Wednesday, December 26, 2012

कविता नहीं


यह कविता 1994 में हंस में छपी थी।
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कविता नहीं

कविता में घास होगी जहाँ वह पड़ी थी सारी रात।
कविता में उसकी योनि होगी शरीर से अलग।

कविता में ईश्वर होगा बैठा उस लिंग पर जिसका शिकार थी वह बच्ची।
होंगीं चींटियाँ, सुबह की हल्की किरणें, मंदिरों से आता संगीत।

कविता इस समय की कैसे हो? 
आती है बच्ची खून से लथपथ जाँघें?
 बस या ट्रेन में मनोहर कहानियाँ पढ़ेंगे आप सत्यकथा उसके बलात्कार की।

हत्या की।
कविता नहीं।

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यह कविता 'लोग ही चुनेंगे रंग' (2010, शिल्पायन) में शामिल है। एक प्रगतिशील समीक्षक ने 'पुस्तक वार्ता' में इसे उद्धृत करते हुए यह बतलाया था कि मुझे कविता लिखनी ही नहीं आती। समीक्षक जैसा भी हो, उसकी बात सर माथे पर। इसी संग्रह पर प्रोफेसर मैनेजर पांडे ने फरवरी 2011 में चंडीगढ़ में एक पूरा व्याख्यान दिया था।
इधर 'वागर्थ' के दिसंबर अंक में साथी कवि विमल कुमार ने घोषित किया है कि 1992 (असल में 1991) में पहला संग्रह आने के बाद मैं सक्रिय नहीं रहा। यह भी सर माथे पर। हिंदी के कवि हैं भाई। शुकर है कि हत्या तो नहीं की, निष्क्रिय ही किया है। 2010 के दिल्लविश्व पस्तक मेले में जब 'लोग ही चुनेंगे रंग' संग्रह का विमोचन प्रोफेसर मैनेजर पांडे ने किया था, विम मेरे साथ था। 
मेरा पाँचवाँ कविता संग्रह 'नहाकर नहीं लौटा है बुद्ध' वाग्देवी प्रकाशन, बीकानेर, से आ गया है। पिछला 'सुंदर लोग और अन्य कविताएँ' वाणी प्रकाशन, दिल्ली, से आया था। नए संग्रह का ब्लर्ब डा. प्रणय कृष्ण ने लिखा है।

 सबको नए साल की शुभकामनाएँ

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