बिहार में बाढ़ की स्थिति और उड़ीसा के दंगों से मन ऐसा बेचैन था कि कई बार लिखते लिखते भी कुछ लिख न पाया। इसी बीच एक धार्मिक प्रवृत्ति के सहकर्मी ने कैंपस में हुई गणेश पूजा पर एक कविता लिखी। आम तौर पर मैं छंद में बँधी कविता में रुचि नहीं लेता, पर मुझे साथी की चिंताएँ ज़रुरी लगीं। उसे यहाँ दे रहा हूँ।
गणपति बप्पा
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गणपति बप्पा लाये गये, सत्कार किया गया उनका .
व्यवस्थित सज्जित कमरे में, आसन तैयार हुआ उनका.
बैठाकर लोग जो लाये थे, कुछ इधर हुये कुछ उधर हुये.
पता ही न चला उनका, जो लाये थे वे किधर गये.
सुना गणपति जी ने सत्कार घोष, मन में मोद मनाया.
क्षणिक थी वह घोष गर्जना,फिर छा गई चुप्पी छाया.
सोचा मन में क्यों लोगों ने, लाकर यहां बैठाया.
क्षणिक ही है यह श्रद्धा, सबने अपना व्यापार चलाया.
कोई नहीं समय है देता, भक्ति श्रद्धा पूजा में,
समय गंवाते मानव हैं सब, अपना पराया दूजा में.
भूला भटका कोई आया, माथ नवाकर चला गया.
कोई-२तो आकर बस, हाथ हिलाकर चला गया.
यूं ही आते जाते हैं, कदाचित् फल फूल भोग चढा गये.
एकान्त निर्जन कमरे में, लोग मुझे बस बिठा गये.
क्यों बिठाया कुछ न कहते,बस आकर देख चले जाते.
समय हुआ बैठाने का तो, ले जाकर लोग मुझे डुबाते.
करते हैं विसर्जन मेरा, स्वयं ही तो करके सर्जन .
इस सारी प्रक्रिया में, क्या होता है उनको अर्जन?
वैसे तो मानव लडते रहते, भेद भाव बढाते हैं.
ऊंच नीच की खाई करके, कब्रें यहां सजाते हैं.
नहीं रही है श्रद्धा मुझपे, मेरा तो अपमान है.
मेरी जैसी स्थिति में, सारे ही भगवान् हैं.
जैसे सत्कार किया लाने में, ले जाने में दो गुना होता.
मानव मुझे बहाने में, ज्यादा खुश है क्यों होता ?
मानव को मेरी क्या जरुरत, मानव मुझको क्यों लाता?
क्या मुझपे वह श्रद्धा रखता, या मुझको वह झुठलाता.
क्या मिलती है उसको शिक्षा ? क्या उसने मुझसे पाया?
अंध परम्परा और भक्ति का, पाखण्ड असत्य क्यों भाया?
मानव प्रदर्शन करता है, मुझे बैठाकर वैभव का.
और क्या मतलब हो सकता है, इन चन्द दिनों के उत्सव का?
इस बहाने वह करता है, निज मनोरंजन ओर प्रदर्शन भी.
मुझपे श्रद्धा और भक्ति तो, नहीं दीखती कहीं कुछ भी.
मानव मानव को मारे, क्या यही है सच्ची भक्ति ?
ईश खुदा भगवान् की ,क्या ऐसी उल्टी है शक्ति ?
जिसको पाकर मानव करता, जीवन का ही मर्दन.
पशुपक्षी और वृक्षवनस्पति, सबकी फंसी है गर्दन.
इसी बीच अनुराग वत्स ने अपनी ब्लॉग मैगज़ीन पर मुझपर और मेरी कविताओं पर एक पोस्ट डाला है। मेरी अप्रकाशित दो कविताएँ वहाँ हैं। एक कविता हाल में अमर उजाला में आई है
चलो मन आज खेल की दुनिया में चलो
चलो मन आज
खेल की दुनिया में चलो
स्वर्ण पदक ले लो
विजेता के साथ खड़े होकर
निशानेबाज बढ़िया हो बंधु कहो उसे
फुटबाल मैच जो नहीं हुआ
दर्शकों की दीर्घा में नाराज़
लोगों को कविता सुनाओ
पैसे वाले खेलों को सट्टेबाजों के लिए छोड़ दो
ऐसे मैदानों में चलो जहाँ खिलाड़ी खेलते हैं
खिंची नसों को सहेजो
घावों पर मरहम लगाओ
गोलपोस्ट से गोलपोस्ट तक नाचो
कलाबाजियों में देखो मानव सुंदर
खेलते हुए ढूँढता है घास हवा में अपना पूरक
कैसे बनता है वह हरे कैनवस पर भरपूर प्राण
चलो मन आज
खेल की दुनिया में चलो
गणपति बप्पा
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गणपति बप्पा लाये गये, सत्कार किया गया उनका .
