- 'समयांतर' के फरवरी अंक में प्रकाशित
- ‘नमाज़ आमार होइलो ना आदाय ओ आल्लाह'
ऋत्विक घटक के बारे में ज़्यादातर बातें फिल्मों के संदर्भ में होती है - बहुत अच्छे फिल्म निर्देशक थे, बहुत ही कम पैसों में उम्दा फिल्में उन्होंने बनाईं; फिल्म बनाने का उनका अनोखा नज़रिया था, जो पिछली सदी के फिल्मकारों में सबसे अनोखा था, आदि। दरअसल ऋत्विक घटक एक फिल्मकार ही नहीं, बीसवीं सदी के सबसे अनोखे हिंदुस्तानियों में एक है। बांग्ला के मशहूर लोक-संगीत आलोचक कालिका प्रसाद भट्टाचार्य ने एक साक्षात्कार में यह बताया कि बंगाल के विभाजन की जो पीड़ा बुद्धिजीवियों में है, उसमें सबसे ज्यादा ईमानदारी दो लोगों में दिखती है - एक थे लोक-संगीत को सर्वहारा वर्गों की ओर मोड़ने और आधुनिक जामा पहनाने वाले हेमांगो बिश्वास, और दूसरे ऋत्विक घटक थे। कहा जाता है कि कहीं फिल्म की शूटिंग करने जाते हुए हवाई जहाज से नीचे बहती पद्मा नदी को देखकर ऋत्विक घटक चीख-चीख कर रोने लग गए थे। हेमांगो बिश्वास के एक गीत का मुखड़ा है - आमार मन कांदे रे - पोद्दार पारे लाइगा ओ गृही मन कांदे रे - मेरा जी रो रहा है, पद्मा नदी के लिए ओ गृही रे, जी रोता है।
उनकी फिल्म 'जुक्ति, तोक्को आर गप्पो' (तर्क, बहस और गल्प) में कोलकाता शहर में गंगा नदी के किनारे एक फकीर को गाते हुए दिखाया गया है। वैसे यह कोई बड़ी बात नहीं है, पर गौरतलब यह है कि जब यह फिल्म बनी थी, कोलकाता बंगाली हिंदू अक्सरियत का शहर था और गंगा नदी के किनारे तमाम क़िस्म के सनातनी साधु संत मौजूद होते हैं। ऋत्विक ने चुनकर एक बाउल फकीर को दिखाया, जो यह गीत गा रहा है कि मुझे किसानी और गाँव की मजबूर और मसरूफ ज़िंदगी में इतना वक्त नहीं मिला कि मैं पाँच में से किसी वक्त की नमाज पढ़ पाऊं, हे अल्लाह! इस फिल्म पर चर्चा करते हुए अक्सर लोग उन की सोच पर वेद-उपनिषदों के प्रभाव वगैरह की बात करते हैं, पर इस पर कोई चर्चा नहीं होती कि ऋत्विक एक घोर धर्म निरपेक्ष शख्स था। वह एक ऐसा शख्स था, जिसे इंसानियत को सबसे पहले सामने रखकर अपनी बात करनी थी।
सिनेमा को कविता की तरह कैसे पेश किया जाए, इसकी सबसे खूबसूरत मिसाल फिल्म 'मेघे ढाका तारा' - बादलों में छिपा तारा - है। पंजाब और बंगाल का विभाजन हाल की सदियों में दक्षिण एशिया की सबसे बड़ी त्रासदी है। करोड़ों घर उजड़े, लाखों हत्याएं हुई, स्त्रियों और बच्चों पर बेइंतहा जुल्म हुए। पंजाबी अदब में रोमांटिक कवि माने गए शिव कुमार बटालवी ने लिखा, 'माए नी माए, मेरे गीतां दे नैणा विच बिरहो दी रड़क पवे, अद्धी अद्धी रातीं उठ, रोण मोए मित्तरां नीँ, माए सानूँ नींद ना आवे' -ओ माँ, मेरे गीतों की आँखों में विरह की किरचें हैं, आधी रातों को उठ कर मर चुके साथियों की याद में रोते हैं, मुझे नींद नहीं आती। यह क्रंदन ऋत्विक की फिल्मों में हर कहीं है। ऐसी एक चीख इस ज़मीन से निकली, वह गगन भेदी चीख एक ओर अमृता प्रीतम की 'अज्ज आक्खां वारिस शाह नूँ' कविता में दिखती है, तो दूसरी ओर बंगाल के कला और अदब में कभी मानिक बंद्योपाध्याय की कथाओं में तो कभी ऋत्विक घटक की फिल्मों में दिखती है। 