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क्योंकि मैं सुस्त, ज़िद्दी, बेकार हूँ


भाषाओं की मौत कौन पढ़ता है


हर मौत कहानी नहीं होती
मसलन भाषाओं की मौत कौन पढ़ता है।
कोई कहानी मर रही है हर किसी कोने में
यह किसी भाषा के मौत की कहानी है।
कोई जासूस इन कोनों पर नहीं आता
मरती भाषा के सुराग अपने ही अंदर होते हैं
भाषा मरती है तो कहानी अपने अंदर मरती है
कौन पढ़ता है।
(पहल - 2019)

Who Cares About Languages Dying

Not every death is a story
Take languages for instance, who reads their death?
At some corner some story is dying 
It is the story of a language dying
No sleuth comes to such corners
The dying language carries the clues within itself
When the language dies, the story dies within itself
Who reads?


भाषाई द्वंद्व और हिन्दी
'अकार'  (अंक 51; 2018) में प्रकाशित लेख -

"निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल।
बिन निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल।।
विविध कला शिक्षा अमित, ज्ञान अनेक प्रकार।
सब देसन से लै करहू, भाषा माहि प्रचार।।" - भारतेंदु हरिश्चंद्र
'The limits of my language are the limits of my world” - Ludwig Wittgenstein
Language is the road map of a culture. It tells you where its people come from and where they are going” - Rita Mae Brown
मैं जन्म से दुभाषी और तक़रीबन जन्म से तिभाषी हूं। पिता पंजाब के गांव में पैदा हुए थे और किशोरावस्था तक वहीं पले थे। माँ पूर्वी बंगाल (आज के बांग्लादेश) में गाँव में जन्मी और बचपन में वहीं पली थीं। मैं कोलकाता में जन्मा, पिता से पंजाबी और माँ से बांग्ला सीखी, घर से बाहर बांग्लाभाषी माहौल था, पर घर में खिचड़ी पंजाबी बोली जाती थीपढ़ाई हिंदी माध्यम के स्कूलों में हुई।
तीन भाषाओं और तीन संस्कृतियों को आत्मसात करते हुए मैं बड़ा हुआ। शोध की पढ़ाई के दौरान विदेश में रहा और तब से आज तक अंग्रेज़ी के माहौल में ही रोजाना ज़िंदगी का बड़ा हिस्सा बीता है। बहुभाषी और बहु-सांस्कृतिक होने के फायदे और नुकसान दोनों हैं। हिन्दी में अरसे से लिखता रहा हूँ। शुरूआती दौर में भाषा पर बांग्ला का प्रभाव था और वह मुझे तंग नहीं करता था, क्योंकि मैंने मान लिया था कि हिन्दी और अंग्रेज़ी दोनों भाषाओं में यह विशेषता है कि बाहरी प्रभावों के लिए इनमें बड़ी जगह है। यह बात बहुत बाद में समझ में आई कि जैसे तत्सम शब्दों का इस्तेमाल मैं कर रहा था, वे अक्सर गढ़े हुए और कृत्रिम हैं और आम लोग ऐसी भाषा का इस्तेमाल नहीं करते। अंग्रेज़ी शब्दों का इस्तेमाल करता रहा हूँ, पर अंग्रेज़ी भाषा को कभी अपना नहीं पाया हूँ। खासतौर पर मुझे भारतीय अंग्रेज़ी से गहरी चिढ़ हो गई है। बहरहाल, कुछ कहने से पहले अपनी पृष्ठभूमि को समझना जरूरी था। अपनी भाषा के साथ हर व्यक्ति का निजी और अंतरंग संबंध होता हैमेरे लिए यह संबंध तनावों से भरा रहा है। मैं आज भी अपनी भाषा ढूँढ रहा हूँ। अपनी इस तलाश को सामने रखना जरूरी है। मेरी तलाश उन सभी भाषाओं से जुड़ी है, जो लगातार संकट में हैं और विलुप्ति की ओर बढ़ रही हैं।
विज्ञान का छात्र और अब अध्यापक होने के नाते अपनी भाषाओं में वैज्ञानिक शब्दावली के प्रति भी ध्यान देता रहा हूँ बड़ी तकलीफ के साथ मैंने यह पाया है कि ज्यादातर तकनीकी शब्द न केवल बनावटी हैं, बल्कि वे जटिल हैं। जटिलता धारणाओं या अवधारणाओं की वजह से नहीं, शब्द संरचना में कृत्रिमता की वजह से है। मेरी समझ में भारत में कोई बड़ी वैज्ञानिक खोज तब तक नहीं हो सकती जब तक विज्ञान की बुनियादी तालीम मादरी ज़ुबान में नहीं होती। यह संभव है कि अगले सौ सालों में ज्यादातर पढ़े-लिखे हिंदुस्तानियों की मातृभाषा अंग्रेज़ी हो जाए और तब इस मुल्क में बड़ी खोजें होने लगें। आज जो लोग हिंदुस्तान में रहते हुए खुद को अंग्रेज़ी में माहिर मानते हैं, उनमें से ज्यादातर दरअसल ग़फलत में खोए हुए हैं। उन्हें यह पता नहीं है कि वे अधकचरे भाषा-ज्ञान को ही बेहतर समझ रहे हैं। साथ ही भारतीय भाषाओं में भी वे अयोग्य हैं।
