बेख़याली
हाल में 'वागर्थ' में आई कविताएँ
1. बेख़याली के ख़याल
बीवी की मौत के छह हफ्तों बाद
वह काम पर वापस आया है। देख कर लगता है
ग़मी से उबर चुका है। खुश है कि किसी ने
हफ्तों बाद आने पर बुरा-भला नहीं कहा। सुबह से
लगा हुआ है, अथक। मैं पेशाब कर रहा था जब दूसरी ओर
उसे कमोड साफ करते देखा। उसका यह काम है, वापस मिल गया है।
याद करने की कोशिश करता हूँ कि उसकी गैरमौजूदगी
में कौन सफाई का काम संभाल रहा था। सोचता हूँ
कि उसके अंदर कुछ तो चल रहा है। पिछले साल ही तो शादी
हुई थी। तो क्या कोई गड़बड़ थी, मसलन क्या वह बीवी पर
ज़ुल्म करता था, क्या इसलिए उस पर कोई असर नहीं दिख रहा।
क्या दुबारा शादी कर वह फिर से दहेज लेगा? पूछ तो सकता
नहीं, पर अपनी हैसियत के मुताबिक अजीबोग़रीब सवाल मन में उठने देता हूँ
ये सवाल बस यहीं तक यानी वाश-रूम तक या यहाँ से निकल कर चलने पर थोड़ी देर तक साथ
रहेंगे। फ्लश चलाकर वापस मुड़ते ही उसकी आँखें दिखती हैं, वह ब्रश वगैरह लिए
पल भर के लिए खड़ा मेरी ओर ताकता है। तभी एक चमक दिखती है
उसकी आँखों की पुतलियों में, मौत की झलक,
स्याह रंग की रेखाएँ दोनों आँखों के बीच में से गुज़रती हुईँ।
मैं नज़र झुका कर आगे बढ़ता हूँ
फर्श में से उठता ठंडक का एहसास मेरे बदन पर रेंगता चढ़ता है
सब कुछ ठीक है, काम पर आकर वह खुश है,
काम के इन पलों में हमारा टकराना कहीं दर्ज़ नहीं रहता
आखिर मैं कौन सा उसका सुपरवाइज़र हूँ
अचानक उसकी आवाज़ आती है नमस्ते सर
और मेरे हलक से खरखराती सी कैसे हो की कविता फूट सी पड़ती है
आगे बढ़ जाता हूँ जैसे बढ़ना है मुझे
जैसे जंगें होनी हैं कहीं धरती पर
जैसे उसके दुबले जिस्म और फूले पेट का पीछे छूटना है
जैसे कुछ पल, कुछ घंटे, कुछ दिन इस तरह गुज़रनी है ज़िंदगी
हमें ज़्यादा नहीं बोलना है
वह जानता है यह सब बिना मेरी तरह उलझते हुए
मैं इन ख़यालों से छुटकारा पाने को परेशान नहीं हूँ
गोकि ऐसे ख़याल कहाँ टिकेंगे ज़ेहन में
उसकी मेहनत को ज़रूरत से ज़्यादा वक़्त मैं नहीं देता
वह मेरे लिए काम करता है, दफ्तर में हर किसी के लिए
काम करता है। वह काम करता रहेगा
मेरे मरने तक। या कि हर किसी के मरने तक।
उसे कहाँ आराम मिलेगा, वह है तो बेख़याली
के ख़याल हैं ज़िंदगी में।
2. बहार
कौन सी जगह थी जहाँ से कई बार गुज़रता हूँ
बीमार हूँ नहीं और इलाज़ माँगता फिरता हूँ
क़ैद में बहार मुझसे गुफ्तगू करती
कि आज़ाद कैसे घूमता फिरता हूँ
फ़िलहाल शायरी कहूँ कि कविता लिखूं
सवाल सँजोता फिरता हूँ
बात कितनी तरह से कहूँ
कि इस तरह जीता बार-बार मरता फिरता हूँ
