Sunday, January 20, 2019

दो कविताएँ


  बातें 

इतनी बातें 
कितनी लिखें
लिख डालने से क्या बातें बातें रह जाती हैं?

दिन भर बोल-बोलकर
भूत-भविष्य में 
खो गए नगर-महानगर, प्रीत-प्यार के शबो-सहर ढूँढ़ते फिरते हैं

ढूँढकर नहीं मिलतीं
लिखने लायक बातें।  - (विपाशा 2018)



लिख सकूँ



कुछ कहने लायक कब लिख पाऊँगा


सुनता हूँ अपनी कविता में औरों की कही




कागज़ की कुतरन, रोज़ाना खबरें, मिट्टी की प्यास


आकाश का गीत-संगीत, जाने कब से यह सुनता रहा हूँ




साथ सुनी है सड़क पर जीवन की उठापटक


लगातार लगातार जद्दोजहद




दीवार से पूछता हूँ


हवा मेरे सवालों को अनदेखे कोनों तक ले जाती है


बैठा हूँ कि


लिख सकूँ कुछ कहने लायक कविता कभी।  - (हंस 2018)

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