'आह, मुझे पी ले
कि खुशी की इंतहा में थिर शराब सा
तिलिस्म बन तेरे पैमाने में मौजूद रहूँ' - [मिस्ट्री (तिलिस्म) – डी एच लॉरेंस]
ब्रह्मा ने सृष्टि की रचना करते हुए अपने शरीर से मनु और स्वरूपा को जन्म दिया था, या रब ने मिट्टी से आदम बनाया, फिर उसकी साथी हव्वा बनाई, और फिर साँप ने गड़बड़ कर दी। आदम और हव्वा सही-ग़लत के इल्म वाले सेव के दरख्त का फल खा बैठे, और हम यहाँ पहुँच गए। आज हर कोई जानता है कि जीवन की दीगर जटिल हरकतों की तरह सेक्स की पहचान जीन्-स का खेल है। अंडा-माँ, बीज-बाप को क़ैद करती है और पूरी क़वायद होती है कि बीजाणुओं को टुकड़ों में बाँटो, फिर मेल करवाते हुए उनको खास तरह से जोड़ो। इसी से अपनी खास यौनिक पहचान लिए संतान जन्म लेती है। जैविक विकास से उसे यहाँ तक पहुँचने में खरबों साल लगे हैं। इस दौरान अणुओं के तोड़-जोड़ के अनगिनत प्रयोग होते रहे।
सेक्स की अहमियत इस बात में है कि सेक्स के बगैर जीन्-स का टूटना, जुड़ना मुमकिन न होता और प्रजातियों का विकास न हुआ होता। हमारे जैसे रीढ़ की हड्डी वाले जानवरों, मछलियों की प्रजातियों में, तक़रीबन चार करोड़ साल पहले, नियमित सेक्स होता था। ज़्यादातर प्रजातियों में यह जैविक हरकत बन कर रह गया, पर वानरों और खासकर इंसान ने इसे अपनी चेतना का अहम हिस्सा बना लिया। हमारे लिए सेक्स और बच्चे पैदा करने में जो नाता है, वह और जानवरों से इस मायने में अलग है कि हमारे वयस्क जीवन का बड़ा हिस्सा इस फ़िक्र में बीतता है कि बच्चे पैदा हों या न हों, अगर हों तो उनके बारे में क्या कुछ सोचा जाए, परिवार कैसे बसाएँ, बच्चे को कैसे पालें, आदि। इससे भी बढ़कर यह कि किन दो के यौनिक संबंध से बच्चे पैदा हों, या न हों, इसके भी सामाजिक नियम बने और इस आधार पर समुदायों में लोग बँटे। इसके बावजूद तरह-तरह के यौनिक रूप और स्वभाव हमेशा मौजूद रहे। लंबी अवधि के रिश्तों से अलग एक बार की हम-बिस्तरी से लेकर, कुछ दिनों या सिर्फ कुछ महीनों तक के यौन-संबंध होेते रहे हैं। शादी के बाद बेवफ़ाई, बहुविवाह आदि आम बातें हैं। हालाँकि ज़्यादातर आधुनिक समाजों में स्थाई मोनोगामी या एक-संगमन को मान्यता मिली हुई है, पर यह इतना आम नहीं है, जितना कि मान लिया जाता है। इससे अलग प्रथाएँ भी कई समाजों में मौजूद हैं। भारत समेत कई देशों में पुरुषों में बहुविवाह आम बात थी, जिस पर अब रोक है। एक स्त्री का एक से ज़्यादा पति होना भी कई इलाक़ों में देखा जाता है, जैसे उत्तराखंड के कुछ इलाक़ों में है। आदिवासियों में भी ऐसी विविधता आम है। सेक्स को लेकर कई जटिल ख़याल हैं, जिनमें समाज में मान्य रिश्तों से अलग और बातें भी शामिल हैं। मशहूर मानव-शास्त्री ए के रामानुजन ने दिखाया है कि सोफोक्लिस के ग्रीक त्रासदी-नाटक 