तो सुनो बहार आए न आए
धरती रोती रहती है
हमें महज फूल दिखते हैं
फूल दिखते हैं रंग-बिरंगे
बहार में नमी है
वह धरती के अश्कों से है
आँसू टपकते नहीं हैं
बहार भीगती है
रंगों का क्या उनको तो खिलना है
सब कुछ बाक़ायदा है
बहार का आना न आना
धरती बेतरतीब रोती है
फूल खिलते ही रहते हैं
अश्क सूख जाते हैं
बहार प्यास से तड़पती है
जाओ बहार से कह दो
धरती की प्यास अपना ले
फूलों को पराग बिखेर लेने दे
अश्क ही ज़िंदगी हैं
बहार सराब है
फूल बेबसी के तमगे हैं
धरती सिकुड़ती है
फूल राग अलापते हैं
बहार क़ैद में सो जाती है।
3. रब्बा
ग़म की काली रात पूरी हो गई रब्बा
बेबस ख़्वाबों की परी सो गई रब्बा
हक़ीक़त कि जागती परेशां इक रूह है
हर आलिम को नौकरी दो भई रब्बा
सड़क पर सोए को जगाने से पहले
पानी के साथ इक रोटी दो भई रब्बा
बहुत हुआ जंग के बादलों का खेला
बहुत रोया इंसां तू भी रो भई रब्बा
हमने तो ज़रा सा प्यार माँगा था
कहाँ हक़ीक़ी खो गई रब्बा।
4. बादलों की बातचीत
- क्या बात है, क्यों मुस्कुरा रहे हो?
- सोच रहा हूँ, पिघलने पर कैसा लगता है।
- वाक़ई, वैसे मुस्कुराते तुम अच्छे लगते हो। तुम्हारे होंठ छू लूँ?
ओह!
पीली रोशनी में लिपटी एक गेंद फर्श पर गिरती है
और उसमें एक छेद कर देती है।
और बस ग़लती से,
इतनी उदासीनता से कि तुम जान भी नहीं पाते,
तुम्हारी उँगलियाँ उस छेद को छूती हैं
और अचानक महसूस कि यह
एक दूसरे छेद का विस्तार है,
कि जीवन पिघलते लफ़्ज़ों का खिलवाड़ है
लफ़्ज़ जन्नत की ओर उठ रहे हैं
जैसे बर्थ-डे पार्टियों में गुब्बारे हों
लाल-पीले अपने साथ धागों को पतली पूँछ सा हिलाते
ऐसा ही है
चाहो न चाहो। क्या कोई बादल इससे बच सकता है?
5. समांतर कायनात
एक और संसार है
एक सुरंग के जरिए इस से उस कायनात में
आ जा सकते हैं
हर रोज़
हर कोई कायनातों के बीच सफ़र करता है
ज़ेहन
अलग-अलग कायनातों से मिली जानकारियों का खजाना है अवसाद और उल्लास के बीच
क़िस्म-क़िस्म के संगीत के छींटों से
जिस्म भीगता है
दोपहर सूरज रात चाँद और बादल
कल आज और कल
चेहरे अजनबी
लौट आते हैं
अचरज नहीं होता कि कहीं यादों में
दूसरे कायनात में उनसे मिलने के ख़याल जड़े हैं
आखिर में दुःख
जीवन-गीत बन बचा रहता है
सपने देखना, सपने न देखना
जाने क्यों साथ चलता रहता है।
6. छोटे सुख
6.1
गीज़र से गर्म पानी बहता रहे
टूटा बटन लगाते हुए सुई की सीप में धागा डल जाए
इतना काफी है कि ज़िंदगी से खुश रहूँ
कूड़ा सही जगह पर फेंकूँ
धुला कपड़ा क्लिप लगाकर टाँग दूँ
एक दिन छोटे सुखों में
बस एक दिन ऐसे गुज़र जाए
