'समकालीन जनमत' (15-28 फरवरी 1994): मंच
यौन-संबंध वाम-चिंतन के दायरे से बाहर क्यों -लाल्टू, चंडीगढ़
आज से करीब पंद्रह साल पहले संयुक्त राज्य अमरीका में कुछ वामपंथी समगठनों द्वारा प्रकाशित यौन-शिक्षा के पैंफलेट देखे थे। तब बड़ा आश्चर्य हुआ था। यौन-संबंधों पर बातचीत वाम के दायरे में आ सकती है, ऐसी कल्पना भी कर पाना तब असंभव लगता था। दरअसल ये पैंफलेट काफी पुराने थे और शायद साठ के दशक में तैयार किए गए थे। सत्तर के दशक में महिलाओं के एक प्रगतिशील समूह ('बास्टन वीमेन्स ग्रुप' के नाम से परिचित) ने 'आवर बाडीज़ आवरसेल्व्स' नाम की एक पुस्तक निकाली थी, जिसका बाद में परिवर्द्धित संस्करण भी प्रकाशित हुआ है। यह पुस्तक नारी-शरीर, यौन संबंध और नारी स्वास्थ्य पर नारियों के परिप्रेक्ष्य से नारियों द्वारा लिखी गई थी।
हमारे देश में बुर्जुआ मूल्यों के विकास, पश्चिमी मीडिया का बढ़ता प्रभाव और खासतौर पर अश्लील साहित्य और संस्कृति के बढ़ते प्रभाव को देखने पर यह समझ में आता है कि वाम को सेक्स के बारे में सचेत रुप से सोचने की ज़रुरत क्यों पड़ी होगी। पश्चिम में फ्री सेक्स एक विद्रोह का पर्याय बन कर भी उभरा (हालांकि फ्री सेक्स की जो धारणा दुर्भाग्यवश हमारे देश में है, ऐसा पश्चिम में व्यापक रुप से कभी भी नहीं घटित हुआ)। ऐसी परिस्थिति में जब इंसान की जैविक भूख की उसकी अंतड़ियों तक जाकर, शोषण की कोशिश हो या इसकी संभावना प्रबल हो, प्रगतिशील और वाम ताकतों के लिए यह आवश्यक हो जाता है कि यौन-संबंधों को एक सामाजिक-राजनैतिक प्रक्रिया के रुप में देखते हुए इन पर बहस छेड़ी जाए और एक स्वस्थ परिवेश के निर्माण की ओर कदम उठाया जाए, जिसमें खासतौर पर युवाओं को भटकने से रोकने के रास्तों पर सोचा जा सके।
स्वाभाविक है कि इस दिशा में पहला कदम सेक्स शिक्षा का होगा। सुधीश पचौरी का लेख 'देह के आखेट' एक बहुत ज़रुरी विषय पर बहस छेड़ते हुए भी इस बात को सामने नहीं ला पाया है। दुर्भाग्यवश, इस विषय पर अन्य हिंदी पत्र-पत्रिकाओं में रुढ़िवादी प्रतिक्रिया ही आई है (जैसेः प्रभाष जोशी का बहुत ही प्रभावी पर ग़लत दृष्टिकोण से लिखा गया लेखः 'मुक्त प्रेम को मान्यता नहीं', रविवारी जनसत्ता 15 अगस्त 1993)। जैसा कि अब हर कोई मानता है, इस देश में आम आदमी को स्क्रीन पर अश्लील और फूहड़ किस्म का कामोद्दीपक दृश्य देखना पसंद है। बच्चों को कामोत्तेजक रुप से अंगभंगि करते देखना भी स्वीकार्य है। पर वास्तविकता के रुप में एक यौन-संबंध (जो सामाजिक मान्यताओं से अलग उभरा हो) को मानना असंभव है। बड़े शहरों में, छात्रावासों में, लड़के-लड़कियों तो क्या, अपने माँ-बाप के साथ भी (भिन्न लिंग के) खाना खाने पर तक अधिकतर निषेध है। इस पाखंड के खिलाफ वाम को ही आवाज उठानी चाहिए। 'कस्बों में बढ़ते अवैध गर्भपात' से बचने के लिए कालेजों, विश्वविद्यालयों से लेकर गाँवों तक स्वास्थ्य केंद्रों में यौन-शिक्षा और स्वस्थ यौन-संबंधों के उपायों के लिए पर्याप्त साधन हों, यह भी एक मुद्दा बनना चाहिए – साथ ही यह आवाज़ भी उठानी चाहिए कि प्रेम-हीन यौन-संबंध से बचने की युवाओं को पूरी कोशिश करनी होगी - ऐब्स्टिनेंस (संयम) के नारे को उठाने की सार्थकता तभी है, जब यह स्वच्छंद प्रेम को नकारे नहीं।