भाषा के मुद्दे पर ब हम इस तरह बात करते हैं तो अक्सर लोग इसे अंग्रेज़ी का विरोध मान बैठते हैं।यह पहले ही स्पष्ट कर देना चाहिए कि यहाँ बात अंग्रेज़ी के विरोध की नहीं हो रही है। आज कोई बेवकूफ ही यह कह सकता है कि हमें अंग्रेज़ी का समूल बहिष्कार करना चाहिए। हम यहाँ हिंदुस्तानी ज़ुबानों के पक्ष में बात रख रहे हैं, और वह भी किसी देशभक्ति या भाषाभक्ति की वजह से नहीं, बल्कि इस चिंता के साथ कि भारत के औसत नागरिक का सर्वांगीण विकास कैसे हो। जैसा धरती पर हर कहीं है, दक्षिण एशिया में भी भाषा का मुद्दा चरम भावनाओं तक ले जाता है। अक्सर ज़ुबान को समुदाय की अस्मिता की तरह देखा जाता है और जैसे कि देश के नाम पर भक्ति और गर्व की माँग होती है, वैसे ही भाषा के प्रति भी लोग भक्तिभाव से बात करते हैं। हिन्दी या दीगर हिंदुस्तानी ज़ुबानों के लिए मुझमें कोई भक्तिभाव या गौरव की भावना नहीं है। मेरी चिंता इंसान की कुदरती काबिलियत को लेकर है। सदियों से भाषाविद इस बात पर काम करते रहे हैं कि भाषा का महत्व और औचित्य क्या है। भाषा के जैविक विकास पक्ष पर बहुत काम हुआ है। इस पर हम बाद में चर्चा करेंगे। फिलहाल इतनी बात कही जाना चाहिए कि हमारी ज़ुबान हमारे सामाजिक जीवन और हमारी राजनैतिक समझ के साथ जुड़ी होती है। अक्सर संपन्न वर्गों ने भाषा को महज आपसी बोलचाल के माध्यम में सीमित रखने की कोशिश की है। इस तर्क के मुताबिक जो भाषा ज्यादा प्रचलित है, उसे ही अपनाना सबके हित में होगा। सच यह है कि भाषा सिर्फ बोलचाल के लिए अमूर्त प्रतीकों और ध्वनियों का समूह नहीं है। भाषा और भाषाविज्ञान का संस्कृति और सियासत से गहरा नाता है (Fabian 1986)
पनिवेशिक शासकों की भाषाएँ यूरोपी आधुनिकता के साथ हमारे पास आईं। इन भाषाओं के जरिए सत्ता के नए सियासी और सांस्कृतिक ढाँचे बने। दक्षिण एशिया में उत्तर-औपनिवेशिक काल जनता के सामाजिक-सांस्कृतिक बिखराव का है। औपनिवेशिक शासन के हम पर जो प्रमुख प्रभाव पड़े, उनमें समुदायों में परस्पर हिंसा का रिश्ता या बहुसंख्यक जनता का नुकसान करने वाली विकास की हिंसक नीतियाँ हैं, जिनमें भाषा का मुद्दा प्रमुख है। भारतीय भाषाओं में लिखे साहित्य में इस निहित हिंसा को बार-बार दिखलाया गया है, जैसे बांग्ला के कवि नबारुण भट्टाचार्य 'ट्राम' शीर्षक कविता में विकास और बहिष्कार के प्रसंग में कहते हैं -
ट्राम, मैं भी कोलकाता से खत्म हो रहा हूँ
ऊपर लगे दिखते--दिखते तारों के तंत्र में से
मैं भी कोई सपना नहीं ढूँढ पाता
ट्राम, मुझे भी निकाल दिया जा रहा है
क्योंकि मैं सुस्त, ज़िद्दी, बेकार हूँ।" -( 'Tram?' - Chowdhury 2015)

कितना आसान होता कि मैं अंग्रेज़ी को अपना लेता और संकटों से जूझती भाषाओं से अलग हो जाता। चूँकि मेरा पेशा, मेरी रुचियाँ, हर कुछ कहीं न कहीं अंग्रेजी से जुड़ा है यह बड़ी आसान बात होती कि मैं अंग्रेजी को अपनी भाषा मान लेता। अंग्रेजी में विश्व-साहित्य पढ़ते हुए, विज्ञान और शोध-साहित्य पढ़ते हुए, भाषा और संस्कृति के सवालों को और राजनैतिक सवालों को पढ़ते हुए मैंने यह समझा है कि अंग्रेज़ी मेरी भाषा नहीं हो सकती है। मैंने समझा है कि भारत में अंग्रेजी बोलने वालों की जो बड़ी जमात पैदा हो गई है, मैं उनके साथ खड़ा नहीं हूँ। मैंने समझा है कि एक बड़ी लड़ाई चल रही है और इस लड़ाई में मैं भारत में अंग्रेज़ी बोलने, पढ़ने-लिखने वालों के साथ नहीं, बल्कि उनके खिलाफ खड़ा हूँ।

बचपन में, किशोरावस्था तक जब अंग्रेजी कम ही आती थी, हिन्दी के साथ जुड़ना जिन कारणों से था, उन्हें आज मैं सही कारण नहीं मानता। जैसे हिन्दी राष्ट्रभाषा है - यह ग़लत धारणा तब थी। किसी भी राष्ट्र की एक भाषा होती है, होनी चाहिए, यह ग़लत धारणा थी; राष्ट्र-हित नामक कोई अमूर्त बात होती है, जिसके लिए सबको अपनी ज़िंदगी न्यौछावर करनी चाहिए - आज मैं मानता हूँ कि ये बातें बकवास ही नहीं, कुछ संकीर्ण, निहित स्वार्थों के हित में रची गई बातें हैं। तो मैं हिन्दी या दीगर भारतीय भाषाओं के पक्ष में क्यों हूँ? हिन्दी रहे या न रहे, इससे मुझे क्या फ़र्क पड़ता है? हिन्दी में पढ़ने-लिखने से मेरे जैसे व्यक्ति को फायदा तो कुछ होता होगा, कुछ नुकसान ज़रूर होता है। टाइपिंग की दिक्कतें हैं। हम जो लिखते हैं, उसे पढ़ने वाले कम हैं, वगैरह। जाहिर है कि हिन्दी महज एक भाषा है, जिसमें पढ़ते-लिखते हुए मुझे अपने होने का कोई मतलब या मकसद दिखता है, जो अंग्रेज़ी में नहीं दिखता है। संभव है कि पंजाबी या बांग्ला में लिख कर भी मुझमें ऐसे एहसास पनप सकते थे। पर चूँकि मुझे स्कूली तालीम हिन्दी में मिली, स्कूल में जिन अध्यापकों और बच्चों के साथ बातचीत की, वे सब हिन्दी बोलते थे, इसलिए हिन्दी में पढ़ना-लिखना अधिक स्वाभाविक रहा। इसमें कोई शक नहीं कि अगर मेरी पढ़ाई बांग्ला माध्यम स्कूल में हुई होती, तो आज मैं हिन्दी में नहीं लिख रहा होता। मेरे पिता ने मुझे हिन्दी माध्यम स्कूल में क्यों भर्ती करवाया- यह भाषाई निर्णय कम और कौमी और वर्ग चेतना का निर्णय अधिक रहा होगा। मेरे पिता सरकारी ड्रायवर थे, पंजाबी साहित्य में कुछ पढ़ाई की थी, पर कोलकाता शहर में उनकी अस्मिता एक मजदूर की थी। हालांकि बांग्लाभाषी कामगार लोग कम न थे, पर उनकी अपनी पहचान उनकी अपनी निर्मिति नहीं थी। आज जिसे हम आसानी से एक देश कहते हैं, उनके जमाने में वह आज से भी अधिक बहुराष्ट्रीय या बहुजातीय था। उस जमाने में कोलकाता शहर में एक पंजाबी कामगार के बच्चे की भाषा बांग्ला नहीं हो सकती थी।