'ईडीपस रेक्स' में अपनी माँ से संबंध करने वाले पितृहन्ता ईडीपस जैसी कहानी उत्तरी कर्नाटक क्षेत्र की एक लोक-कथा में मौजूद है। एक लड़की को जन्म से यह शाप है कि वह अपने बेटे से शादी करेगी और इससे उसे बेटा पैदा होगा। शाप से बचने के लिए वह जंगल भाग जाती है, पर वहाँ एक राजा के वीर्य से भीगे आम खाने पर उसे बेटा पैदा होता है, जिसे वह नदी में फेंक देती है। बच्चा पानी में बहकर पास के राज्य तक जाता है, जहाँ उसे उठा लिया जाता है और उसकी परवरिश होती है। बड़ा होकर लड़का जंगल में शिकार करने आता है और अंजाने में अपनी माँ से मिल कर उससे शादी कर लेता है। उनका बेटा पैदा होता है और रिवाज़ के मुताबिक बाप के बचपन के अँगोछे में उसे बाँधा जाता है। औरत देखते ही पहचान लेती है कि यह अँगोछा दरअसल उसकी साड़ी का पल्लू है, जिसमें बाँधकर उसने अपने बेटे को नदीं में फेंका था। आखिर नवजात को बेटा, पोता और देवर का संबोधन कर लोरी गाते हुए वह खुदकुशी कर लेती है। ऐसे 'ईडिपस कॉंप्लेक्स' या इसी की तरह बेटी और बाप में संबंध के 'इलेक्ट्रा कॉंप्लेक्स' की मिसालें पश्चिमी अदब में खूब पाई जाती हैं। ऐसा नहीं है कि ये वहीं तक सीमित हैं। मिस्र के नोबेल पुरस्कार विजेता नग़ीब महफ़ूज़ के एक उपन्यास (अंग्रेज़ी में 'द मिराज' – सराब) का अंतर्मुखी नायक कामिल रुबा लाज़ अपनी माँ के प्रति खिंचा रहता है, जो उसे अपनी जकड़ में रखे हुए है। उसके लिए उसकी माँ ही उसकी ज़िंदगी है। माँ की ख़ूबसूरत शक्ल से इतर उसके तसव्वुर में और कुछ नहीं होता। उसके प्यार और नफ़रत में हर कहीं माँ ही है। नतीजतन वह अपनी बीवी के साथ संभोग नहीं कर पाता है। इन बातों का ऐसा असर मिस्र के बौद्धिकों पर था कि 1951 में एक अध्यापक ने शादी से पहले मनोविज्ञानिक जाँच का प्रस्ताव रखा ताकि बाद में दंपति को मुश्किलों से बचाया जा सके। यानी यौन-मनोविज्ञान की ऐसी कई मिसालें हैं, जिनकी व्याख्या आसान नहीं है। मशहूर निर्देशक आल्फ्रेड हिचकॉक की सबसे ज़्यादा चर्चित फिल्मों में एक 'साइको' (1960) का कथानक ऐसे ही जटिल रिश्ते पर केंद्रित है। नायक नॉरमन माँ के प्रेमी से रीस करते हुए माँ और उसके आशिक दोनों का क़त्ल कर देता है, पर माँ के प्रति उसका मोह इतना है कि वह उसकी लाश को दफनाता नहीं और उसे ज़िंदा मानकर उससे बातें करता है। हालाँकि सोफोक्लिस की त्रासदी-रचनाओं के साहित्यिक महत्व पर खूब चर्चाएँ होती हैं, सच यह है कि हम इसके केन्द्र में मौजूद माँ-बेटे के संबंध पर ही ज़्यादा सोचते हैं। यानी इंसान के ज़ेहन पर यौनिकता का असर इतना गहरा है कि कहीं भी जगह दिखे तो हमारी सोच इस ओर मुड़ जाती है। कइयों का मानना है कि रति के लिए साथी चुनते हुए ज़ेहन में माँ (मर्द के लिए) या बाप (औरत के लिए) की तलाश