'मेघे ढाका तारा' में यह पीर फिल्म के परदों से उतर कर इंसानियत के बड़े कैनवस पर छा जाती है। गहराई से देखा जाए तो ऋत्विक ने वाक़ई इस फिल्म के जरिए एक महाकाव्य रचा है, जो हज़ारों सालों तक पढ़ा जाएगा। 1960 में बनी 'मेघे ढाका...' तीन फिल्मों की कड़ियों में पहली है - इसके बाद कोमल गांधार 1961 और सुबर्नो-रेखा 1962 में बनीं। बँटवारे की तड़प और पीर, को इतनी गहराई से देखना और दिखाना, बेबसी की ऐसी चार-फाड़ इससे पहले कभी नहीं हुई। इस पीर को साफ कह पाना मुमकिन नहीं है, इसीलिए तो मंटो तबाह हो गया, सथ्यू की 'गरम हवा' आज तक सवाल बन खड़ी है। ऋत्विक का कहना था कि उम्दा फिल्म हमें हँसने-रोने से परे नई दिशाएँ दिखलाती है और गहराई तक जाया जाए तो ऐसी अंजान जगह ले जाती है, जहाँ कुछ कह पाना मुमकिन नहीं रहता। हम देखते हैं कि एक कहानी है, प्यार है, धोखा है, दिलो-जाँ की बातें हैं, पर अचानक ही हम पूछने लगते हैं कि क्यों, कैसे। ऋत्विक मिथकों का इस्तेमाल करते हैं, पर ऐसे कि उनके नए मायने सामने आते हैं। वह मानो प्राक-आधुनिक और उत्तर आधुनिक सभ्यताओं के सह-अस्तित्व मे दरारें ढूँढते फिर रहे थे। सर्रीयल फिल्म-कला में उनकी महारत लाजवाब थी। उनकी फिल्मों के संगीत निर्देशकों में बहादुर खान जैसे शास्त्रीय संगीत के उस्ताद थे, तो साथ ही रवींद्र-संगीत का भरपूर इस्तेमाल भी था। 'मेघे ढाका तारा' में एक पारंपरिक गीत की चार पंक्तियाँ बार-बार दुहराई गई हैं, जिसमें सतही तौर पर माँ बेटी को विदा करने से पहले विलाप करती है, पर यह विलाप फैलता जाता है और अंजाने ही वक्त की त्रासदी की सुगबुगाहट बन जाता है।
बांग्ला अदब में हाल के वक्त में सबसे प्रभावशाली और अराजक उपन्यास लेखक नबारुण भट्टाचार्य ने ऋत्विक घटक की याद में व्याख्यान देते हुए यह कहा था कि कुछ आलोचक ऋत्विक की फिल्मों में कला का व्याकरण नहीं ढूंढ पाए। नबारुण ने नाराज़गी जताते हुए कहा था - अरे सालो, वो फिल्म का ग्रामर बना रहा है। यह ग्रामर सीखो। ... घिनौनी तबाह हो चुकी किसी चीज़ को खूबसूरत नहीं बनाया जा सकता। ... इंसान के प्रति विश्वसनीय होना, ग़रीब के प्रति ईमानदार होना, यह कला की शर्त है। पैसे-वालों के साथ खुशमिज़ाजी से कला नहीं बनती।...’ नबारुण का ऋत्विक के साथ पारिवारिक संबंध था। उसके पिता बिजन भट्टाचार्य – महाश्वेता देवी के पति - ने ऋत्विक के नाटकों और फिल्मों में अभिनय किया था।
'जुक्ति, तोक्को आर गप्पो' उसकी आखिरी फिल्म (1977) है और इसमें ऋत्विक की सोच आक्रामक होकर सामने आती है। फिल्म में खुद अभिनय किया है, उसके बेटे ने भी हिस्सा लिया और साथ में उन दिनों नाटकों की सबसे मशहूर माँ और बेटी तृप्ति और साँओली मित्रा भी हैं। यहाँ आज़ादी के बाद हिंदुस्तान के हर इदारे पर, हर परिभाषा पर, खास तौर पर बंगाल की हर बौद्धिक प्रवृत्ति पर सवाल उठते दिखते हैं। मुख्यधारा