इन बातों को समझना इसलिए ज़रूरी है कि भाषा का सवाल सिर्फ बोलने, पढ़ने या लिखने का सवाल नहीं, यह उन तमाम सियासी मुद्दों से जुड़ा हुआ है, जिनसे हम लगातार जूझते हैं। भारत में फासीवाद के उभार पर बहुत सारे चिंतक विमर्श करते रहते हैं। पर एक कारण ऐसा भी है, जिस पर बातचीत कम हुई है और सुनियोजित ढंग से नहीं हुई है। अगर हम यह देखें कि गत बीस सालों में कौन सी बातें एक जैसी रफ्तार से बढ़ती रही हैं, तो उनमें एक मुद्दा भाषा का होगा।
हिंदुस्तान की सांस्कृतिक और भाषाई विविधता ने जम्हूरियतको मजबूत किया है। इस मुल्क में 3372 मादरी ज़ुबानें हैं, जिनमें से 1576 सरकारी खातों में दर्ज़ हैं और बाक़ी औपचारिक मान्यता के बगैर हैं। 2001 की जनगणना के मुताबिक, सदी की शुरुआत में 1635 विशिष्ट मातृभाषाएँ थीं, जिनमें 234 साफ़ पहचान में आती हैंऔर 22 बड़ी भाषाएँ हैं। इनमें से 29 ज़ुबानों के बोलने वालों की तादाद 10 लाख से ज्यादा है, 60 की 1 लाख से ज्यादा और 122 की 10,000 से ज्यादा तादाद है। भारतीय भाषाओं के जन-सर्वेक्षण (http://www.peopleslinguisticsurvey.org/) ने 780 ज़ुबानों की पहचान की है। राष्ट्रीय और राज्य-स्तरीय भाषाओं की सूची में 22 भाषाएँ हैं। 87 ज़ुबानों का मुद्रित साहित्य है। कोड़वा जैसी कुछ भाषाएँ ऐसी भी हैं जिनकी कोई लिपि नहीं है, पर इन्हें बड़ी तादाद में लोग बोलते हैं, जैसे कर्नाटक के कूर्ग (कोड़गु) इलाके में कोड़वा ज़ुबान बोली जाती हैपिछली दो सदियों में भारतीय भाषाओं में बड़े बदलाव आ हैं। यूरोप की औद्योगिक क्रांति के दौरान और उसके बाद जैसे जैसे नई तक्नोलोजी हिंदुस्तान में आई, भाषाई समुदायों के बीच ताकत के समीकर बदलने लगे। पश्चिमी प्रभाव में कुछ ज़ुबानें आधुनिक स्वरूप में बदल गईं। बाक़ी भाषाएँ पीछे रह गईं। कुछ ज़ुबानें आधुनिक भारतीय भाषाएँ बनकर सामने आईं, जैसे - हिन्दी, बांग्ला, पंजाबी आदि। आज़ादी की लड़ाई के साथ इन ज़ुबानों का बौद्धिक इतिहास गढ़ा गया। ज्यादातर भाषाओं का दावा था कि ये सौ साल से अधिक पुरानी हैं। इस वजह से इन भाषाओं को बहुभाषी स्वरूप अपनाना पड़ा, ताकि धीरे-धीरे विलुप्त हो रही या कम ताकतवर भाषाएं इनमें शामिल हो सकें। जैसे हिन्दी में अवधी, ब्रज, भोजपुरी आदि को शामिल किया गया। एक वक्त था जब ब्रज भाषा सारे उत्तरी भारत में कविता की भाषा थी। यहाँ तक कि तुलसीदास ने भी रामचरितमानस से अलग बाक़ी लेखन का ज्यादातर ब्रज में ही किया था। हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत में आज भी जो बोल गाए जाते हैं, वे अक्सर ब्रज में ही होते हैं रवींद्रनाथ ठाकुर ने भी शुरुआती दौर में ब्रज में ही कविताएं लिखी थीं। पर आज ब्रजभाषा ए छोटे इलाके की भाषा रह गई है। आधुनिक हिन्दी में इन सभी भाषाओं को शामिल माना गया, यानी कि इनमें से किसी एक में लिखा कुछ भी आंचलिक हिन्दी कहलाता है, पर इसके विपरीत हिन्दी में कुछ भी लिखा गया किसी एक आंचलिक भाषा में लिखा कहलाना ज़रूरी नहीं है।
ह बात रोचक है कि 1857 में हिंदुस्तान में अंग्रेज़ों की कुल संख्या तक़रीबन 40000 थी और इसके बावजूद तब से अफगानिस्तान की सीमा में पेशावर से लेकर बर्मा (म्यानमार) और हिमालय से सीलोन (श्री लंका) तक औपनिवेशिक शासन सख्ती से लागू था। हालाँकि 20वीं सदी की शुरुआत तक उनकी संख्या 1 लाख से ऊपर हो गई थी, जाहिर है कि दक्षिण एशिया के विशाल भूखंड के लिए यह संख्या छोटी ही थी। आज़ादी के वक्त भारत की साक्षरता दर मात्र 12% थी। जाहिर है कि प्रशासन के बिल्कुल ऊपरी तह के अलावा बाक़ी काम अंग्रेज़ी में होना नामुमकिन था। अलग-अलग प्रांतों में प्रशासन की भाषा अलग थी - पंजाब और संयुक्त प्रात में उर्दू, ध्य प्रांत में हिन्दी, आदि। हिन्दी और उर्दू में लिपि के अलावा कोई खास फ़र्क नहीं था, पर इसे (फ़र्क) क्रमबद्ध ढंग से पंडितों और मौलवियों ने कृत्रिमता की हद तक बढ़ाया। ऐसे तत्सम लफ्ज़ गढ़े गए जो कभी संस्कृत में भी नहीं थे। मसलन अंग्रेज़ी के सामान्य शब्द aberration के लिए विपथन और reversible के लिए उत्क्रमणीय जैसे शब्द बने। ऐसी कृत्रिम शब्दावली से लदी मानक हिन्दी एक ऐसी भाषा बनी, जिसे कोई कहीं नहीं बोलता है। कमोबेश ऐसा ही और कई भारतीय भाषाओं के साथ हुआ। बहरहाल सामाजिक उथलपुथल के बावजूद भाषाएँ विकसित होती रहीं। सभी मुख्य भाषाओं में आधुनिक साहित्य लिखा गया। कृत्रिम तकनीकी शब्दावली के बावजूद विज्ञान का साहित्य भी प्रचुर मात्रा में बढ़ा। आज़ादी की लड़ाई अंग्रेज़ी में नहीं लड़ी जा सकती थी। अंग्रेज़ी गुलामी का प्रतीक थीयह हाल के दशकों में ही हुआ है कि भारत के संपन्न वर्गो ने जबरन अंग्रेज़ी को भारतीय भाषा बना दिया है। साथ ही पुरातन-पोंगापंथियों की जमात संस्कृत की बौछार कर रही है। इन संस्कृतवादियों