रहती है। सौ साल पहले सिगमुंड फ्रॉएड ने ऐसे कॉँप्लेक्स का संबंध 'अचेतन' से दिखाने के लिए सपनों पर शोध करने की कोशिश की थी। कला और अदब पर फ्रॉएड की खोजों का गहरा असर पड़ा, आज तक है, पर उसके जीते रहते ही उसके काम पर सवाल उठने लगे और वैज्ञानिकों और दार्शनिकों ने इसे गैर-वैज्ञानिक करार कर दिया। आखिर क़रीबी रिश्तेदारों में यौन-संबंधों पर मनाही क्यों है? आम समझ यह है कि ऐसे संबंधों से पैदा हुए बच्चों में खतरनाक आनुवंशिक बीमारियाँ हो सकती हैं। यह बात आज के ज़माने में बेमानी हो जाती है, क्योंकि कोई ज़रूरी नहीं कि यौन-संबंध से बच्चे पैदा करने ही हैं, और अगर प्रजनन हो तो भ्रूण में ही बीमारियों की पहचान कर इलाज़ आज मुमकिन है। यह एक सदी पुरानी बहस है कि क़रीबी रिश्तों को खारिज करने के पीछे सामाजिक वजहें ज़्यादा अहम रही हैं या विकास और प्रजाति की निरंतरता। जीन्-स में विविधता ही सबसे अहम बात होती तो जाति या समुदाय के आधार पर शादियाँ न होतीं। जिस्मानी खासियत में समानता की चाहत से ही समुदाय के अंदर विवाह की रस्म उभरी हो सकती है, ताकि आगे पैदा होते बच्चों में कुछ हद तक आनुवंशिक एकरूपता हो। हमारे यहाँ के कई समुदायों समेत दुनिया भर में कई इलाक़ों में क़रीबी रिश्तेदारों में शादियाँ होती हैं।
यह जटिलता, जिसे सेक्स कहते हैं, कुदरत में यह क्यों पनपी? यौनिकता की पहचान आज भी दुनिया में मौजूद किसी जानवर से नहीं शुरू हुई, बल्कि यह खरबों साल पहले से चली आ रही है, जब इंसान का कोई वजूद धरती पर नहीं था। धरती पर सबसे सरल और प्राचीन बैक्टीरिया जैसे सूक्ष्मतम जीव महज दो भागों में विभाजित होकर प्रजनन करते हैं। इनके बनिस्बत पेड़-पौधे और जानवर बहुत बड़ी और जटिल कोशिकाओं से बने होते हैं, जिनमें सलीके से तय की गई आणविक मशीनरी और झिल्लीदार भूलभुलैए भरे होते हैं। बहुत कम प्रजातियों में अलैंगिकता दिखती है, और ये सब विकास के साथ विलुप्त हो जाती हैं। सेक्स कई मायनों में महंगा है। अजीबो-ग़रीब कसरतों की माँग रखता है, लेकिन प्रजाति के वजूद को बनाए रखने के लिए ज़रूरी है। वैज्ञानिक इस पर सर खपाते रहे हैं। लंबे अरसे से एक समझ यह रही कि सेक्स से विविधता पैदा होती है और इस तरह परिवेश के साथ अनुकूलन में आसानी रहती है। सेक्स की वजह से जीन्-स में लगातार हो रहे थोड़े-थोड़े बदलावों से तरह-तरह के परजीवियों (बैक्टीरिया-वाइरस आदि) से बचने की क़ाबिलियत बढ़ी है और जीन्-स में गड़बड़ी यानी विकृतियों से भी बचाव मुमकिन हुआ है। जैविक विकास में प्रजाति के बने रहने के लिए सफल प्रजनन और कामयाब जीन्स का मौजूदा आबादी में कायम रहना लाज़िमी है। इस समझ में खतरा यह है कि इसके मुताबिक - 'पसंद का साथी के लिए जीन’, 'पार्टनर बनाने के लिए जीन', 'बहुविवाह