के सिनेमा और अदब पर तो चोट है ही, यह एक तरह का आत्म-दाह है। उत्पल दत्त के जिम्मे दिए किरदार सत्यजित बसु के जरिए इसमें उन दिनों के शिखर माने जाने वाले बौद्धिकों पर तीखा व्यंग्य है। फिल्म की शुरूआत भुखमरी के शिकार एक ग़रीब बुज़ुर्ग से होती है, जिसकी फिल्म की कहानी में कोई जाहिरा भूमिका नहीं है, उदासीन नज़रों से वह हमारी ओर देखता है, जैसे हम और हमारा समाज अपने चारों ओर हो रही घटनाओं को उदासीन नज़रों से देखते हैं। इसके ठीक बाद काले वेष में तीन आकृतियों का आधुनिक शैली में नृत्य है, जो शास्त्रीय हिंदुस्तानी संगीत के ताल पर है। फिल्म में एक जगह संस्कृत भाषा के एक पंडित और संथाल परगना के एक आम संस्कृति-कर्मी के बीच भाषा पर रोचक बहस है। लोक-संस्कृति के नज़रिए से संस्कृत म्लेच्छ यानी विदेशी ज़बान है, क्योंकि यह आम लोगों की ज़बान नहीं है। यानी पंडिताई – चाहे वह संस्कृत की हो या अंग्रेज़ी की गुलामी हो, ऋत्विक के लिए दोनों जनविरोधी हैं। नबारुण ने कहा था कि ऋत्विक बुद्ध की तरह अपनी कुलीनता का त्याग कर रहा था, और लोगों के बीच जगह ढूँढ रहा था। वह इप्टा का और कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य रह चुका था, पर मूलत: वह अराजक लोकपक्षी विचारक और संस्कृतिकर्मी था। 'जुक्ति, तोक्को आर गप्पो' में उसने मानो अपनी रूह के हर पुर्जे को खोलकर सामने रख दिया है। हर दृश्य, कहानी का हर हिस्सा गहरी समझ के साथ रखा गया है - बेरोज़गार इंजीनियर नचिकेता और बांग्लादेश से भाग कर आई बंगो-बाला, इन दो चरित्रों के जरिए बंगाल के बँटवारे की तक़लीफ और दोनों ओर समकालीन राजनीति में पिटते आम लोगों की बेबसी में खुद की तलाश करता फिल्मकार।
ऋत्विक की बनाई डॉक्यूमेंटरी फिल्म 'आमार लेनिन' (1970) पर कम चर्चा हुई है। लेनिन की शतवार्षिकी पर पश्चिम बंगाल सरकार के लिए बनाई इस फिल्म पर प्रतिबंध लग गया था। कुछ साल पहले इसे फिर से सामने लाया गया है। लोक-संस्कृति (ग्रामीण नाटक-शैली : जात्रा) के जरिए आम लोगों तक लेनिन, रूसी क्रांति और साम्यवाद के आदर्शों को लाती यह फिल्म आदर्श कलात्मक डॉक्यूमेंटरी है। बंगाल के कम्युनिस्ट नेताओं को यह बात रास नहीं आई होगी कि उनमें से किसी को न चुन कर एक सामान्य सर्वहारा को उसने 'आमार लेनिन' (मेरा लेनिन) कहा। कई लोग मानते हैं कि कम्युनिस्ट पार्टी के लोगों ने सक्रिय रूप से उसकी फिल्मों का बहिष्कार किया, हालाँकि इसका कोई सबूत नहीं है।
ऋत्विक का बजट बेहद कम होता था। इस वजह से अद्वैत मल्लबर्मन के उपन्यास पर आधारित 'तितास एकटि नदीर नाम' (1973) जैसी महान फिल्म उचित जगह नहीं बना पाई। फिल्म को बनाते वक्त ऋत्विक को यक्ष्मा हो गया था और इस दौरान उसकी सेहत काफी बिगड़ गई थी। इस फिल्म का कथानक बांग्लादेश के ब्राह्मण-बाड़िया इलाक़े में तितास नदी के किनारे रह रहे मछुआरों पर आधारित है। फिल्म में ऋत्विक खुद एक मल्लाह की भूमिका में आते हैं। सतही तौर पर महज आम मछुआरों की ज़िंदगी की कहानी लगती यह फिल्म दरअसल परंपरा और हाशिए पर खड़े एक समुदाय के संघर्ष की अद्भुत कहानी है। तितास नदी महज नदी नहीं, फिल्म में एक किरदार सी लगती है। ऋत्विक के निर्देशन की खूबी यह थी कि इसमें उसकी अपनी व्यापक पढ़ाई और विश्व-पटल पर हो रहे कलात्मक प्रयोगों के ज्ञान का भरपूर इस्तेमाल था। 