ने यह झूठ फैला दिया है कि भारत की कई भाषाएँ संस्कृत से आई हैं। हुआ इसके बिल्कुल विपरीत यह था कि उत्तर भारत में बसे आर्य मूल के पाणिनी और उनके शिष्यों ने तीन सौ सालों तक दूर-दराज के इलाकों में जाकर प्रचलित शब्द इकट्ठे किए और बाहर से आकर बसे अपने पूर्वजों की ज़ुबान के साथ उन्हें मिलाते हुए नया व्याकरण बनाया, जिसे ब्राह्मणों ने विमर्श की मानक भाषा माना। इस तरह जिन शब्दों को हम 'तत्सम' कहते हैं, वे तो संस्कृत से आए शब्द ज़रूर हैं, पर 'तद्भव' के बारे में सोचना ज़रूरी है। यह संभव है कि कई 'तद्भव' शब्द मूल भाषाओं में प्रचलित शब्द थे, जिनसे संस्कृत में शब्द गढ़े गए। यहाँ मकसद भाषाविज्ञान की बहस का नहीं, बल्कि मनुवादी संस्कृति की आक्रामकता को समझने का है, जिसके चलते हिन्दी जैसी भाषा, जो अमीर खुसरो और उनके बाद के कई महान चिंतकों और रचनाकारों की फारसी के साथ देशी ज़ुबानों के मिश्रण की कोशिशों से बनी-बढ़ी, उसे भी ज़बरन संस्कृतनिष्ठ बनाने का षड़यंत्र किया गया।
अक्सर भारतीय भाषाओं में आए बदलावों को सरलीकृत ढंग से समझने की कोशिश में हर बदलाव का कारण औपनिवेशिक शासकों की नस्लवादी सोच और भेदभाव की नीतियों को मान लिया जाता है। पर विस्तार से इस बारे सोचा जाए तो हम पाएँगे कि हिंदुस्तानी ज़ुबानों को लगातार दरकिनार करने में संपन्न वर्गों की भूमिका ज्यादा महत्वपूर्ण रही है।
आज़ादी के तुरंत बाद अंग्रेज़ी पढ़े-लिखे लघुसंख्यकों की एक कामकाजी भाषा तो थी, पर शायद ही कोई इसे तब भारतीय भाषा कहता हो। अंग्रेज़ी को राजभाषा का दर्जा मिला, पर तय यह हुआ कि धीरे-धीरे इसकी जगह हिंदुस्तानी ज़ुबानें ले लेंगी। संस्कृति-बहुलता और बहुभाषिता ही बिल्कुल सही रास्ता था। पर सांस्कृतिक विविधताके साथ बहुराष्ट्रीय देश बनाने की जटिलता का फायदा संपन्न वर्गों ने उठाया। और अब स्थिति बिल्कुल उलट गई है। आज़ादी के सत्तर साल बाद भी सरकारी आँकड़ों में एक तिहाई जनता निरक्षर है। नब्बे के दशक से जब से नवउदारवादी अर्थ-व्यवस्था के हम शिकार हुए हैं, संपन्न वर्गों की एक ऐसी जमात सामने आई है जो यह सुनते ही कि आप अंग्रेज़ी को भारतीय भाषा नहीं मानते, तरह-तरह के आक्षेप लगाएगी कि आप संकीर्ण सोच में फँसे हैं। हालाँकि सचमुच अंग्रेज़ी भारतीय भाषा आज भी नहीं है, क्योंकि इसका इस्तेमाल संपन्न वर्गों के लोग ही कर पाते हैं। अगर इस आधार पर किसी देश की भाषा तय हो तो उन्नीसवीं सदी में फ्रांसीसी भाषा को आधे से अधिक यूरोपी देशों की भाषा माना जाता। तुर्गेनेव तक ने अपना शुरूआती लेखन फ्रांसीसी भाषा में किया था। ऐसा कोई नहीं कहेगा कि फ्रांसीसी रूस की भाषा थी, पर हमारा देश है कि यहाँ अंग्रेज़ी भारतीय भाषा नहीं है कहते ही चिल्ल-पों मच जाती है। जाहिर है कि आर्थिक दृष्टि से जैसा भी हो, मूल्यों की दृष्टि से भारतीय समाज आज भी मुख्यतः सामंती है।हाल के सालों में फासीवाद के उभार में एक ज़रूरी कारण सामंती मूल्यों का वर्चस्व है। संभव है कि विश्व-स्तर पर सूचना लेन-देन की वजह से सौ सालों के बाद अंग्रेज़ी अपने आप एक भारतीय भाषा बन जाए, तो इसमें कोई बुराई नहीं है। पर जिस तरह आज इसे थोपा गया है, इसकी कीमत समाज को चुकानी पड़ रही है। अंग्रेज़ी पढ़ने-लिखने वालों को भाषा का महत्व नहीं मालूम, ऐसा नहीं है। ज्ञान-प्राप्ति के साधनों में भाषा के अहम दर्जे की पहचान उन्हें है। भाषा के महत्व पर सापिर, ह्वोर्फ, वायगोत्स्की से लेकर स्टीवेन पिंकर तक अनगिनत विद्वानों ने लिखा है। पिछली सदी में समाज विज्ञान और दर्शन में ढेरों बड़े शोध भाषा से जुड़े हुए हैं। देरीदा, फूको, हाबेरमास, विटगेन्स्टाइन और लाकान जैसे दिग्गजों ने भाषा के बारे में गहरा चिंतन किया है। सदी के अंत में सबसे बड़े माने गए मनोवैज्ञानिक जाक्स लाकान की सबसे ज्यादा पढ़ी गई उक्ति है - ‘द अनकांशस इज़ स्ट्क्चर्ड लाइक अ लैंग्वेज (अवचेतन की संरचना भाषा की तरह होती है)’। अगर अवचेतन और भाषा के बीच ऐसा गहरा संबंध है तो निश्चित ही मादरी ज़ुबान का महत्व हमारी आम समझ से कहीं ज्यादा है। हमारे देशी विद्वान इनको पढ़ते-पढ़ाते हैं और अंग्रेज़ी में हमें बतलाते हैं कि थोपी गई भाषा मनुष्य के सामान्य विकास में बाधा पहुँचाती है और कई तरह की विकृतियाँ पैदा करती है। बहुत सारी बहस इस पर होती रही है- पिछले सौ से भी ज्यादा सालों में इस पर बहुत कुछ लिखा गया है, इसके बाजूद वे अंग्रेज़ी को चुनते हैं। यह चयन एक तरह का चरमपंथी रवैया है। यह जानते हुए कि देश की आबादी के बहुत बड़े हिस्से को अंग्रेज़ी नहीं आती, यह तय करना कि हम अपना सारा बौद्धिक काम अंग्रेज़ी में करेंगे, जाहिर तौर पर एक ज़िद्दी, अड़ियल और फैनाटिक (चरमपंथी) रवैया है यह और बात है कि अपने आम पाखंडी और सामंती रवैयों की तरह ही वे भारतीय भाषाओं के पक्ष में बोलने वालों को चरमपंथी कहते हैं। समझना मुश्किल है कि ऐसे ज्ञान-पापी रातों को सोते कैसे होंगे। जो कह रहे हैं निरंतर उसके विपरीत आचरण कर रहे हैं।