के लिए जीन', यानी हर तरह के ऐसे स्वभाव को जायज़ ठहराया जा सकता है, जो दरअसल सामाजिक पूर्वाग्रहों से पनपा है। वानर प्रजाति में हमारे क़रीब के चिंपांज़ी जैसे जानवरों में यौनिकता से लेकर परिवार और कुनबा बनाने जैसी कई बातों को कुदरती चयन जैसे जैविक सिद्धांतों को आधार बनाकर समझा जा सकता है, पर इंसान महज एक वानर नहीं है। यह विड़ंबना ही है कि खालिस कामेच्छा को पशु-जैसी फितरत भी कह दिया जाता है और इसे शादी जैसे लंबे रिश्ते से अलग माना जाता है। इंसान को और जानवरों जैसा मानना या दीगर जानवरों में इंसान जैसी हरकतें ढूँढना - एक ओर ये बातें कामेच्छा का ठोस आधार सामने लाती हैं, दूसरी ओर अक्सर नस्ली या जाति जैसे पूर्वाग्रहों से इनमें कुतर्क जोड़ दिए जाते हैं। मर्द एक से अधिक यौन-संबंध रखे तो इसे अधिक बच्चे पैदा करने से जोड़ कर समझाया जाता है, पर औरतें भी एक से ज़्यादा मर्दों के साथ संबंध रखती हैं, लेकिन इससे बच्चों की तादाद में बढ़त नहीं होती।
'काम' पर नियंत्रण के लिए समाज ने क्या-क्या नियम नहीं बनाए – आज भी कई जगह बहुत छोटी उम्र में विवाह करवा दिए जाते हैं या तय कर दिए जाते हैं। वयस्क हो जाने पर अपनी इच्छा से शादी करना भी दरअसल सामाजिक पूर्वाग्रहों से नियंत्रित होता है। ऐसा नहीं है कि संभोग के बाद ही हम बच्चा पैदा करने के बारे में सोचते हैं, दरअसल हमारे अवचेतन में नस्ल को आगे बढ़ाने की सोच गहरी है और संभोग के लिए साथी चुनना भी इसी सोच से नियंत्रित होता है। दूसरे जानवरों में संभोग से पहले बच्चा पैदा करने की सोच, यानी गर्भावस्था या बच्चे पैदा करने के बारे में भौतिक या आध्यात्मिक खयाल, या कि वे बच्चों के साथ गर्भ से पहले से ही कोई नाता रखते हों, इसका कोई प्रमाण नहीं मिला है, पर इंसान में यह बात हमेशा ज़ेहन में हावी होती है। यानी वात्स्यायन का शास्त्र अपनी जगह पर है, पर वहाँ तक पहुँचने के लिए प्रजनन की मशीनरी अपना काम करती है, जिसमें अतीत, वर्तमान और भविष्य की हक़ीक़तें गड्डमड्ड होती हैं।
शिकारी मानव का खेतीबाड़ी की ज़िंदगी में ढलना ऐसा पड़ाव था, जहाँ किसानों ने समझ लिया होगा कि अगली पीढ़ी के पौधों और जानवरों के लिए परागण और संभोग ज़रूरी है, और इससे वे बाग़वानी और पशुपालन में माहिर हो गए होंगे। पुरापाषाण काल के लोगों के पास भी प्रतीकों में समझने लायक भाषा और जानवरों और पौधों के व्यवहार का व्यापक ज्ञान था। इसमें निश्चित रूप से यौनिकता और प्रजनन की समझ शामिल होगी। प्रजनन, यानी बीज पिता और अंडा माँ के मिलन की समझ आग और पंछियों के अंडे पकने से बनी हो सकती है। कम से कम एक लाख सालों से प्रजनन की समझ इंसान में है। इसी के साथ तमाम सामाजिक रीति-रिवाज़ बनते चले, जिनमें दहेज, अंगूठी, मालाएं लेन-देन आदि हैं।
