वक़्त की पीर बखानती कविताएँ : मंगलेश डबराल
वक़्त की पीर बखानती कविताएँ
कविता की पहचान दरअसल उन संकटों की पहचान है, जिन्हें कवि और कवि का समय जीता है। अपने बारे में अनिश्चितताओं, दुनिया में जगह पाने की जद्दोजहद और उपनिवेशवाद और निजी और सामाजिक विस्थापन के स्थायी प्रभाव इन संकटों को गढ़ते हैं। कविता इन तजुर्बों की तड़प है। मंगलेश डबराल की कविताओं में हम इसी तड़प को ढूँढते हैं, जो ज़बान के लचीलेपन के साथ अर्थ की खोज के लिए हमें परेशान करती है। अपनी बात कहने के लिए मैं दो कविताओं का पाठ पेश कर रहा हूँ। दोनों कविताएँ 1995 में प्रकाशित ‘हम जो देखते हैं' संग्रह में संकलित हैं। संग्रह की सभी कविताएँ कवि के तरक़्क़ीपसंद सियासी ख़यालों से ओतप्रोत हैं, पर मेरा मक़सद इन बातों से अलग वक़्त की उस पीर को ढूँढना है, जिसे हम साथ जीते रहे हैं। पहली कविता 'गुमशुदा' है, जिसे मैं अक्सर पढ़ता हूँ, और हर बार इसे पढ़ते हुए कोई अलग तस्वीर आँखों के सामने देखता हूँ।
पिछली सदी में रेडियो और दूरदर्शन पर गुमशुदा लोगों, खासकर बच्चों पर, रोज़ाना ऐलान होता था। बड़ी जनसंख्या में कुछ लोग किसी न किसी वजह से ग़ायब होते ही रहते हैं। उनके घर वाले उनकी तलाश में परेशान रहते हैं। पुलिस और संचार माध्यमों तक पहुँच रखने वाले लोग ऐलान करवा लेते हैं। कई लोग गुम हुए शख्स की तस्वीर चिपका कर पोस्टर बनवा कर बस अड्डों, रेलवे स्टेशनों या दीगर आम जगहों पर चिपका देते हैं कि किसी को पता चले तो वह गुम हुए शख्स के परिवार तक खबर पहुँचा दे। अभिधा में कविता की शुरूआत इसी बात से होती है, पर गौरतलब बात यह कि पहली लाइन का तीसरा शब्द 'पेशाबघरों' है, यानी पोस्टर कहाँ चिपके हैं, बस अड्डे, रेलवे स्टेशन जैसे मुख्य जगहों की बात न कर 'शहर के पेशाबघरों' की बात की गई है, जो पहली नज़र में या आम पाठक को भद्दा लग सकता है, जैसा कि बच्चों के साथ होती यौनिक हिंसा पर कविता पढ़ किसी नासमझ समीक्षक ने कभी लिखा था कि कविता कहाँ है, जुगुप्सा है। वाक़ई जुगुप्सा है, पर और बहुत कुछ है, जिसे महज आँखों से पढ़कर ज़ेहन में फेंक-पटक देने से कविता का मर्म ग़ायब रहता है। पेशाबघर की बदबू और गंदगी से शुरूआत कर रहा कवि हमें समाज की इस भयंकर गंदगी के प्रति सचेत कर देता है, जो उसे और साथ ही हमें रुलाती है। हम रोते हैं कि ताज़िंदगी समाज में बेहतरी के जो ख़्वाब हम पालते रहे, जिनके लिए तरह-तरह के गीत हमने गाए, जुलूसों में शामिल हुए, उनका क्या हश्र हुआ! बाक़ी 'अन्य लोकप्रिय' जगहें जहाँ पोस्टर चिपके हैं, बात उन्हीं की होती तो हमारे नथुनों में वह बू न रेंगती, जो हमें इस बात से तड़पाते हैं कि '... पोस्टर / अब भी चिपके दिखते हैं'।
अब भी - यानी 'दस या बारह साल की उम्र में / बिना बताए घरों के निकले' पता नहीं कब से निकले हुए हैं, कितने सालों, कितनी सदियों से निकले हुए हैं। जाने कब से ज़ुल्म के पहाड़ ढोते लाचार लोग, दबे-कुचले लोग, अपने घर-परिवार से ग़ायब हैं। वे हैं, कहीं तो वे हैं, जैसे हमारे ख़्वाब हैं, हक़ीक़त से टकराते अपनी निजी ज़िंदगियों में अपने अकेले अँधेरे वक़्तों में रोते बिलखते हम हैं।
