Tuesday, August 27, 2013

मैं कच्ची नहीं पीता


'पाखी' पत्रिका के अगस्त अंक में मेरी चार कविताएँ आई हैं, उनमें से एक का शीर्षक है 'आतंक'। कविता में एक पंक्ति है - 'बरामदे में पीते हुए कॉफी/कल्पना करता हूँ '। किसी कारण से यह 'बरामदे में पीते हुए कच्ची/कल्पना करता हूँ' छप गया है। पूरी कविता नीचे पेस्ट की है। 'कच्ची' मैंने कभी पी नहीं, इससे भी ज्यादा महत्त्वपूर्ण बात यह कि मैं कच्ची पीकर खुद को डी-क्लास करने वालों में से नहीं हूँ। मेरे पिता, जिन्हें हम बापू कहते थे, कभी-कभी कच्ची पीते थे। उसके बाद घर में तबाही का माहौल रहता। इसलिए कच्ची तो क्या उम्दा महँगी दारू पीने में भी मुझे काफी समय लगा। और नशे में हमेशा सज्जनता बनाए रखने का दावा भी मैं नहीं कर सकता। दूसरों पर शराब का जो असर देखता हूँ वह भी प्रेरणादायक तो नहीं है। तो आम तौर पर नशाखोरी से मुझे समस्या है। पर जो छप गया वो छप गया। संपादक जी को मैंने यही लिखा कि उस साथी को धन्यवाद कि जिसने मुझे यह दरज़ा दे दिया, पर जो लिखा नहीं वह यह कि शक होता है कि साथी खुद 'कच्ची' के असर में टाइपिंग या प्रूफ रीडिंग न कर रहे हों।

आतंक

काले बादल घिर आए हैं
ठंडी हवा के साथ हल्की सी छींटें
बदन छू गई हैं

बरामदे में चहलकदमी करता
सोचता हूँ
कुछ तो होगा

कुछ तो होगा
कहने लायक

सचमुच कुछ नहीं बचा क्या
सोचकर कुछ ढूँढ हूँ लाता
ग़र्मी से परेशान लोगों को सावन
किसान की आँखों में चमक

कोशिश कर याद कर ही लेता हूँ
अपना मुहावरा
कि आज की बारिश में कल की बारिश है

पर सचमुच क्या बच पाता हूँ
सब कुछ निगलते आ रहे विशाल शून्य से
व्याकुल हूँ कहीं कोई समझा जाए
कि एक स्त्री का बलात्कार होता है
बच्चे की हत्या होती है कैसे
रचा जाता कैसे
हिंसा का सौंदर्य पन्ने दर पन्ने
आतंकित ढूँढता हूँ नए मुहावरे

बरामदे में पीते हुए कॉफी
कल्पना करता हूँ
कि अभी कुछ साल पहले तक यहाँ घनी बस्ती थी
लोग शाम ढले घरों में सोते थे
बच्चों को माँएँ लोरियाँ सुनाती थीं
वयस्क रति-ध्वनियाँ रात की परियों को चौंकाती थीं
कैसे लिखी जाती हैं उन लोगों की कहानियाँ
जो बस उजड़ गए

ठंडी हवा के साथ हल्की सी छींटें
बदन छू गई हैं
और मेरे पास कहने को कुछ नहीं है।

1 comment:

प्रदीप कांत said...

कैसे लिखी जाती हैं उन लोगों की कहानियाँ
जो बस उजड़ गए
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काश ये हुनर हम में आ जाए