इसीलिए तमाम विश्व-साहित्य अंग्रेज़ी में पढ़ते हुए भी भारतीय अंग्रेज़ी में लिखा कुछ पढ़ने में मुझे परेशानी होती है, क्योंकि मुझे लगता है कि भारतीय अंग्रेज़ी में लिखने वाले लोग पाखंडी हैं। एक समय था कि भारत में अंग्रेज़ी में पढ़ने-लिखने वाले लोग भारतीय भाषाओं में भी पढ़ा-लिखा करते थे। अज्ञेय से लेकर अमर्त्य सेन, यहां तक कि अंग्रेज़ परस्त नीरद चौधरी तक ने बहुत सारा लेखन अपनी भारतीय भाषा में किया है। पर आज भारत में अंग्रेज़ी पढ़ने-लिखने वालों में अधिकांश अपनी भाषा में लिखा कुछ भी पढ़ते नहीं हैं और लिखने में उनकी काबिलियत नहीं के बराबर हो चली है।
आज यह भारत में ही है कि जनसंख्या के उस विशाल वर्ग पर, जो आधुनिक समय की सुविधाओं से वंचित हैं, बौद्धिक विमर्श ऐसी भाषा में होता है जिसका इस्तेमाल उन्हें वंचित स्थिति में रखने के लिए औजार की तरह किया गया है। भारतीय भाषाओं में विमर्श सीमित होते जा रहा है। जैसे-जैसे संपन्न वर्ग भारतीय भाषाओं से विमुख हो रहा है, आर्थिक कारणों से इन भाषाओं की रीढ़ टूटती जा रही है। मसलन हिंदी क्षेत्र के बड़े केंद्र राजधानी दिल्ली से निकलती दर्जनों हिंदी पत्रिकाओं में से एक भी ऐसी नहीं है जो इस एक शहर के बूते पर चल सके। बिहार, उत्तर प्रदेश, आदि राज्यों के ग़रीब पाठकों के चंदे से या सरकारी मदद से ही ये पत्रिकाएँ चल रही हैं। अंग्रेज़ी पत्रिकाओं को इस दयनीय हाल से नहीं गुजरना पड़ता।
बांग्लादेश जैसे छोटे मुल्कों को यह फायदा है कि वहाँ ज्यदातर लोग एक स्थानीय भाषा में काम चला लेते हैं। तमाम आर्थिक संकटों के बावजूद बांग्लादेश कई मानव विकास आँकड़ों में भारत से आगे बढ़ गया है और कुल मिलाकर उसकी स्थिति भारत के बराबर ही है। पर वहाँ भी अंग्रेज़ी का वर्चस्व कम नहीं हुआ है और अंग्रेज़ी को हटाकर बांग्ला या दीगर और भाषाओं को लाने की कोशिश कमजोर ही है। पाकिस्तान में मुख्य ज़ुबानें अंग्रेज़ी और उर्दू हैं, जो ज्यादातर खल्क की ज़ुबान नहीं हैं। ज्यादातर मानव विकास आँकड़ों में पाकिस्तान भारत से काफी पीछे है। यह देखने की बात है कि इस पिछड़ेपन में भाषा की भूमिका कितनी है।
अंग्रेज़ी थोपने के पीछे संपन्न वर्गों के कई कुतर्क हैं। एक तर्क यह है कि भारत की इतनी सारी विविध भाषाओं में काम कर पाना संभव नहीं है। हम ग़रीब हैं और हमारे पास पर्याप्त संसाधन नहीं हैं। यह झूठ चलता रहता है, जबकि भारत दुनिया में मारक अस्त्रों का सबसे अधिक आयात करने वाला देश है। राष्ट्रीय बजट का एक चौथाई सुरक्षा खाते में जाता है। अगर इस बात को छोड़ भी दें तो भी सवाल यह है कि अंग्रेज़ी के अलावा हम किसी भारतीय भाषा में भी पढ़ते लिखते हैं या नहीं। राज्य स्तर पर स्थानीय भाषा में विमर्श हो और राष्ट्रीय स्तर का विमर्श अंग्रेज़ी में हो, इसमें आज कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। हो यह रहा है कि मुद्दों की गहराई तक जाने के लिए पठनीय या शोध सामग्री ढूँढने वाले अधिकतर लोग अंग्रेज़ी के अलावा कुछ पढ़-लिख नहीं रहे। ऐसा करते हुए उन्होंने खुद को ज़मीनी सच्चाइयों से भी काट लिया है और जब स्थितियाँ अपनी समझ से अलग बिगड़ती हुई दिखती हैं तो उन्हें अचंभा होता है। आखिर इसमें आश्चर्य क्या कि जब बहुसंख्यक लोगों के साथ उनकी ज़ुबान में बातचीत के लिए पोंगापंथियों की भरमार है और समझदार लोगों का अभाव है तो देश में फासीवाद का उभार दिखने लगा है।
क तर्क जो सतही तौर पर ज्यादा वजनदार दिखता है, वह स्थानीय स्तर पर ताकतवर लोगों की भाषाओं का कम ताकत वाले लोगों पर अपनी भाषा लादने के खिलाफ अंग्रेज़ी को खड़ा करने का है। इसका सबसे ज्यादा इस्तेमाल हिन्दी और गैर-हिन्दी ज़ुबानों के बीच के संकट के संदर्भ में होता है। गहराई से सोचने पर इस तर्क का बेमानी होना साफ़ हो जाता है। तमिल या कन्नड़ भाषियों को हिन्दी के खिलाफ खड़ा होना है, हिन्दी थोपने के खिलाफ उनकी लड़ाई वाजिब है और किसी भी हिन्दी प्रेमी को यह बात समझ में आनी चाहिए। पर क्या इसलिए कि उन्हें अंग्रेज़ी चाहिए? जब हम अपनी ज़ुबान में तालीम की बात करते हैं, इसका मतलब सही अर्थ में अपनी ज़ुबान होना चाहिए। भोजपुर क्षेत्र के बच्चे को भोजपुरी में, बुंदेलखंड के बच्चे को बुंदेली में और कबीलाई इलाके के बच्चे को उसकी अपनी ज़ुबान में तालीम मिलनी चाहिए। संस्कृतनिष्ठ शब्दावली को हिन्दी कहकर थोपने से हिन्दी का विरोध बढ़ेगा और यह विलुप्ति की ओर और तेजी से बढ़ेगी। यानी लड़ाई अपनी ज़ुबान के पक्ष में होनी चाहिए, न कि अंग्रेज़ी के लिए। एक स्थानीय ज़ालिम से बचने के लिए बाहरी और भी बड़े ज़ालिम को लाने का तर्क क्या मायने रखता है!