समाज का बड़ा हिस्सा सामान्य सुविधाओं से हमेशा वंचित था, और है। धूप-पानी में कामगारों की ज़िंदगियाँ बिताते इन लोगों के जिस्मों पर चमड़ी गोरी नहीं हो सकती। उन्हें इतना पोषण नहीं मिलता कि वे कुदरती शक्ल पा जाएँ। उनके पैरों में सस्ते जूते तक नहीं हो सकते, ग़नीमत कि हवाई चप्पल ईजाद हुई। शक्ल चिकनी नहीं हो सकती, खुरदरेपन के बीच चोट दिखनी लाजिम है। ये जो बातें हम पोस्टर पर पढ़ सकते हैं, निहायत गद्यात्मक हक़ीक़त हैं, पर कविता में कही जानी चाहिए, जैसे कि कभी मुक्तिबोध ने कहा कि 'कविता में कहने की आदत नहीं, पर कह दूं, ...’ और यह कहन हमें अचानक ही झकझोर जाता है। 'उनकी माँएँ' जो 'उनके बग़ैर रोती रहती हैं' हमें अपनी माँओं की याद दिलाती हैं और हम काँप उठते हैं।
कविता एक पहेली की तरह यहाँ पहुँचती है कि पोस्टरों में 'अब भी दस या बारह लिखी होती हैं उनकी उम्र'। यह कैसे हो सकता है कि 'लगातार अपने पते बदलते / सरल और कठिन दिनों को एक जैसा बिताते ... / कुछ कुतूहल के साथ' परेशान माता-पिता के जब-तब छपवाते अपनी गुमशुदगी के पोस्टरों में अब भी दस या बारह लिखी होती हैं उनकी उम्र! जाहिर है कि वक़्त के साथ उनकी उम्र में बढ़त से उनके माँ-बाप तो अंजान नहीं हैं। महज समाज-शास्त्र से अलग धरातल पर पहुँचने की यही कोशिश है जो कविता है। इस पहेलीनुमा बात को हम सवाल की तरह पढ़ सकते हैं कि आखिर क्यों गुमशुदगी की हक़ीक़त मुसलसल बनी रही है। और इस पर सोचते हुए हम वीरेन डंगवाल की तरह सोचने लगते हैं कि 'हमने यह कैसा समाज रच डाला है / ... वह क़त्ल हो रहा, सरेआम चौराहे पर / निर्दोष और सज्जन, जो भोला-भाला है / किसने आख़िर ऐसा समाज रच डाला है'। एकबारगी हमें सोचना पड़ता है कि क्या और कौन गुम है। क्यों गुम है? पोस्टर लगते रहेंगे, पर हन कब जानेंगे कि हमारी आत्माएँ गुम हो चुकी हैं।
दूसरी जिस कविता की ज़िक्र मैं कर रहा हूँ, वह है 'बच्चों के लिए चिट्ठी'। यह गद्य कविता है। कविता के नज़रिए से देखें तो कहीं-कहीं शब्दों का अतिरेक दिखता है। पर सिर्फ यह देखना एक संकीर्ण नज़रिया होगा। बच्चों पर हम सबने कविताएँ लिखीं हैं। बच्चों से बहुत कुछ कहा जाता है। तेज़ी से बदलती दुनिया में उन्हें इन तेज़ बदलावों से निपटने के क़ाबिल बनाने की फ़िक्र हर पल हम पर हावी रहती है। अनिश्चितताओं और संभावनाओं से भरी दुनिया में वे कैसे भरपूर इंसान बनें, यही हमारी पहली चिंता होती है। बच्चों को भविष्य के बारे में हम क्या कह सकते हैं? यह हाल की पीढ़ियों में ही हुआ है कि बच्चों से हमारी अपनी बेबसी पर सीधे बात करने की तड़प सामने आई है, क्योंकि हम नहीं जानते कि हम उनको कैसी दुनिया में छोड़ जाएँगे। आज जब हर दिन गज़ा में बच्चे क़त्ल हो रहे हैं, और हमारे मुल्क़ की सरकार ने इससे आँखें मूँद ली हैं, सोचना लाजिम है कि बच्चों से हम क्या कह सकते हैं? जो दुनिया उन्हें विरासत में मिलेगी, उसमें सकारात्मक, आशावादी क्या है? यूसुफ इस्लाम, जो अपनी जवानी में कैट स्टीवेन्स कहलाते थे, ने अपने एक मशहूर गीत में पूछा था कि I know we've come a long way / We're changing day to day / But tell me, where do the children play? – सही कि हम कहीं आगे बढ़ आए हैं / हर दिन तेज़ी से बदल रहे हैं / पर यह तो बता कि बच्चों के खेलने की जगह कहाँ बची है?’ फिर भी हम कवि के साथ सुर मिलाकर उनसे कहते हैं कि 'जीवन एक उत्सव है जिसमें तुम हँसी की तरह फैले हो। जीवन एक हरा पेड़ है जिस पर तुम चिड़ियों की तरह फड़फड़ाते हो।' पर यह कहने के पहले मंगलेश रुदन से नहीं बच पाते हैं। कविता की शुरूआत ही यहाँ से है कि 'हम तुम्हारे काम नहीं आ सके।' उनके जुनून की पहचान करते हुए भी हम उनके कुदरती विकास को नकारते रहे, क्योंकि जो दुनिया हमने बनाई है, वहाँ हम खुद चुनौतियों को स्वीकार करने में नाक़ामयाब रहे हैं। हमने खुद से झूठ बोलने में महारत हासिल कर ली है। हम सीनापीटू नारे उछालने में क़ाबिल हो गए हैं, पर वाक़ई हमारे पास कोई सपना बचा है या नहीं, हम खुद नहीं जानते। बच्चे हमें वापिस अपने कुदरती सत्ता में ले जाने की लगातार कोशिशें करते हैं, पर हम उन्हें सही-ग़लत, ठीक-बेठीक, ऊँच-नीच, बायाँ-दायाँ, आदि लफ्ज़ों में उलझाए रखते हैं। इसका असर ताज़िंदगी रहता है। बच्चे बड़े होकर नफ़रत और मारकाट की दुनिया में अपनी जगह बनाने के लिए जद्दोज़हद में लग जाते हैं। स्नेह और प्यार का आत्म-विश्वास धीरे-धीरे ग़ायब हो जाता है। मनोविज्ञान में थीओरी-थीओरी या सिद्धांत-सिद्धांत नामक एक ख़याल है, जिसके मुताबिक बच्चे कुदरती तौर पर से जो कुछ देखते-जानते हैं, वह सब समझने-समझाने के लिए ज़ेहन में सिद्धांत गढ़ते रहते हैं। हर इंसान ऐसा करता है, बच्चों में यह बात ज़्यादा अहम है, क्योंकि उन्हें अपने तजुरबों के आधार पर अपनी दुनिया बनानी होता है। आखिर हम बड़े उन्हें क्या सिखा रहे हैं! यह वाजिब फ़िक्र है और कवि इसे हमारे साथ साझा कर रहा है।
हिंदुस्तानी ज़बान में, और वह भी ऐसी ज़बान में, जिसका इलाक़ा देश में सबसे ग़रीब है, जहाँ बमुश्किल ज़्यादातर बच्चे पहली कक्षा में बस नाम दर्ज़ करवा लेते हैं और आधे से अधिक मिडिल स्कूल से आगे नहीं जा पाते, कवि बच्चों से क्या कहे? यही पीर राजेश जोशी ने कभी 'बच्चे काम पर जा रहे हैं' कविता में बयां की थी। राजेश परेशान हैं कि कि कैसे हो सकता है कि सब कुछ हस्बमामूल है, जब बच्चे काम पर जा रहे हैं, जबकि उनको तो खेलना है, तालीम लेनी है। मंगलेश की बेचैनी भी इसमें है कि हम छोटी उम्र में ज़िंदगी की ज़द्दो-ज़हद में उलझा कर बच्चों से उनका बचपन छीनते हैं। वह हम सब की ओर से बेइंतहा लाचारी के साथ स्वीकार करते हैं कि हमसे भयंकर ग़लती हुई है कि हमने बच्चों को ज़िंदगी की बेरहम सच्चाइयों में धकेल फेंका। 'मारकाट और विलाप' से वापस बच्चों को लिए चलते हैं ऐसे जीवन में जो 'उत्सव है जिसमें तुम हँसी की तरह फैले हो।' साथी कवियों की ओर से बच्चों के मुखातिब हो कवि कहता है कि 'जीवन एक उछलती गेंद है और तुम उसके चारों ओर एकत्र चंचल पैरों की तरह हो।' कविता से अलग कवि की बेचैनी आखिरकार कविता पर हावी हो जाती है कि सच वाक़ई ऐसा नहीं है, सच विकराल नाग सा हमें निरंतर निगल रहा है, और कुछ जानकारी और कुछ आह्वान की तरह वह कह बैठता है 'अगर ऐसा नहीं है तो होना चाहिए'। यह बिल्कुल वैसे ही है, जैसे राजेश जोशी से भी रहा नहीं जाता जब वह कब बैठते हैं कि 'भयानक है इसे विवरण की तरह लिखा जाना / लिखा जाना चाहिए इसे सवाल की तरह / काम पर क्यों जा रहे हैं बच्चे?’ हमें कवि का इस तरह अपनी तड़प को बेनकाब करना सहना पड़ता है, क्योंकि यह हमारी भी पीर है। कविता यही करती है, जैसे कुमार विकल ने लिखा था कि 'कविता आदमी का निजी मामला नहीं / एक-दूसरे तक पहुँचने के लिए एक पुल है।' यह एक-दूसरे तक पहुँचना दरअसल आपस में पीर साझा करना है। इंसान जीवन में तरह-तरह की तक़लीफों से गुजरता है, पर सबसे गहन पीर बच्चों से जुड़ी होती है। मंगलेश की कविताएँ पढ़ते हुए हम मन के किसी कोने में फफक-फफक कर रो रहे होते हैं। कविता कथार्सिस बनकर हमें गहरे गड्ढों से उबारती है।
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