लगभग दो अरब साल पहले बैक्टीरिया की एक प्रजाति ने एक और सरल कोशिका - आर्कियोन - के साथ घनिष्ठ सहजीवी साझेदारी बनाई। यह मेल इतना गहरा था कि साथ निभाने आए बैक्टीरिया ने अंततः अपने साथी के अंदरूनी हिस्से में डेरा जमा लिया और धीरे-धीरे वे हमारी कोशिकाओं के ऊर्जा पैदा करने वाले अणुओं में बदल गए। इस तरह से नई बनी संकर कोशिका बढ़ी और फलती-फूलती चली। दोनों साझेदारों की आनुवंशिक सामग्री और नए बने ऊर्जा स्रोत का इस्तेमाल कर अभूतपूर्व जटिलता वाली एक कोशिका बनी, और विकास की इस यात्रा में जो अनगिनत खासियत पनपीं, उनमें सेक्स भी शामिल था। अरबों सालों तक चले इस सफर में कोशिकाएँ जुड़ती-टूटती रहीं। यह एक तरह का यौनिक खेल था। सूक्ष्म जीवाणुओं से जटिल जीवों यानी पौधों या जानवरों तक कई प्रजातियाँ आई-गईं। अंत में कुदरती चयन और परिवेश में अनुकूलन में सबसे दुरुस्त (फिट) प्रजातियाँ बची रह गईं। इन सब में सेक्स की अहम भूमिका रही। जैविक विकास के नज़रिए से देखने की एक सीमा यह है कि इसमें समलिंगी काम की हसरत की व्याख्या मुमकिन नहीं है। प्राकृतिक चयन प्रजनन के माध्यम से संचालित होता है, और इसलिए जाहिर है कि प्रजनन के साथ जुड़ा सेक्स किसी भी व्याख्या में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा। लेकिन इंसान हमेशा विषमलिंगी नहीं होता है। इसलिए कामेच्छा की समझ में समलिंगी संभोग की चाहत की व्याख्या भी होनी चाहिए। आमतौर पर समलिंगी सेक्स को हमारी विषमलैंगिक फितरत के बाई-प्रोडक्ट सा देखा गया है। इस नज़रिए की कई सामाजिक वजहें हैं। यह विवरण समलैंगिकता को एक तरह से सॉफ़्टवेयर की गड़बड़ी के रूप में पेश करता है - जिसे विकास ने ठीक करने की ज़हमत नहीं उठाई क्योंकि यह इतनी गंभीर नहीं है कि पूरे प्रोग्राम को तबाह कर दे। लेकिन समलिंगियों को ऐसी व्याख्या क़तई सही नहीं लग सकती और जाहिर है कि वे ऐसे शोध के बुनियाद पर सवाल उठाते हैं। मानव-इतिहास में कुछ वयस्कों में समलिंगी कामेच्छा हमेशा ही मौजूद रही है, और हर परंपरा में, खास तौर से कला, संगीत, साहित्य में यह मुखर रही है, पर बिड़ंबना यह कि इसे अक्सरीयत ने कभी स्वीकारा नहीं है। प्राचीन भारतीय कलाकृतियों में और हाल की सदियों में उर्दू शायरी में यह दिखता है। ग़ज़ल में आशिक और माशूक दोनों के लिए अक्सर पुलिंग क्रियापदों का इस्तेमाल होता है और ज़्यादातर ग़ज़लें पुरुषों की लिखी होती हैं। ग़ज़ल की शुरूआत अरबी और फारसी ज़बानों में हुई और इसके बावजूद कि रूमी जैसे महान सूफियों ने समलिंगी साथी बनाए, वहाँ समाज ने मर्दों के बीच यौनिक रिश्तों को नपुंसकता और विकृति माना। खास कर इस्लाम के आने के बाद यह कट्टर खयाल बन गया।
