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लोग खुद से ही गुफ्तगू में लगे हैं


रोशनी है अँधेरे वक्तों की

हर सुबह शक होता है कि कहीं विक्षिप्त तो नहीं हूँ
 
अखबारों में कुछ तो अफसाने होते हैं
 
कुछ मशीनों से लगातार पढ़ता-सुनता हूँ
 
सौदागरों की बोलियों के दरमियान जो कुछ भी सुनता है
 
मशीनों पर जाने कितने लोग कुछ सुनाना चाहते हैं
 
मेरी ही तरह इस शक से परेशान
 
कि हम सब पागल तो नहीं हो गए हैं
 
अब तो यह भी कभी-कभार ही होता है
 
कि कागज़ कलम उठाएँ और कविताएँ लिखें
 
इस भटकी हुई उम्मीद के साथ कि मरने के बाद कोई पढ़ेगा
 
क्या दुनिया में पेड़-पौधे सब मर चुके हैं
 
क्या कोई पाखी, कोई जानवर नहीं रहा कि
 
लोग खुद से ही गुफ्तगू में लगे हैं
 
इस भ्रम में कि किसी और से बतिया रहे हैं



 
कोई किसी को पहचानता नहीं है
 
कोई नहीं जानता कि कौन कहाँ रहता है
 
कोई चाँद-सूरज नहीं है
 
पर रोशनी है अँधेरे वक्तों की
 
सोता हूँ, जागता हूँ, खुद को खुद की कहानी सुनाता हूँ
 
जब धरती पर जिबह हो रहे हैं मेरी प्रजाति के अनगिनत प्राणी।
                                         
                                 -(अदहन 2018)

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