कि भूल जाऊँ कि जंगें छिड़ी हुई हैं
एक दिन की पूँजी से गुज़ार लूँ बाक़ी तीन सौ पैंसठ रातें
छोटे-छोटे सुख
छोटी-छोटी बातें।
6.2
ऐसा नहीं कि ज़िंदगी में ग़म न रहें
शर्त यह कि ग़म हमबदन रहें
शाम अकेली और सुबह अकेली भली
कुछ खयाल हमसफ़र आदतन रहें
दिन भर इंतज़ार न हो कि रात आती है
अलसुबह दबे पाँव रात आती रहे
रात ही रात, रात से अदावत क्यों करूँ
दिन ख़्वाब में वह फिर लौट आती रहे।
छोटे सुख, छोटे ख़्वाब आते रहें
किसी से कहने को छोटी-छोटी बातें रहें।
7. सामने
सामने बहुत कुछ है
सब कुछ
अंदर खालीपन है
अंदर से कोई लफ़्ज़ सामने आ खड़ा नहीं होता
सामने शीशे के पार दूर तक जंगल है
अंदर कुर्सियों का समाज बसा है
चमकीले पर्दों पर सूचनाएँ नाचती हैं
देखता-पढ़ता जानना चाहता हूँ कि किसके इंतज़ार में हूँ
कोई शब्द है सामने जहाँ पहुँचूँगा
अंदर एक आदमी खुद से बतियाता गुज़रता है। एक आदमी दो आदमी अनेक आदमी खुद से बतियाते गुज़रते हैं।
आदमी इस भ्रम में है कि कोई उसे सुन रहा है।
अभी वह साठ फीसदी कहता पास से गुज़रा है
शीशे के पार ज़मीं पर एक पीली बत्ती थिरकती है
अंदर का पीलापन उससे हाथ मिलाता है
ऊपर सूरज पार करता है हवाओं की दीवारें।
जगह बनाता हूँ कि सूरज आए
वक़्त है कि उसे होना है
कि वह दुनिया भर प्यार के रंग बरसाए
अंदर फीका पड़ता हर धब्बा रंग की धार के बाद
सामने कहीं दुनिया के छोर से आगे बस जाए।
1. बेख़याली के ख़याल
बीवी की मौत के छह हफ्तों बाद
वह काम पर वापस आया है। देख कर लगता है
ग़मी से उबर चुका है। खुश है कि किसी ने
हफ्तों बाद आने पर बुरा-भला नहीं कहा। सुबह से
लगा हुआ है, अथक। मैं पेशाब कर रहा था जब दूसरी ओर
उसे कमोड साफ करते देखा। उसका यह काम है, वापस मिल गया है।
याद करने की कोशिश करता हूँ कि उसकी गैरमौजूदगी
में कौन सफाई का काम संभाल रहा था। सोचता हूँ
कि उसके अंदर कुछ तो चल रहा है। पिछले साल ही तो शादी
हुई थी। तो क्या कोई गड़बड़ थी, मसलन क्या वह बीवी पर
ज़ुल्म करता था, क्या इसलिए उस पर कोई असर नहीं दिख रहा।
क्या दुबारा शादी कर वह फिर से दहेज लेगा? पूछ तो सकता
नहीं, पर अपनी हैसियत के मुताबिक अजीबोग़रीब सवाल मन में उठने देता हूँ
ये सवाल बस यहीं तक यानी वाश-रूम तक या यहाँ से निकल कर चलने पर थोड़ी देर तक साथ
रहेंगे। फ्लश चलाकर वापस मुड़ते ही उसकी आँखें दिखती हैं, वह ब्रश वगैरह लिए
पल भर के लिए खड़ा मेरी ओर ताकता है। तभी एक चमक दिखती है
उसकी आँखों की पुतलियों में, मौत की झलक,
स्याह रंग की रेखाएँ दोनों आँखों के बीच में से गुज़रती हुईँ।