'तितास ...’ में भी ये बातें हैं, जो पारखी दर्शकों को दिख जाती हैं। यह हिंदुस्तान की पहली (और विश्व-पटल पर पहली कुछ में से एक) 'हाइपर-लिंक' फिल्म मानी जाती है, जिसमें कई चरित्रों और कथाओं को एक धागे में बगैर किसी बँधे क़ायदे के पिरोया गया है। निर्जीव को जीवंत किरदार की तरह पेश करने की खूबी ऋत्विक की फिल्मों में हर कहीं है, खास तौर पर 'अजांत्रिक' में एक गाड़ी को किरदार बनाने का अनोखा प्रयोग है।
इस साल ऋत्विक के जन्म की शतवार्षिकी है। हिंदुस्तानी सिनेमा में उसका योगदान सदियों तक याद रखा जाएगा। उसकी फिल्मों से प्रेरणा लेकर कई भाषाओं में फिल्में बनाई गई हैं, जिनमें हॉलीउड की भी कुछ फिल्में शामिल हैं। पूना के फिल्म इंस्टीटिउट में बिताए उसके दिनों के दौरान वहाँ मौजूद कलाकारों ने अक्सर उनके अपने काम पर उसके असर के बारे में कहा है। आज इस महान शख्सियत को हम कैसे याद करें, जो 'मेघे ढाका तारा' की नायिका की ज़ुबान से कह गया कि मैं जीना चाहता हूँ - दरअसल वह बंगाल या हिंदुस्तान की पीर सुना गया कि यह मुल्क़ जीना चाहता है। इस तड़प को बयां करता वह सजदा करता रह गया, चीखता रह गया।
- ‘नमाज़ आमार होइलो ना आदाय ओ आल्लाह'
ऋत्विक घटक के बारे में ज़्यादातर बातें फिल्मों के संदर्भ में होती है - बहुत अच्छे फिल्म निर्देशक थे, बहुत ही कम पैसों में उम्दा फिल्में उन्होंने बनाईं; फिल्म बनाने का उनका अनोखा नज़रिया था, जो पिछली सदी के फिल्मकारों में सबसे अनोखा था, आदि। दरअसल ऋत्विक घटक एक फिल्मकार ही नहीं, बीसवीं सदी के सबसे अनोखे हिंदुस्तानियों में एक है। बांग्ला के मशहूर लोक-संगीत आलोचक कालिका प्रसाद भट्टाचार्य ने एक साक्षात्कार में यह बताया कि बंगाल के विभाजन की जो पीड़ा बुद्धिजीवियों में है, उसमें सबसे ज्यादा ईमानदारी दो लोगों में दिखती है - एक थे लोक-संगीत को सर्वहारा वर्गों की ओर मोड़ने और आधुनिक जामा पहनाने वाले हेमांगो बिश्वास, और दूसरे ऋत्विक घटक थे। कहा जाता है कि कहीं फिल्म की शूटिंग करने जाते हुए हवाई जहाज से नीचे बहती पद्मा नदी को देखकर ऋत्विक घटक चीख-चीख कर रोने लग गए थे। हेमांगो बिश्वास के एक गीत का मुखड़ा है - आमार मन कांदे रे - पोद्दार पारे लाइगा ओ गृही मन कांदे रे - मेरा जी रो रहा है, पद्मा नदी के लिए ओ गृही रे, जी रोता है।
