस तरह की घटनाओं की
तैयारी हमारी होनी चाहिए।
हमें पता होना चाहिए कि व्यापक
हिंसक गुंडा संस्कृति की
शुरुआत डेढ़ साल पहले संसदीय
चुनावों के पहले से हो चुकी
है। लोकतंत्र जिनके लिए ढकोसला
मात्र है,
उनकी
हुकूमत है। वे नगर-नगर
दंगे करवाएँगे,
वे
बुद्धिजीवियों का कत्ल करेंगे,
भय का
मौसम लाएँगे,
यह किसको
नहीं मालूम था?
ऐसी
स्थिति में सवाल यह है कि हमने
इन स्थितियों को उभरने दे कर
युवाओं के साथ दगा नहीं किया?
आज अगर
देश भर में दलितों में आक्रोश
का उफान है तो इसमें अचरज किस
बात का है?
आज तो
जो भी सत्ता पर काबिज परिवार
के साथ नहीं है,
वह
राष्ट्रविरोधी है। जिसमें
भी स्वाभिमान है,
वह
राष्ट्रविरोधी है। वह दलित
या मुसलमान हो तो और भी
राष्ट्रविरोधी है!
क्या
देश के किसी भी नागरिक को बेवजह
राष्ट्रविरोधी कह देना सबसे
बड़ा राष्ट्रविरोधी काम नहीं
है? क्या
किसी के भी खिलाफ राष्ट्रविरोधी
होने का इल्ज़ाम लगाकर उस पर
कारवाई करने की माँग राष्ट्रविरोधी
काम नहीं है?
रोहित
वेमुला की खुदकुशी इस देश के
सचेत लोगों के लिए यह सवाल रख
गई है कि क्या हम अपनी जिम्मेदारियों
को निभा रहे हैं?
क्या
इस देश में अकादमिक संस्थान
राजनैतिक ताकतों के सामने
इतने गुलाम हो गए हैं कि अपनी
ही समिति के निर्णय को दरकिनार
कर मंत्रियों के दबाव में
छात्रों को सामाजिक बहिष्कार
के फतवे जारी करने लगें?
क्या
यह देश वह देश रह गया है जिसे
हम अपना देश मानते हैं?
गणतंत्र
दिवस की संध्या पर हम रोहित
वेमुला और उस जैेसे अनगिनत
बेचैन युवाओं की ओर से आह्वान
करते हैं कि ऐ देश के लोगों,
इन असली
गद्दारों को पहचानो,
जो इस
मुल्क को तबाह करने को तत्पर
हैं। हाल में हमें छोड़ गए कवि
वीरेन डंगवाल की पंक्तियों
को हम याद करें -
'हमने
यह कैसा समाज रच डाला है/
इसमें
जो दमक रहा,
शर्तिया
काला है।'
हम कब
तक इन शर्तिया हत्यारों को
झेलते रहेंगे?
रोहित
वेमुला एक प्रतिभाशील युवा
था, जिससे
मैं दो चार बार
मिला था। वह अब
इस दुनिया में नहीं है। मैं
इस निष्ठुर समाज में किससे
कहूँ कि जिन राजनैतिक परस्थितियों
में देश के ईमानदार युवाओं
को धकेला गया है,
वह
ग़लत है। फिलहाल मैं सिर्फ खुद
को कटघरे में खड़ा कर सकता हूँ
और पूछ सकता हूँ कि तुमने क्या
किया। क्या ऐसा वक्त आ गया है
कि हम समझदारी की रस्मों को
तोड़ें और शहर के सबसे व्यस्त
चौक पर नंगे खड़े हो कर चीख कर
कहें कि कोई हमारे बच्चों को
इन हिंसक बीमारों से बचाए,
जो
मुल्क के तख्त पर आसीन
हैं?
Comments