यौनिकता पर समाज की पहरेदारी के बावजूद इंसान अपनी हसरत पूरी करने की राहें ढूँढता रहा है। रूसी क्रांति पर जैक रीड की किताब से प्रेरित 1981 में वारेन बीटी के निर्देशन में बनी मशहूर फिल्म 'रेड्स' में अमेरिकी उपन्यास लेखक हेनरी मिलर साक्षात्कार में कहता है - ‘You know something that I think that there was just as much fucking going on then as now. Only now, it has a more perverted quality to it. Now, there's no love whatever included, you know. Then, there was your heart, a bit of heart in it. उन दिनों (सौ साल पहले) इतनी ही संभोग क्रियाएँ चल रही थी, जितनी कि अब (पचास साल पहले) है, बस अब इसमें जरा विकृति आ गई है। अब इसमें प्यार नहीं रहा। उन दिनों दिलो-जाँ की बात होती थी।' हेनरी मिलर का ऐसा कहना गौरतलब है, क्योंकि कई सालों तक अमेरिका में उसकी किताबों (Tropic of Cancer और Naked Lunch) के छपने पर रोक लगी थी और इनके पहले प्रकाशन यूरोप में पेरिस में हुए थे। यूरोप में मध्य-युग में रूढ़िवादी सोच शिखर पर थी, और यौन-संबंधों से फैले रोगों से निजात भी आसान न था। पर उन दिनों भी वहाँ के वैद्य मानते थे कि संभोग में कमी या ब्रह्मचर्य सेहत के लिए ठीक नहीं है। अमेरिका में साठ के दशक में सेक्स पर पुराने खयालों के खिलाफ इंकलाबी लहर उमड़ आई। प्रसिद्ध उपन्यास लेखक फिलिप लार्किन ने इसे इस तरह कहा, ‘Sexual intercourse began in 1963 … between the end of the Chatterley ban and the Beatles’ first LP - यौनिक संभोग की शुरूआत 1963 में हुई, जब चैटरली (डी एच लॉरेन्स की किताब ‘लेडी चैटर्ली-स लवर’) पर से प्रतिबंध हटा और बीटल्स (रॉक संगीत का ग्रुप) का पहला एल पी (लॉंग-प्लेयिंग रेकॉर्ड) आया।’
यौनिकता को मर्द के नज़रिए से देखने पर स्त्रीवादी आलोचकों की आपत्ति मुखर रही है। यह सच है कि आज़ाद दुनिया का ख़याल तब तक बेमानी है, जब तक कि औरत के जिस्म पर मर्द ने लगाम लगा रखी है। पिछली सदियों में पश्चिमी मुल्क़ों में माली हालात सुधरने के पीछे स्त्रियों की यौनिक स्वतंत्रता का बड़ा योगदान रहा है। बच्चे पैदा करने की मशीन मान कर नहीं, बल्कि औरत की शख्सियत और क़ाबिलियत को पनपने देने से समाज आगे बढ़ता है। यह ज़रूरी है कि वह परिवार में गाय की तरह बँधी न रह कर अपनी मर्ज़ी से साथी चुने और भरपूर इंसान बन कर तरक़्क़ी की बुलंदियाँ हासिल करे। यह बात हमारे वक्त की बड़ी लड़ाई है। यह निजी दायरे की ही नहीं, समाजी और सियासी लड़ाई है। इस जद्दो-जहद में विज्ञान भी अछूता नहीं है। शोध में सवालों के चयन और विज्ञान की भाषा आदि को लेकर सवाल उठाए जाते हैं। स्त्रीवादी आलोचना यह आग्रह रखती है कि वैज्ञानिक प्रयोगों को करते हुए जेंडर से जुड़े पूर्वाग्रहों पर सोचना और उनसे बचना या उनसे निजात पाना बा-क़ायदे ज़रूरी है। मसलन यह आम सोच कि प्रजनन में पुरुष के लाखों शुक्राणुओं में से कोई एक-दो स्त्री के गर्भाशय की नाल में अंडाणु को निषेचित (fertilise) करते हैं, का वैकल्पिक विवरण यह हो सकता है कि स्त्री के गर्भाशय में अंडाणु किसी एक-दो शुक्राणु को निषेचन के लिए स्वीकार करता है। भाषा सत्ता समीकरण को बदल देती है।