उनकी फिल्म 'जुक्ति, तोक्को आर गप्पो' (तर्क, बहस और गल्प) में कोलकाता शहर में गंगा नदी के किनारे एक फकीर को गाते हुए दिखाया गया है। वैसे यह कोई बड़ी बात नहीं है, पर गौरतलब यह है कि जब यह फिल्म बनी थी, कोलकाता बंगाली हिंदू अक्सरियत का शहर था और गंगा नदी के किनारे तमाम क़िस्म के सनातनी साधु संत मौजूद होते हैं। ऋत्विक ने चुनकर एक बाउल फकीर को दिखाया, जो यह गीत गा रहा है कि मुझे किसानी और गाँव की मजबूर और मसरूफ ज़िंदगी में इतना वक्त नहीं मिला कि मैं पाँच में से किसी वक्त की नमाज पढ़ पाऊं, हे अल्लाह! इस फिल्म पर चर्चा करते हुए अक्सर लोग उन की सोच पर वेद-उपनिषदों के प्रभाव वगैरह की बात करते हैं, पर इस पर कोई चर्चा नहीं होती कि ऋत्विक एक घोर धर्म निरपेक्ष शख्स था। वह एक ऐसा शख्स था, जिसे इंसानियत को सबसे पहले सामने रखकर अपनी बात करनी थी।
सिनेमा को कविता की तरह कैसे पेश किया जाए, इसकी सबसे खूबसूरत मिसाल फिल्म 'मेघे ढाका तारा' - बादलों में छिपा तारा - है। पंजाब और बंगाल का विभाजन हाल की सदियों में दक्षिण एशिया की सबसे बड़ी त्रासदी है। करोड़ों घर उजड़े, लाखों हत्याएं हुई, स्त्रियों और बच्चों पर बेइंतहा जुल्म हुए। पंजाबी अदब में रोमांटिक कवि माने गए शिव कुमार बटालवी ने लिखा, 'माए नी माए, मेरे गीतां दे नैणा विच बिरहो दी रड़क पवे, अद्धी अद्धी रातीं उठ, रोण मोए मित्तरां नीँ, माए सानूँ नींद ना आवे' -ओ माँ, मेरे गीतों की आँखों में विरह की किरचें हैं, आधी रातों को उठ कर मर चुके साथियों की याद में रोते हैं, मुझे नींद नहीं आती। यह क्रंदन ऋत्विक की फिल्मों में हर कहीं है। ऐसी एक चीख इस ज़मीन से निकली, वह गगन भेदी चीख एक ओर अमृता प्रीतम की 'अज्ज आक्खां वारिस शाह नूँ' कविता में दिखती है, तो दूसरी ओर बंगाल के कला और अदब में कभी मानिक बंद्योपाध्याय की कथाओं में तो कभी ऋत्विक घटक की फिल्मों में दिखती है। 'मेघे ढाका तारा' में यह पीर फिल्म के परदों से उतर कर इंसानियत के बड़े कैनवस पर छा जाती है। गहराई से देखा जाए तो ऋत्विक ने वाक़ई इस फिल्म के जरिए एक महाकाव्य रचा है, जो हज़ारों सालों तक पढ़ा जाएगा। 1960 में बनी 'मेघे ढाका...' तीन फिल्मों की कड़ियों में पहली है - इसके बाद कोमल गांधार 1961 और सुबर्नो-रेखा 1962 में बनीं। बँटवारे की तड़प और पीर, को इतनी गहराई से देखना और दिखाना, बेबसी की ऐसी चार-फाड़ इससे पहले कभी नहीं हुई। इस पीर को साफ कह पाना मुमकिन नहीं है, इसीलिए तो मंटो तबाह हो गया, सथ्यू की 'गरम हवा' आज तक सवाल बन खड़ी है। ऋत्विक का कहना था कि उम्दा फिल्म हमें हँसने-रोने से परे नई दिशाएँ दिखलाती है और गहराई तक जाया जाए तो ऐसी अंजान जगह ले जाती है, जहाँ कुछ कह पाना मुमकिन नहीं रहता। हम देखते हैं कि एक कहानी है, प्यार है, धोखा है, दिलो-जाँ की बातें हैं, पर अचानक ही हम पूछने लगते हैं कि क्यों, कैसे। ऋत्विक मिथकों का इस्तेमाल करते हैं, पर ऐसे कि उनके नए मायने सामने आते हैं। वह मानो प्राक-आधुनिक और उत्तर आधुनिक सभ्यताओं के सह-अस्तित्व मे दरारें ढूँढते फिर रहे थे। सर्रीयल फिल्म-कला में उनकी महारत लाजवाब थी। उनकी फिल्मों के संगीत निर्देशकों में बहादुर खान जैसे शास्त्रीय संगीत के उस्ताद थे, तो साथ ही रवींद्र-संगीत का भरपूर इस्तेमाल भी था। 'मेघे ढाका तारा' में एक पारंपरिक गीत की चार पंक्तियाँ बार-बार दुहराई गई हैं, जिसमें सतही तौर पर माँ बेटी को विदा करने से पहले विलाप करती है, पर यह विलाप फैलता जाता है और अंजाने ही वक्त की त्रासदी की सुगबुगाहट बन जाता है।