मैं नज़र झुका कर आगे बढ़ता हूँ
फर्श में से उठता ठंडक का एहसास मेरे बदन पर रेंगता चढ़ता है
सब कुछ ठीक है, काम पर आकर वह खुश है,
काम के इन पलों में हमारा टकराना कहीं दर्ज़ नहीं रहता
आखिर मैं कौन सा उसका सुपरवाइज़र हूँ
अचानक उसकी आवाज़ आती है नमस्ते सर
और मेरे हलक से खरखराती सी कैसे हो की कविता फूट सी पड़ती है
आगे बढ़ जाता हूँ जैसे बढ़ना है मुझे
जैसे जंगें होनी हैं कहीं धरती पर
जैसे उसके दुबले जिस्म और फूले पेट का पीछे छूटना है
जैसे कुछ पल, कुछ घंटे, कुछ दिन इस तरह गुज़रनी है ज़िंदगी
हमें ज़्यादा नहीं बोलना है
वह जानता है यह सब बिना मेरी तरह उलझते हुए
मैं इन ख़यालों से छुटकारा पाने को परेशान नहीं हूँ
गोकि ऐसे ख़याल कहाँ टिकेंगे ज़ेहन में
उसकी मेहनत को ज़रूरत से ज़्यादा वक़्त मैं नहीं देता
वह मेरे लिए काम करता है, दफ्तर में हर किसी के लिए
काम करता है। वह काम करता रहेगा
मेरे मरने तक। या कि हर किसी के मरने तक।
उसे कहाँ आराम मिलेगा, वह है तो बेख़याली
के ख़याल हैं ज़िंदगी में।
2. बहार
कौन सी जगह थी जहाँ से कई बार गुज़रता हूँ
बीमार हूँ नहीं और इलाज़ माँगता फिरता हूँ
क़ैद में बहार मुझसे गुफ्तगू करती
कि आज़ाद कैसे घूमता फिरता हूँ
फ़िलहाल शायरी कहूँ कि कविता लिखूं
सवाल सँजोता फिरता हूँ
बात कितनी तरह से कहूँ
कि इस तरह जीता बार-बार मरता फिरता हूँ
तो सुनो बहार आए न आए
धरती रोती रहती है
हमें महज फूल दिखते हैं
फूल दिखते हैं रंग-बिरंगे
बहार में नमी है
वह धरती के अश्कों से है
आँसू टपकते नहीं हैं
बहार भीगती है
रंगों का क्या उनको तो खिलना है
सब कुछ बाक़ायदा है
बहार का आना न आना
धरती बेतरतीब रोती है
फूल खिलते ही रहते हैं
अश्क सूख जाते हैं
बहार प्यास से तड़पती है
जाओ बहार से कह दो
धरती की प्यास अपना ले
फूलों को पराग बिखेर लेने दे
अश्क ही ज़िंदगी हैं
बहार सराब है
फूल बेबसी के तमगे हैं
धरती सिकुड़ती है
फूल राग अलापते हैं
बहार क़ैद में सो जाती है।
3. रब्बा
ग़म की काली रात पूरी हो गई रब्बा
बेबस ख़्वाबों की परी सो गई रब्बा
हक़ीक़त कि जागती परेशां इक रूह है
हर आलिम को नौकरी दो भई रब्बा
सड़क पर सोए को जगाने से पहले
पानी के साथ इक रोटी दो भई रब्बा
बहुत हुआ जंग के बादलों का खेला
बहुत रोया इंसां तू भी रो भई रब्बा
हमने तो ज़रा सा प्यार माँगा था
कहाँ हक़ीक़ी खो गई रब्बा।
4. बादलों की बातचीत
- क्या बात है, क्यों मुस्कुरा रहे हो?
- सोच रहा हूँ, पिघलने पर कैसा लगता है।
- वाक़ई, वैसे मुस्कुराते तुम अच्छे लगते हो। तुम्हारे होंठ छू लूँ?
ओह!