आज जहाँ हर कहीं पश्चिमी संस्कृति के प्रभाव से यौनिकता पर खुली बातचीत होती है, वहीं एक ओर परंपरा, जाति, धर्म आदि के नाम पर तरह-तरह की रोक लगाई जाती है। पिछली सदी के आखिर में अंग्रेज़ी में 'जेंडर' शब्द का अर्थ बदल गया, या यूँ कहें कि पहले से ज्यादा व्यापक हो गया। एक ओर तो जेंडर को जैविक पहचान से अलग समाज द्वारा थोपी लिंग-पहचान माना गया, वहीं इस शब्द के मूल अर्थ को स्त्री या पुरुष की जैविक पहचान से बढ़ाकर इसमें समलिंगी और ट्रांस-जेंडर आदि पहचानें जोड़ी गईं। स्त्री की यौनिकता पर वात्स्यायन से कहीं आगे बढ़कर आज खुलकर बात होती है। पहले जो शहरों में मंडियों या कोठियों या रेड लाइट एरिया तक सीमित होता था, आज वह इंटरनेट पर पोर्नोग्राफी और डेटिंग के व्यापार का बड़ा साम्राज्य बन चुका है, जिसमें करोड़ों के वारे-न्यारे होते हैं। औरत का जिस्म चीख रहा है, उसकी रूह चीख रही है कि उसे आज़ादी चाहिए, पर कहीं राज्य-सत्ता तो कहीं देह-व्यापार ने उसे ज़ंजीरों से जकड़ रखा है। कहीं गर्भ-पात पर रोक है, कहीं ज़बरन बुरखा पहनना है तो कहीं इसे पहनने की आज़ादी नहीं है। विवाह के नाम पर समाज और राज्य-सत्ता ने स्त्री की यौनिकता को ज़ंजीरों में जकड़ा हुआ है। एक अजीब बात यह है कि हमारी ज़िंदा भाषाओं में यौनिकता के लिए इस्तेमाल होने वाले आम शब्द अश्लील मान लिए गए हैं और उनकी जगह संस्कृत या अंग्रेज़ी के शब्दों का प्रचलन बढ़ गया है। यह वही समाज है जहाँ खजुराहो और कोणार्क के मंदिरों में रति की मुद्राओं के मनोरम मूर्ति-शिल्प हैं। हिंसा और विसंगतियों से भरी इस दुनिया में में यौनिकता के अद्भुत और इंतहाई-खूबसूरत तिलिस्म के साथ कुदरतन मिले प्यार के लिए कितनी जगह बची है, साथ ही टेक्नोलोजी ने अगली सदियों में यौनिक सुख को किस ओर मोड़ना है, ये सोचने की बातें हैं।
अंत में डेढ़ सदी पहले लिखी वाल्ट ह्विटमैन की यह कविता पढ़ी जाए -
स्त्री मेरे इंतज़ार में
स्त्री मेरा इंतज़ार कर रही है, वह भरपूर है, उसमें कुछ भी नहीं छूटा
पर कुछ भी क्या होता जो काम न होता, या कि सही मर्द का द्रव न होता
काम में सब है, बदन, रूहें,
अर्थ, प्रमाण, शुद्धताएँ, नज़ाकत, नतीजे, प्रचार,
गीत, आदेश, स्वास्थ्य, गर्व, मातृत्व का तिलिस्म, वीर्य-रस
सभी आशाएँ, खैरात, सम्मान, सभी ख़्वाहिशें, प्रेम, खूबसूरती, धरती की हर खुशी,
सारी हुकूमतें, काजी, देव, दुनिया के अनुकरणीय जन,