अंग्रेज़ी के पैरोकारों में अगर कोई लड़ाई काफी हद तक सही है तो वह दलित बुद्धिजीवियों की लड़ाई है। इसमें कोई शक नहीं कि हिंदुस्तानी ज़ुबानें दलित अनुभवों और अभिव्यक्ति को उचित जगह देने में नाकाम रही हैं। पर इसका भी हल अपनी ज़ुबानों में जगह ढूँढने की लड़ाई होनी चाहिए न कि अंग्रेज़ी में। दलित बुद्धिजीवियों की पीड़ा गहरी है और उसे नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता है। पर साथ ही हमें अमेरिका के काले लोगों या वहाँ के मूल निवासियों से सीख लेनी चाहिए कि उत्पीड़कों की भाषा सीख कर हम आज़ाद नहीं हो जाते। जो भी थोड़ी बहुत नस्ली बराबरी उन मुल्कों में आई है, वह संघर्षों से आई है। यूरोपी साहित्य और दर्शन नस्लवादी सोच और भेदभाव से भरा हुआ है। इसलिए यह मान लेना कि अंग्रेज़ी सीख कर भारत के दलित मनुवाद से आज़ाद हो पाएँगे, ही नहीं लगता है। बेशक आज अंग्रेज़ी ज़ुबान सत्ता और संपन्नता की ओर ले जाती है। पर कितने दलित बच्चे हाई स्कूल तक पहुँच पाते हैं? आज प्राथमिक स्तर पर स्कूल में भर्ती हुए 100 बच्चों में से सिर्फ 18 ही हाई स्कूल तक पहुँचते हैं। असफलता के कई कारणों में भाषा मुख्य है। ज्यदातर बच्चे अंग्रेज़ी और गणित में ही फेल होते हैं। इसलिए दलित बुद्धिजीवियों को इस बात पर और गहराई से सोचना होगा।
देश के अधिकतर लोग टीवी देख कर अंग्रेजी की गुटर-गूँ सुन तो लेते हैं पर उन्हें यह भाषा समझ नहीं आती। अंग्रेज़ी में वंचितों के पक्ष में प्रखर भाषण दे रहा विद्वान उनके लिए कुछ तो मनोरंजन का पात्र है, और कुछ अवचेतन में पलते आक्रोश का कारण। यही आक्रोश आखिर फासीवादी विकृतियों में बदलने में मदद करता है। मजेदार बात यह है कि अंग्रेज़ी वाले यह सोचते हैं कि उनकी बहसों को देश गंभीरता से ले रहा है। अरे! जो अंग्रेज़ी समझता ही नहीं, वह इस गुटर-गूँ को क्या समझेगा। भाषा सिर्फ भाषा नहीं होती, हम जो भाषा बोलते हैं, वही हमें परिभाषित करती है। सापिर-ह्वोर्फ ने भाषाई निश्चितता का सिद्धांत दिया था, कि भाषा के अलावा हमारे अस्तित्व में और कुछ अर्थ ही नहीं रखता, जिसे हम दुनिया मानते हैं, उसे भाषा ही हमारे लिए बनाती है - यह शायद कुछ अतिरेक ही था; पर उसके बाद भी तमाम भाषाविदों ने बार-बार चेताया है कि भाषा ही जैविक विकास का सबसे महत्वपूर्ण पहलू है। हमारी विश्व-दृष्टि, जीवन के प्रति हमारा नज़रिया, इनके साथ भाषा का गहरा संबंध है। हम अपनी बात को औरों तक पहुँचाने, सही-ग़लत के बारे में अपनी समझ साझी करने के लिए भाषा का इस्तेमाल करते हैं। यह अकारण नहीं है कि मोदी की भाषा हमारी सांप्रदायिक अस्मिता को जगाने में सफल हो जाती है और गाँधी से लेकर वाम के तमाम समूहों का विमर्श जिसमें लगातार अंग्रेज़ी बढ़ती जा रही है, बड़ी संख्या में लोगों को मुश्किल से छू पा रहा है। खासतौर पर उत्तर भारत में जहाँ तथाकथित मानक हिन्दी भी लोकभाषाओं से बहुत परे है (ज़बरन), यह देखने वाली बात है कि वहीं पिछड़ापन सबसे ज्यादा है और नफ़रत की राजनीति वहीं सबसे ज्यादा सफल हुई है।
यह दुनिया तरह-तरह के संकटों और विरोधाभासों से भरी है। ऐसे में सोचने वाले लोगों के लिए यह ज़रूरी है कि हम ताकतवरों और कमजोर को पहचानें और कमज़ोर लोगों के पक्ष में बात रखें।
जो लोग देश के सामान्य जन पर बात करते हैं और किसी भी भारतीय भाषा में पढ़ते लिखते नहीं हैं, उन्हें खारिज करना जरूरी है, क्योंकि देश में फासीवाद के उभार का एक कारण वे खुद हैं। कई तो ऐसे हैं कि सिर्फ अंग्रेज़ी में हल्का-फुल्का लिख कर ही स्व-घोषित पंडित बने घूमते हैं। वह कुछ भी कहते हैं तो अंग्रेज़ी मीडिया उसे उछालता है। देशी भाषाओं में मीडिया का प्रबंधन ऐसे ही लोगों के हाथ होने के कारण अक्सर इन भाषाओं की पत्र-पत्रिकाओं में अंग्रेज़ी का पिछलग्गूपन दिखता है। कई हिंदी पत्रिकाओं का नाम अंग्रेज़ी में है, वो भी ऐसे लफ्ज़ जो आम आदमी नहीं समझता। सौ साल बाद समाज-शास्त्री और संचार विज्ञान के शोधार्थी इस पर काम करेंगे कि आज का भारतीय बुद्धिजीवी किस तरह की कृत्रिम दुनिया में जी रहा है और इसके कारणों में भाषा का सवाल कितना महत्वपूर्ण है। अंग्रेज़ी लचीली भाषा है, अंग्रेज़ी की शब्दावली बड़ी है; स्वाभाविक है कि अंग्रेज़ी के शब्द भारतीय भाषाओं में आ रहे हैं - यह सब तो ठीक है, पर जो खलिश है, वह यह है कि बकौल गाँधी 'अंतिम जन' को उसकी अपनी भाषा में बात करता कौन दिखता है। जैसे-जैसे विमर्श की धुरी अंग्रेज़ी की तरफ होती चली है, भारतीय भाषाओं में तकनीकी शब्दों का संकट भी बढ़ता चला है। आम आदमी ही नहीं बुद्धिजीवियों के लिए भी ये भाषाएँ कठिन होती जा रही हैं और उनके विमर्श में भागीदारी करने वालों का दायरा भी सिमटता जा रहा है। कुल मिलाकर एक अजीब स्थिति है, जिसे कई लोग भारत और इंडिया के दो समांतर दुनिया का नाम देते हैं। देशी भाषा में बातें करते हुए अगर हम महज अंग्रेज़ी का अनुवाद ही कर रहे हैं, तो वह भारत की नहीं, इंडिया की ही भाषा है। धीरे-धीरे भारत कमजोर पड़ता