दुर्भाग्यवश, परिस्थितियों के तेज़ी से बदलने की वजह से हम लोग ऐसी एक मानसिकता का विकास नहीं कर पाए हैं, जिसमें यौन को स्वस्थ रुप से एक जगह देने की हिम्मत हो। इस बारे में व्यापक बहस छेड़ने की ज़रुरत है - नहीं तो पोर्नोग्राफिक इंडस्ट्रियल कांप्लेक्स के बढ़ते हुए शिकंजे में हम और भी गहरे फँसते जाएंगे। विवाह पूर्व या विवाहेतर संबंधों के बारे में, यौन-आधारित साहित्य के बारे में (अश्लील नहीं, एरोटिक) हमारी अपनी अंदरुनी चाहतों को हमें परखना होगा। जब तक हम इन विषयों से कतराते रहेंगे, हम खुद यह नहीं जान पाएँगे कि हम खुद को, दूसरों को कब कैसे चोट पहुँचा रहे हैं। जब तक हम खुद ईमानदार नहीं होंगे, दूसरों को कुछ कहने का पाखंड करते रहना हमारे अपने ही हित में न होगा।
अच्छी बात यह है कि पिछले दस वर्षों में कई नारी संगठनों ने हानिकारक जन्म-निरोधकों के व्यापक उपयोग का विरोध करते हुए यौन-शिक्षा पर भी अलग-अलग कार्यक्रमों की शुरुआत की है। अब समय आ गया है कि वामपंथी राजनैतिक संगठन इन मुद्दों पर व्यापक बहस छेड़ें और इस बुनियादी इंसानी प्रवृत्ति को पूँजीवादी भूख का शिकार होने से बचाने का जिहाद शुरु करें।
8 comments:
बंधु, पंद्रह साल पहले लिखा गया आपका यह खत आज भी मौलिक है। वामपंथी अपने दबड़ों से बाहर निकलें।
ये तो आज के समय से भी मेल खाता है
मेरी कलम - मेरी अभिव्यक्ति
आपने जो भी लिखा है उसमें ऐसा कुछ नहीं है जिसे कहते हुए आज संकोच किया जाऐ । वामपंथी हो या संघी, कहते क्या हैं, अलग बात है। पर करते क्या आए हैं, विचारणीय बात तो वो है।
जो पढ़कर भी न समझ पाये, उनका क्या करें, समझ नहीं आता!
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चाँद, बादल और शाम
bahut badhiya,
aaj bhee zarooree.
Isee series kee ek doosaree kitaab hai "Promiscuities: The Secret Struggle for Womanhood"
..भाकपा माले में जहाँ एक तरफ़ तो घोर किसानी मानसिकता छाई हुई थी.. दूसरी तरफ़ प्रगतिशीलता के नाम पर बलात्कार की प्रवृत्ति भी पाई गई थी.. उसकी परम्परा आज तक क़ायम है..
आप का विचार उन्हे सम्भवतः आज भी स्वीकार्य न होगा..
वर्ड वेरिफ़िकेशन के कारण आप के यहाँ कमेन्ट करना बड़ा मुश्किल है..
aapki wilkul poore 16 aane such hai,pta nhin kis mansikata ke haih ye jo itna jaroori mudda hote hue bhi isako jaroori nhin maan rhe hain jabki aane wala kal isi yaun wishyon ke ird gird dikhaee de rha hai .
भारतीय वाम कहने से भारत की विभिन्न कम्यूनिस्ट पार्टियों के नाम मन में आते हैं जिनकी प्रेरणा चीन या रूस से है, और शायद रूस चीन में वाम ने यौन को कम ही छूआ है?
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