Friday, August 01, 2014

चिट्ठा अगस्ता


नौ साल पहले हमलोगों ने जब हिंदी में ब्लॉग लिखना शुरू किया था, तो पोस्ट के लिए एक शब्द चला था 'चिट्ठा'; धीरे-धीरे वह गायब ही हो गया। 

कुछ दिनों पहले केदार जी को ज्ञानपीठ मिलने पर चिट्ठा लिखा और ग़लती से वह डिलीट हो गया। फिर हताशा में लंबे समय तक कुछ लिखा नहीं। केदार जी की एक कविता, 'प्रश्न-काल', जिसकी चर्चा कम होती है, मेरी प्रिय है। यह 'उत्तर-कबीर और अन्य कविताएँ' में संकलित है। बीस साल पहले विज्ञान और जन-विज्ञान आंदोलन जैसे विषयों पर बोलते हुए मैं इस कविता की पंक्तियों का इस्तेमाल किया करता था। मेरे पास संग्रह नहीं है। कुछ दोस्तों को लिखा कि हो सके तो यह कविता भेजें, पर मदद मिली नहीं। इसकी पंक्तियाँ कुछ इस तरह हैं - पूछो कि पूछने वालों की सूची में क्यों नहीं है तुम्हार नाम, पूछो कि पूछने पर थोड़ी सी और अलग, थोड़ी सी और बेहतर बन जाती है दुनिया। उन दिनों कभी केदार जी से मैंने जिक्र किया था कि उनकी इस कविता का इस्तेमाल मैं करता रहा हूँ, तो बहुत खुश हुए थे और स्मृति से सुनाई भी थी।

फिर उसके बाद चिट्ठा लिखा ही नहीं गया। कल खबर मिली कि नबारुण नहीं रहे तो झटका लगना ही था, हालाँकि पता था कि लंबे समय से बीमार हैं। हिंदी में लोग अधिकतर उनकी राजनैतिक कविताओं से उनको पहचानते हैं, पर नबारुण मेरे खयाल में कलात्मक दृष्टि से समकालीन भारतीय साहित्य में सबसे बेहतर उपन्यास लेखक हैं। हाल में मैंने मेल पर इस बात का जिक्र रणेंद्र से किया था। मेरी उम्मीद थी कि उनको नोबेल मिल सकता है। उनके एक ही उपन्यास, 'हर्बर्ट' का हिंदी में अनुवाद हुआ है - यू ट्यूब पर फिल्म भी मिल जाएगी। सबसे प्रसिद्ध कृति, 'कांगाल मालसाट', जिसे पढ़कर मैं चौंक गया था कि ऐसा भी भारतीय भाषा में लिखा जा सकता है, का अनुवाद बहुत कठिन होगा, पर वह कमाल की कृति है। इस पर फिल्म बनी थी, पर तृणमूल वाली पश्चिम बंगाल सरकार ने उसे प्रतिबंधित कर दिया। जो बांग्ला पढ़ सकते हैं, उन्हें यह उपन्यास ज़रूर पढ़ना चाहिए। बाकी उपन्यास और लंबी कहानियाँ भी अद्भुत हैं। अराजकतावादी राजनैतिक फंतासी और विज्ञान-कथा का मेल कुछ रचनाओं में दिखता है। 'कांगाल मालसाट' और 'लुब्धक' इसी तरह की कृतियाँ हैं। दो साल पहले मैंने सोचा था कि उनसे अनुमति लेकर कुछ काम हिंदी में अनुवाद करूँ। मित्र राजीव से फ़ोन नंबर भी लिया था। फिर पशोपेश में रहा कि पूरा कर पाऊँगा या नहीं और संपर्क नहीं कर पाया। उनकी माँ महाश्वेता वैसे ही बड़ी उम्र की हैं और इस वक्त उन पर क्या गुजर रही होगी सोचकर तकलीफ होती है। दो साल पहले मिला था तो मंच पर बोलना रुका नहीं था, पर ह्वील-चेयर पर ही आती-जाती थीं। 

बढ़ती उम्र के साथ दो बातें होती रहती हैं। एक तो शारीरिक समस्याएं दिखने लगती हैं। दूसरा यह कि अचानक भले लोग धरती से गायब होने लगते हैं। इन दिनों हफ्ते भर से सीधे चल नहीं पा रहा हूँ। कहीं नसें खिंच गई हैं। मेरे डाक्टर छात्र, शुभेंदु, जिसने डाक्टरी छोड़ कर सैद्धांतिक भौतिकी पर मेरे साथ कुछ काम किया और इन दिनों जर्मनी में शोध कर रहा है, ने लिखा है कि विशेषज्ञ को दिखलाऊँ कि कहीं न्यूरोलॉजिकल कुछ न हो। फिलहाल तो नंदकिशोर जी से मिली एक मरहम लगाई है।

2 comments:

Ashish Alexander said...

शायद "कच्चा-चिट्ठा" की वजह से चिट्ठा शब्द मुझे कभी जँचा नहीं। खैर, सेहत का खयाल रखें।

Manoj B said...

बहुत ही बढ़िया जानकारी लाल्टू जी और ईश्वर से सुभेचछा की आप जल्दी से बेहतर हो जाएँ।