जा रहा है, चुनांचे वह फासीवादियों के चंगुल में फँसता जा रहा है। कई लोग कहेंगे कि यह रैखिक युग्मक (बाइनरी) में फँसी हुई सोच है, पर सचमुच मनोवैज्ञानिक दृष्टि से यह जटिल और साथ ही सामाजिक घटना के रूप में बड़ी सरल सी बात है। अंग्रेज़ी सीखना या बोलना अपने आप में कोई दोष नहीं है, पर भारतीय सामाजिक-राजनैतिक परिदृश्य में कई अंग्रेज़ी वाले एक अलग सत्ता अपना लेते हैं। यह इंग्लिशवाला होना अपने साथ देशी भाषा के प्रति उदासीनता ही नहीं, उपेक्षा का स्वभाव लिए होता है। इंग्लिशवाला होना शासक वर्गों के साथ होना है, आम लोगों से अलग होना है। समझदार लोग भी विमर्श के लिए अंग्रेज़ी को चुनें, तो आम लोगों तक पहुँचने के लिए कौन बचा रहेगा? जब तक ज़मीनी ज़ुबान में सामाजिक विसंगतियों के खिलाफ प्रतिबद्ध सोच रखने वाला कोई है तो ठीक है, जब शासन की मार या अन्य कारणों से ऐसे लोग नहीं हैं तो मैदान संकीर्ण राष्ट्रवाद के लिए खुला है। भाषाओं का कमज़ोर होना सिर्फ मुहावरों का विलुप्त होना नहीं है, यह सामूहिक और निजी अस्मिता का घोर संकट पैदा करता है। इस संकट से निपटने के कई तरीके हो सकते हैं - एक तो यह कि हर स्तर पर स्थानीय भाषाओं में काम हो, कम से कम माध्यमिक स्तर तक शिक्षा मातृभाषा में हो। इसके विपरीत फासीवाद वह मरीचिका है जो सामयिक रूप से उत्पीड़ित इंसान को इस ताकत का आभास देती है कि मेरी बोली में ताकत न हो न सही, पर अपनी भी कोई हस्ती है। जब भाषा में बिखराव होता है, जैसा कि आम लोगों पर बोलते हुए अँग्रेज़ीदाँ विशेषज्ञों में दिखता है, तो वह सतही रह जाती है और सवालों का हल नहीं दे पाती। फासीवादी संगठनों में समकालीन विमर्श एकतरफा होता है और उनके अधिकतर कार्यकर्त्ता देशी भाषाओं में पारंगत होते हैं। इस तरह फासीवाद अपनी जड़ें जमाने में सफल होता है।
अक्सर लोग हिन्दी की बात करते हुए ऐसी मानक भाषा की बात करते हैं, जो पूरे हिन्दी क्षेत्र में एक जैसी लागू होती है। इसके पीछे एक तरह के राष्ट्रवाद की भावना काम कर रही होती है। राष्ट्र-राज्य की धारणा जहाँ से आई है, उस यूरोपी भूखंड के लोग इस बात को समझ गए हैं कि राष्ट्रीय अस्मिता से इंसान का भला कम और नुकसान ज्यादा हुआ है, इसलिए वे संस्कृति-बहुल मानवीय अस्मिता पर अधिक जोर देने लगे हैं। मानव के सर्वांगीण विकास के लिए जो कुछ जरूरी है, उसमें उसकी अपनी भाषा प्रमुख है। मैं मानता हूँ कि हिन्दी के लिए इससे बड़ी चुनौती और कुछ नहीं कि हम खुले दिमाग से इसके बहुभाषी स्वरूप को स्वीकार करें। मानकीकरण के बिना तरक्की संभव नहीं, इस ग़लत धारणा को जड़ से उखाड़ना होगा। अगर हिन्दी को एक सशक्त भाषा बने रहना है, तो उसे अपनी इस ताकत को समझना होगा कि इसमें हिन्दी प्रदेशों में बोले जाने वाली सारी भाषाएँ समाहित हैं। इसका मतलब यह हुआ कि न तो हम भोजपुरी, अवधी, बुंदेली आदि तमाम भाषाओं को हटाकर मानक हिन्दी को प्रतिष्ठित करने की कोशिश करें और न ही उन भाषाओं को हिन्दी की बोलियाँ कहें। संस्कृत से लिए गए तत्सम शब्दों का इस्तेमाल ग़लत नहीं है, पर पहली ज़रूरत यह है कि स्थानीय भाषाओं में बोले जाने वाले शब्दों को अधिक से अधिक जगह दें, इसी तरह फारसी-अरबी से लिए गए शब्दों का इस्तेमाल ठीक है, पर ज़बरन उन्हें न थोपा जाए। कोई नुक्ता नहीं लगाता है तो इसे बड़ा मुद्दा न बनाया जाए- आखिर कितने नुक्ते लगाने पर 'जाकिर' कहने वाले से हम '़ाकिर' कहला सकते हैं? यह विड़ंबना ही है कि आज ज्यादातर लोग यही नहीं समझ पाते हैं कि हिन्दी, उर्दू, हिन्दुस्तानी दरअस्ल एक ही ज़ुबान है और इसमें तत्सम और अरबी-फारसी लफ्ज़ों के इस्तेमाल की अलग-अलग तहज़ीबें हैं, जिन्हें हम हिन्दी या उर्दू कहते हैं। फिरकापरस्ती के नज़रिए से भाषा को बाँटकर ऐसा ज़हर फैलाया गया है कि यह मान ही लिया गया है कि ये अलग ज़ुबानें हैं। इसका बस इतना फायदा हुआ है कि उर्दू की तहज़ीब को कूढ़मगज संस्कृतवादियों से बचा कर रखना मुमकिन हो पाया है। हो सकता है सबने एक ज़ुबान मान लिया होता तो दो पीढ़ियों में ही उर्दू खत्म हो गई होती। कई इस बात पर अटक जाते हैं कि हिन्दी और उर्दू के अलग खुशख़त हैं। सही है, पर लिपि से भाषा तय नहीं होती है। आज़ादी के वक्त 12% साक्षरता थी। हिन्दी प्रदेश में इससे भी कम रही होगी। यानी 10% लोग ही लिखने की काबिलियत रखते थे। पर भाषा सौ फीसद लोगों की होती है। जैसे एक ही लिपि होने से हिन्दी, मराठी और नेपाली एक भाषा नहीं बन जाते, उसी तरह अलग लिपि का होना हिन्दी और उर्दू को अलग ज़ुबान नहीं बनाता है।
मैं लंबे अरसे से तकनीकी विषयों में ज़बरन थोपी गई तत्सम शब्दावली के खिलाफ बोलता-लिखता रहा हूँ। हिन्दी का जितना नुकसान उन पोंगापंथियों ने किया है जो संस्कृत के कृत्रिम शब्दों को विज्ञान आदि विषयों में डालते रहे हैं, इतना शायद ही किसी ने किया हो। आज हिन्दी प्रदेश में विरला ही कोई वैज्ञानिक होगा, जो हिन्दी में अपने विज्ञान-कर्म पर व्याख्यान दे सकता हो आज के जमाने में जिस भाषा में विज्ञान और तक्नोलोजी पर बातचीत न हो सके, वह भाषा कब तक टिकेगी? यह बात कमोबेश सभी भारतीय भाषाओं पर लागू होती है। पंजाबी जैसी ज़ुबानें इसलिए ज़िंदा रह गई हैं और कछ मायनों में पुरजोर बुलंदी पर हैं, कि उनमें अक्सर बोलचाल के लफ्ज़ों को तकनीकी शब्दावली के लिए इस्तेमाल में लाया गया है।