व्यवस्थित सज्जित कमरे में, आसन तैयार हुआ उनका.
बैठाकर लोग जो लाये थे, कुछ इधर हुये कुछ उधर हुये.
पता ही न चला उनका, जो लाये थे वे किधर गये.
सुना गणपति जी ने सत्कार घोष, मन में मोद मनाया.
क्षणिक थी वह घोष गर्जना,फिर छा गई चुप्पी छाया.
सोचा मन में क्यों लोगों ने, लाकर यहां बैठाया.
क्षणिक ही है यह श्रद्धा, सबने अपना व्यापार चलाया.
कोई नहीं समय है देता, भक्ति श्रद्धा पूजा में,
समय गंवाते मानव हैं सब, अपना पराया दूजा में.
भूला भटका कोई आया, माथ नवाकर चला गया.
कोई-२तो आकर बस, हाथ हिलाकर चला गया.
यूं ही आते जाते हैं, कदाचित् फल फूल भोग चढा गये.
एकान्त निर्जन कमरे में, लोग मुझे बस बिठा गये.
क्यों बिठाया कुछ न कहते,बस आकर देख चले जाते.
समय हुआ बैठाने का तो, ले जाकर लोग मुझे डुबाते.
करते हैं विसर्जन मेरा, स्वयं ही तो करके सर्जन .
इस सारी प्रक्रिया में, क्या होता है उनको अर्जन?
वैसे तो मानव लडते रहते, भेद भाव बढाते हैं.
ऊंच नीच की खाई करके, कब्रें यहां सजाते हैं.
नहीं रही है श्रद्धा मुझपे, मेरा तो अपमान है.
मेरी जैसी स्थिति में, सारे ही भगवान् हैं.
जैसे सत्कार किया लाने में, ले जाने में दो गुना होता.
मानव मुझे बहाने में, ज्यादा खुश है क्यों होता ?
मानव को मेरी क्या जरुरत, मानव मुझको क्यों लाता?
क्या मुझपे वह श्रद्धा रखता, या मुझको वह झुठलाता.
क्या मिलती है उसको शिक्षा ? क्या उसने मुझसे पाया?
अंध परम्परा और भक्ति का, पाखण्ड असत्य क्यों भाया?
मानव प्रदर्शन करता है, मुझे बैठाकर वैभव का.
और क्या मतलब हो सकता है, इन चन्द दिनों के उत्सव का?
इस बहाने वह करता है, निज मनोरंजन ओर प्रदर्शन भी.
मुझपे श्रद्धा और भक्ति तो, नहीं दीखती कहीं कुछ भी.
मानव मानव को मारे, क्या यही है सच्ची भक्ति ?
ईश खुदा भगवान् की ,क्या ऐसी उल्टी है शक्ति ?
जिसको पाकर मानव करता, जीवन का ही मर्दन.
पशुपक्षी और वृक्षवनस्पति, सबकी फंसी है गर्दन.
इसी बीच अनुराग वत्स ने अपनी ब्लॉग मैगज़ीन पर मुझपर और मेरी कविताओं पर एक पोस्ट डाला है। मेरी अप्रकाशित दो कविताएँ वहाँ हैं। एक कविता हाल में अमर उजाला में आई है
चलो मन आज खेल की दुनिया में चलो
चलो मन आज
खेल की दुनिया में चलो
स्वर्ण पदक ले लो
विजेता के साथ खड़े होकर
निशानेबाज बढ़िया हो बंधु कहो उसे
फुटबाल मैच जो नहीं हुआ
दर्शकों की दीर्घा में नाराज़
लोगों को कविता सुनाओ
पैसे वाले खेलों को सट्टेबाजों के लिए छोड़ दो
ऐसे मैदानों में चलो जहाँ खिलाड़ी खेलते हैं
खिंची नसों को सहेजो
घावों पर मरहम लगाओ
गोलपोस्ट से गोलपोस्ट तक नाचो
कलाबाजियों में देखो मानव सुंदर
खेलते हुए ढूँढता है घास हवा में अपना पूरक
कैसे बनता है वह हरे कैनवस पर भरपूर प्राण
चलो मन आज
खेल की दुनिया में चलो
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Umesh kumar