पीली रोशनी में लिपटी एक गेंद फर्श पर गिरती है
और उसमें एक छेद कर देती है।
और बस ग़लती से,
इतनी उदासीनता से कि तुम जान भी नहीं पाते,
तुम्हारी उँगलियाँ उस छेद को छूती हैं
और अचानक महसूस कि यह
एक दूसरे छेद का विस्तार है,
कि जीवन पिघलते लफ़्ज़ों का खिलवाड़ है
लफ़्ज़ जन्नत की ओर उठ रहे हैं
जैसे बर्थ-डे पार्टियों में गुब्बारे हों
लाल-पीले अपने साथ धागों को पतली पूँछ सा हिलाते
ऐसा ही है
चाहो न चाहो। क्या कोई बादल इससे बच सकता है?
5. समांतर कायनात
एक और संसार है
एक सुरंग के जरिए इस से उस कायनात में
आ जा सकते हैं
हर रोज़
हर कोई कायनातों के बीच सफ़र करता है
ज़ेहन
अलग-अलग कायनातों से मिली जानकारियों का खजाना है अवसाद और उल्लास के बीच
क़िस्म-क़िस्म के संगीत के छींटों से
जिस्म भीगता है
दोपहर सूरज रात चाँद और बादल
कल आज और कल
चेहरे अजनबी
लौट आते हैं
अचरज नहीं होता कि कहीं यादों में
दूसरे कायनात में उनसे मिलने के ख़याल जड़े हैं
आखिर में दुःख
जीवन-गीत बन बचा रहता है
सपने देखना, सपने न देखना
जाने क्यों साथ चलता रहता है।
6. छोटे सुख
6.1
गीज़र से गर्म पानी बहता रहे
टूटा बटन लगाते हुए सुई की सीप में धागा डल जाए
इतना काफी है कि ज़िंदगी से खुश रहूँ
कूड़ा सही जगह पर फेंकूँ
धुला कपड़ा क्लिप लगाकर टाँग दूँ
एक दिन छोटे सुखों में
बस एक दिन ऐसे गुज़र जाए
कि भूल जाऊँ कि जंगें छिड़ी हुई हैं
एक दिन की पूँजी से गुज़ार लूँ बाक़ी तीन सौ पैंसठ रातें
छोटे-छोटे सुख
छोटी-छोटी बातें।
6.2
ऐसा नहीं कि ज़िंदगी में ग़म न रहें
शर्त यह कि ग़म हमबदन रहें
शाम अकेली और सुबह अकेली भली
कुछ खयाल हमसफ़र आदतन रहें
दिन भर इंतज़ार न हो कि रात आती है
अलसुबह दबे पाँव रात आती रहे
रात ही रात, रात से अदावत क्यों करूँ
दिन ख़्वाब में वह फिर लौट आती रहे।
छोटे सुख, छोटे ख़्वाब आते रहें
किसी से कहने को छोटी-छोटी बातें रहें।
7. सामने
सामने बहुत कुछ है
सब कुछ
अंदर खालीपन है
अंदर से कोई लफ़्ज़ सामने आ खड़ा नहीं होता
सामने शीशे के पार दूर तक जंगल है
अंदर कुर्सियों का समाज बसा है
चमकीले पर्दों पर सूचनाएँ नाचती हैं
देखता-पढ़ता जानना चाहता हूँ कि किसके इंतज़ार में हूँ
कोई शब्द है सामने जहाँ पहुँचूँगा
अंदर एक आदमी खुद से बतियाता गुज़रता है। एक आदमी दो आदमी अनेक आदमी खुद से बतियाते गुज़रते हैं।
आदमी इस भ्रम में है कि कोई उसे सुन रहा है।
अभी वह साठ फीसदी कहता पास से गुज़रा है
शीशे के पार ज़मीं पर एक पीली बत्ती थिरकती है
अंदर का पीलापन उससे हाथ मिलाता है
ऊपर सूरज पार करता है हवाओं की दीवारें।
जगह बनाता हूँ कि सूरज आए
वक़्त है कि उसे होना है
कि वह दुनिया भर प्यार के रंग बरसाए
अंदर फीका पड़ता हर धब्बा रंग की धार के बाद
सामने कहीं दुनिया के छोर से आगे बस जाए।
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