यह सही है कि वैज्ञानिक शब्दावली के लिए सटीक शब्द ढूंढने पड़ेंगे, पर ये शब्द पहले लोक-जीवन से आएँ और धीरे-धीरे उनमें सफाई की जाए तो समस्या नहीं आती। आज हिन्दी में साइंस की तालीम और चर्चा के लिए अंग्रेज़ी शब्दों का कोई विकल्प नहीं बचा है। हममें से कई लोग मजबूरी में अंग्रेज़ी का इस्तेमाल करते हैं, पर अधिकतर मान चुके हैं कि अंग्रेज़ी के बिना अब कोई राह नहीं। यह बड़ी विड़ंबना है। एक समय था जब तमाम मुसीबतों के बावजूद फारसी और संस्कृत तक में समकालीन यूरोपी कृतियों के अनुवाद उपलब्ध होते थे। होना यह तय था कि समय के साथ इन शास्त्रीय भाषाओं के अलावा बोलचाल की भाषाओं में सामग्री उपलब्ध हो। और तकनीकी तरक्की से यह काम आसान भी होता गया है। पर जापान, चीन के बरक्स हमारे यहाँ बहुत कम ही लोग इस तरह के शोध या तकनीकी-विकास में लगे हैं, जिससे एक से दूसरी भाषाओं में अनुवाद का काम आसानी से हो सके।
जो समस्या विज्ञान तक सीमित होनी चाहिए थी, वह धीरे-धीरे समाज-विज्ञान तक फैल गई है। अब स्थिति ऐसी है कि हिन्दी प्रदेशों का हर बुद्धिजीवी अंग्रेज़ी में लिखे विमर्श को पढ़ता है। सिर्फ भाषा और साहित्य के साथ सीधे-तौर पर जुड़े लोग ही हिन्दी में लिखी सामग्री कभी-कभार पढ़ लेते हैं। इससे एक तो हिन्दी में समकालीन विमर्श के दायरे सिकुड़ते जा रहे हैं और दूसरी ओर कम पढ़कर ज्यादा और ग़लत बोलने वालों की संख्या बढ़ती जा रही है।
तो आखिर समाधान क्या है? यह संभव नहीं है कि हम अंग्रेज़ी का बहिष्कार करने की मुहिम चलाएँ। ऐसा करना बचकानी बात होगी, पर यह ज़रूर है कि हम इस बात को समझें कि इंसान का पूर्ण विकास तभी संभव है जब उसे तालीम अपनी जुबान में मिले। अंग्रेज़ी पढ़ाई जाए - जहां ज़रूरत है, जैसे मिडिल स्कूल से अंग्रेज़ी को एक विषय की तरह पढ़ाया जाए तो इसमें कोई हर्ज नहीं। पर दुनिया भर में शिक्षाविद् जो कहते हैं हम उसे सुनें - किसी दूसरी भाषा को सीखने के लिए पहले अपनी भाषा में महारत होनी ज़रूरी है।
भाषा की लड़ाई ज़िंदा रहने की लड़ाई है। देश के अधिकतर लोगों का अंग्रेज़ी से कुछ लेना-देना नहीं है। यह आवाज उठाई जानी चाहिए कि सारी स्कूली शिक्षा मुफ्त और अपनी जुबान में हो। तकनीकी विषयों की किताबों का हिंदुस्तानी ज़ुबानों में अनुवाद अब आसानी से किया जा सकता है - अव्वल तो स्कूली शिक्षा के लिए पर्याप्त किताबें उपलब्ध हैं और जो कुछ और चाहिए, कंप्यूटरों की सहायता से वह आसानी से उपलब्ध हो सकता है।

अपनी ज़ुबान में तालीम के लिए लड़ाई देशभर में चल रही है। अखिल भारतीय शिक्षा अधिकार मंच, जिसका मुख्य कार्यालय भोपाल में हैं, के नेतृत्व में चार साल पहले शिक्षा संघर्ष यात्राओं का आयोजन किया गया था, जिसमें दसों हजारों लोंगो ने हिस्सा लिया था। इस मंच ने शिक्षा में निजीकरण के खिलाफ भी मुहिम छेड़ी हुई है। आज सरकारें सुनियोजित ढंग से सरकारी स्कूली शिक्षा को तबाह कर निजी संस्थाओं को बढ़ावा दे रही है, जो अंग्रेजी में शिक्षा देने का दावा करते हैं। इन निजी स्कूलों में से अधिकतर में शिक्षा का स्तर बहुत घटिया होता है और यहाँ से बच्चे नाकाबिल होकर ही निकलते हैं। इसलिए यह जरूरी है कि सरकारी स्कूली शिक्षा को मजबूत किया जाए और वहाँ अंग्रेज़ी को एक विषय की तरह पढ़ाया जाए और शिक्षा का माध्यम स्थानीय भाषा हो। प्राथमिक स्तर की तालीम में अंग्रेज़ी के होने का कोई मतलब ही नहीं है। देशभर में आधे-बच्चे प्राइमरी स्कूल से आगे पढ़ ही नहीं पाते। यह ज़रूरी है कि अपनी जुबान में तालीम पाकर वे आगे पढ़ने के लिए प्रोत्साहित हों।
यह भारत के लोगों की बदकिस्मती है कि उनकी नियति ऐसे लोगों के हाथ में है जो भाषा को राष्ट्रवाद और मुनाफाखोरी के पाटों के बीच फंसाए हुए हैं। अगर हम सचमुच भाषाओं को ज़िंदा रखना चाहते हैं, तो हमें इंसान को ज़िंदा रखने के लिए लड़ना होगा। संस्कृतवादियों और अंग्रेज़ीवादियों- दोनों से ही हमें अपनी भाषाओं को बचाना होगा, तभी भाषाओं का भविष्य बना रहेगा, अन्यथा हम यह मानकर चलें कि हमारी भाषाएँ हमसे छीन ली जाएंगी, जैसे हमारे प्राण हमसे छीन लिए जाएँगे।

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हार्दिक आभार और खूब बधाई, इस पुरजोर लेख के लिए। राहुल सांकृत्यायन का लेख 'मातृभाषाओं का महत्व' आज फिर याद आया। आप की चिन्ता बहुत जरूरी चिंता है। साहित्य की दुनिया मे जितने प्रगतिशील दिखते है उनमें से एक आध ही भाषा के मामले में प्रगतिशील दिखे। यह बात मैं डंके की चोट पर कह रहा हूँ कि हिंदी साहित्य में राहुल सांकृत्यायन के बाद भाषा की नीतियों में दूसरा प्रगतिशील नाम लाल्टू का है।

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