ये काम में हैं, उस का हिस्सा हैं और उसे सही ठहराती हैं।
जो पुरुष मुझे भाता है वह बिना लाज अपने काम-उल्लास को खुलकर स्वीकारता है
जो स्त्री मुझे भाती है वह बिना लाज खुलकर अपना काम-उल्लास स्वीकारती है।
मैं जड़ स्त्रियों से दूर चला
मैं उसके साथ रहने चला जो मेरा इंतज़ार कर रही है, और उनके साथ जिनके खूँ में ग़र्मी है और जो मुझे खुश रखती हैं
मैंने देखा है कि वे मुझे समझती हैं और मुझे खारिज नहीं करतीं,
मैंने देखा है कि वे मेरे योग्य हैं, मैं उन स्त्रियों का समर्थ पति होऊँगा।
वे मुझसे लेश भर भी कम नहीं हैं
चमकती धूप और बहती हवाओं ने उनके चेहरों में रंगत ला दी है
उनकी मांसलता में पक चुका दैवी लचीलापन और ताकत है,
br>
वे तैरना, नाव चलाना, घुड़सवारी, कुश्ती लड़ना, निशानेबाजी, दौड़ना, धावा बोलना, पीछे हटना, आगे बढ़ना, विरोध करना, अपनी रखवाली करना जानती हैं,
वे अपने तईं भरपूर हैं - वे शांत, साफ, अपने-आप में सुगठित हैं।
ऐ स्त्रियों, मैं तुम्हें पास खींचता हूँ
मैं तुम्हें छोड़ नहीं सकता, मैं तुम्हारा भला करूँगा
मैं तुम्हारा हूँ, और तुम मेरी हो, यह बस परस्पर के लिए ही नहीं, बल्कि औरों के लिए है
हमसे बड़े नायकों और कवियों को तुम्हारी नींद ढँके हुए है
मेरे सिवा किसी और की छुअन से वे जागेंगे नहीं।
यह मैं हूँ, स्त्रियों, मैं आगे बढ़ता हूँ
मैं सख्त, तीखा, चौड़ा हूँ, मैं हटूँगा नहीं, पर मैं तुम्हें प्यार करता हूँ
जितना तुम्हारे लिए ज़रूरी है, तुम्हें उससे अधिक तकलीफ नहीं देता,
इन राज्यों के लिए काबिल बेटे-बेटियाँ पैदा करने को मैं तुम्हारे अंदर सत्व डालता हूँ, मैं धीमी रूखी उद्दंड शिराओं से दबाव डालता हूँ
मैं खुद को मुकम्मल तैयार करता हूँ, कोई गुजारिश नहीं सुनता,
अरसे से अपने अंदर जो जमा है, जब तक उसे डाल न दूँ, मैं निकलने की ज़ुर्रत नहीं कर सकता।
तुम्हारे जरिए मैं अपनी थमी हुई नदियों को बहाता हूँ
आगे के हजारों साल मैं तुममें समेट लेता हूँ
मैं अपने और अमेरिका के सबसे प्रिय जनों के चित्र तुम पर तराशता हूँ
जिन बूँदों को मैं तुममें स्वच्छ डालता हूँ, उनसे जोशीली और चुस्त लड़कियाँ, नए कलाकार, संगीतकार और गायक जन्मेंगे,
जिन बच्चों को मैं तुम्हारे अंदर पैदा करता हूँ वे अपनी बारी में बच्चे पैदा करेंगे,
यह मेरी माँग है कि मेरे प्रेम की लागत से संपूर्ण मर्द-औरत जन्म लें,
मेरी उम्मीद है कि जैसे हम संभोग कर रहे हैं, वैसे ही वे भी औरों के साथ संभोग करेंगे,
जैसे मैं अभी खुद बरसा रहे तेज़ बौछारों से उम्मीद रखता हूँ, मुझे उनकी तेज़ बौछारों के फलों से उम्मीद रहेगी,
प्रेम में मगन जिन जन्म, जीवन, मृत्यु, अमरता को मैं अब रोप रहा हूँ, उनसे प्रेम भरी फसल की उम्मीद मैं करता रहूँगा।
No comments:
Post a Comment