बांग्ला अदब में हाल के वक्त में सबसे प्रभावशाली और अराजक उपन्यास लेखक नबारुण भट्टाचार्य ने ऋत्विक घटक की याद में व्याख्यान देते हुए यह कहा था कि कुछ आलोचक ऋत्विक की फिल्मों में कला का व्याकरण नहीं ढूंढ पाए। नबारुण ने नाराज़गी जताते हुए कहा था - अरे सालो, वो फिल्म का ग्रामर बना रहा है। यह ग्रामर सीखो। ... घिनौनी तबाह हो चुकी किसी चीज़ को खूबसूरत नहीं बनाया जा सकता। ... इंसान के प्रति विश्वसनीय होना, ग़रीब के प्रति ईमानदार होना, यह कला की शर्त है। पैसे-वालों के साथ खुशमिज़ाजी से कला नहीं बनती।...’ नबारुण का ऋत्विक के साथ पारिवारिक संबंध था। उसके पिता बिजन भट्टाचार्य – महाश्वेता देवी के पति - ने ऋत्विक के नाटकों और फिल्मों में अभिनय किया था।
'जुक्ति, तोक्को आर गप्पो' उसकी आखिरी फिल्म (1977) है और इसमें ऋत्विक की सोच आक्रामक होकर सामने आती है। फिल्म में खुद अभिनय किया है, उसके बेटे ने भी हिस्सा लिया और साथ में उन दिनों नाटकों की सबसे मशहूर माँ और बेटी तृप्ति और साँओली मित्रा भी हैं। यहाँ आज़ादी के बाद हिंदुस्तान के हर इदारे पर, हर परिभाषा पर, खास तौर पर बंगाल की हर बौद्धिक प्रवृत्ति पर सवाल उठते दिखते हैं। मुख्यधारा के सिनेमा और अदब पर तो चोट है ही, यह एक तरह का आत्म-दाह है। उत्पल दत्त के जिम्मे दिए किरदार सत्यजित बसु के जरिए इसमें उन दिनों के शिखर माने जाने वाले बौद्धिकों पर तीखा व्यंग्य है। फिल्म की शुरूआत भुखमरी के शिकार एक ग़रीब बुज़ुर्ग से होती है, जिसकी फिल्म की कहानी में कोई जाहिरा भूमिका नहीं है, उदासीन नज़रों से वह हमारी ओर देखता है, जैसे हम और हमारा समाज अपने चारों ओर हो रही घटनाओं को उदासीन नज़रों से देखते हैं। इसके ठीक बाद काले वेष में तीन आकृतियों का आधुनिक शैली में नृत्य है, जो शास्त्रीय हिंदुस्तानी संगीत के ताल पर है। फिल्म में एक जगह संस्कृत भाषा के एक पंडित और संथाल परगना के एक आम संस्कृति-कर्मी के बीच भाषा पर रोचक बहस है। लोक-संस्कृति के नज़रिए से संस्कृत म्लेच्छ यानी विदेशी ज़बान है, क्योंकि यह आम लोगों की ज़बान नहीं है। यानी पंडिताई – चाहे वह संस्कृत की हो या अंग्रेज़ी की गुलामी हो, ऋत्विक के लिए दोनों जनविरोधी हैं। नबारुण ने कहा था कि ऋत्विक बुद्ध की तरह अपनी कुलीनता का त्याग कर रहा था, और लोगों के बीच जगह ढूँढ रहा था। वह इप्टा का और कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य रह चुका था, पर मूलत: वह अराजक लोकपक्षी विचारक और संस्कृतिकर्मी था। 'जुक्ति, तोक्को आर गप्पो' में उसने मानो अपनी रूह के हर पुर्जे को खोलकर सामने रख दिया है। हर दृश्य, कहानी का हर हिस्सा गहरी समझ के साथ रखा गया है - बेरोज़गार इंजीनियर नचिकेता और बांग्लादेश से भाग कर आई बंगो-बाला, इन दो चरित्रों के जरिए बंगाल के बँटवारे की तक़लीफ और दोनों ओर समकालीन राजनीति में पिटते आम लोगों की बेबसी में खुद की तलाश करता फिल्मकार।
ऋत्विक की बनाई डॉक्यूमेंटरी फिल्म 'आमार लेनिन' (1970) पर कम चर्चा हुई है। लेनिन की शतवार्षिकी पर पश्चिम बंगाल सरकार के लिए बनाई इस फिल्म पर प्रतिबंध लग गया था। कुछ साल पहले इसे फिर से सामने लाया गया है। लोक-संस्कृति (ग्रामीण नाटक-शैली : जात्रा) के जरिए आम लोगों तक लेनिन, रूसी क्रांति और साम्यवाद के आदर्शों को लाती यह फिल्म आदर्श कलात्मक डॉक्यूमेंटरी है। बंगाल के कम्युनिस्ट नेताओं को यह बात रास नहीं आई होगी कि उनमें से किसी को न चुन कर एक सामान्य सर्वहारा को उसने 'आमार लेनिन' (मेरा लेनिन) कहा। कई लोग मानते हैं कि कम्युनिस्ट पार्टी के लोगों ने सक्रिय रूप से उसकी फिल्मों का बहिष्कार किया, हालाँकि इसका कोई सबूत नहीं है।
ऋत्विक का बजट बेहद कम होता था। इस वजह से अद्वैत मल्लबर्मन के उपन्यास पर आधारित 'तितास एकटि नदीर नाम' (1973) जैसी महान फिल्म उचित जगह नहीं बना पाई। फिल्म को बनाते वक्त ऋत्विक को यक्ष्मा हो गया था और इस दौरान उसकी सेहत काफी बिगड़ गई थी। इस फिल्म का कथानक बांग्लादेश के ब्राह्मण-बाड़िया इलाक़े में तितास नदी के किनारे रह रहे मछुआरों पर आधारित है। फिल्म में ऋत्विक खुद एक मल्लाह की भूमिका में आते हैं। सतही तौर पर महज आम मछुआरों की ज़िंदगी की कहानी लगती यह फिल्म दरअसल परंपरा और हाशिए पर खड़े एक समुदाय के संघर्ष की अद्भुत कहानी है। तितास नदी महज नदी नहीं, फिल्म में एक किरदार सी लगती है। ऋत्विक के निर्देशन की खूबी यह थी कि इसमें उसकी अपनी व्यापक पढ़ाई और विश्व-पटल पर हो रहे कलात्मक प्रयोगों के ज्ञान का भरपूर इस्तेमाल था। 'तितास ...’ में भी ये बातें हैं, जो पारखी दर्शकों को दिख जाती हैं। यह हिंदुस्तान की पहली (और विश्व-पटल पर पहली कुछ में से एक) 'हाइपर-लिंक' फिल्म मानी जाती है, जिसमें कई चरित्रों और कथाओं को एक धागे में बगैर किसी बँधे क़ायदे के पिरोया गया है। निर्जीव को जीवंत किरदार की तरह पेश करने की खूबी ऋत्विक की फिल्मों में हर कहीं है, खास तौर पर 'अजांत्रिक' में एक गाड़ी को किरदार बनाने का अनोखा प्रयोग है।
इस साल ऋत्विक के जन्म की शतवार्षिकी है। हिंदुस्तानी सिनेमा में उसका योगदान सदियों तक याद रखा जाएगा। उसकी फिल्मों से प्रेरणा लेकर कई भाषाओं में फिल्में बनाई गई हैं, जिनमें हॉलीउड की भी कुछ फिल्में शामिल हैं। पूना के फिल्म इंस्टीटिउट में बिताए उसके दिनों के दौरान वहाँ मौजूद कलाकारों ने अक्सर उनके अपने काम पर उसके असर के बारे में कहा है। आज इस महान शख्सियत को हम कैसे याद करें, जो 'मेघे ढाका तारा' की नायिका की ज़ुबान से कह गया कि मैं जीना चाहता हूँ - दरअसल वह बंगाल या हिंदुस्तान की पीर सुना गया कि यह मुल्क़ जीना चाहता है। इस तड़प को बयां करता वह सजदा करता रह गया, चीखता रह गया।
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