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'सपन एक देखली'


- ('अकार' के ताज़ा अंक में प्रकाशित)

सालों पहले कभी एक शास्त्रीय-संगीत गायक दोस्त से सोहर लोक-शैली की धुन में लिखा गोरख पांडे का गीत 'सुतल रहती सपन एक देखली' सुना था। कई बार इसे मैंने पढ़ा है, और 'सपन' शब्द की ताकत पर अभिभूत हुआ हूँ। एक शब्द में जीवविज्ञान, समाज-शास्त्र, इतिहास, राजनीति और साहित्य – सब कुछ है। विरला ही कोई कवि होगा जिसने सपना का इस्तेमाल न किया हो। लैंगस्टन ह्यूज़ की कालजयी कविता Harlem की पहली पंक्ति What happens to a dream deferred – दरकिनार किए गए ख़्वाब का हश्र क्या होता है - इतने अर्थ लिए हुए है कि इस पर हज़ारों लेख लिखे गए हैं। कुमार विकल की 'स्वप्न-घर', पाश की 'सबसे खतरनाक' जैसी अनगिनत कविताएँ हैं, जहाँ सपना केंद्र में है। फिल्मी दुनिया में तो ख़्वाब के बिना बहुत कम ही कुछ बचता है। मसलन 'ख़्वाब हो तुम या कोई हक़ीक़त' जैसे 'दार्शनिक' सवाल कई पीढ़ियाँ गुनगुनाती रही हैं।
साल 1619 में रेने देकार्त ने एक सपने में आधुनिक विज्ञान और दर्शन की बुनियाद सोची, जिसे बाद में उन्होंने 'ए डिस्कोर्स ऑन द मेथड' (1637) का रूप दिया। दिमित्री मेंदेलीव ने 1869 में एक सपने में, तत्वों की आवर्ती सूची को देखा। डी एच लॉरेंस ने 1912 के एक ख़त में लिखा, 'मैं यह तय नहीं कर पाता कि मेरे सपने मेरे विचारों का परिणाम हैं, या मेरे विचार मेरे सपनों से निकले हैं। अजीब बात है। लेकिन सपने मुझे नतीजों तक ले जाते हैं। ... लगता है कि नींद मेरे लिए मेरे अस्पष्ट दिनों के तार्किक नतीजे ले आती है, और उन्हें ख़्वाब बना कर पेश करती है।' भारतीय गणितज्ञ रामानुजन का कहना था कि उन्हें गणित की जटिल पहेलियों के हल सपनों में मिलते हैं।
माना जाता है कि कई धार्मिक और आध्यात्मिक यात्राएँ ख़्वाबों में देखी छवियों से उभरीं। रामायण-महाभारत तक में सपनों के फल का उल्लेख मिलता है। कहते हैं कि शनि चालीसा में लिखा है कि शनि अगर सपने में मोर पर चढ़े हुए दिखते हैं तो अच्छे दिन आने वाले हैं। बाइबिल में ख़्वाब आधारित कथाएँ हैं, और पैगंबर मुहमम्द ने ख़्वाब में अल्लाह से गुफ्तगू की थी। बोध-ज्ञान से एक रात पहले, बुद्ध ने अपने 'पाँच महान स्वप्न' देखे। पहले में, वे धरती पर सोए थे; हिमालय उनका तकिया था; और हाथ और पैर समुद्र में पड़े थे। इन छवियों से प्रेरित होकर, बुद्ध सुबह नहा-धो कर बोधि वृक्ष के नीचे तब तक बैठे रहे जब तक कि उन्हें बोधि न मिला। सपना एक पहेली सा रहा है। हम ख़्वाब देखते क्यों हैं, क्या सपने हमें कुछ बताते हैं, क्या यह महज जैविक बात है या इसका कोई आध्यात्मिक पहलू है, क्या ये अपने आप आते हैं या हम अनजाने में खुद ही तय करते हैं कि कैसे ख़्वाब देखेंगे - ऐसे कई सवालों पर दार्शनिकों और मनोवैज्ञानिकों ने बहुत कुछ लिखा है, और पिछले कुछ दशकों में जैसे-जैसे ज़ेहन के बारे में वैज्ञानिक समझ बढ़ी है, सपना पर बेहतर समझ होती चली है।
पिछली सदी में आलमी पैमाने पर तीन चिंतकों का गहरा असर बौद्धिक दुनिया पर पड़ा है - कार्ल मार्क्स, चार्ल्स डारविन और सिंगमुंड फ्रॉयड। मार्क्स का सपना सामाजिक-राजनैतिक प्रक्रियाओं में है, डार्विन जैविक विकास में सपने की समझ पेश करते हैं और फ्रॉयड यौनिकता से सपनों को जोड़ते हैं। फ्रॉयड ने सपनों की व्याख्या पर The Interpretation of Dreams किताब लिखी, जो आज भी खूब पढ़ी जाती है। उनके जीते रहते ही उनके काम पर सवाल उठने लगे और वैज्ञानिकों और दार्शनिकों ने इसे गैर-वैज्ञानिक करार कर दिया। पर साहित्य, कला, सिनेमा आदि में फ्रॉयड का असर कभी मिटा नहीं और पिछले दो दशकों में मनोविज्ञान में उनकी प्रतिष्ठा कुछ हद तक वापस दिखने लगी है। इसकी वजह ज़ेहन के बारे में मिली जानकारी में तेज़ी से आई बढ़त है। फ्रॉयड के लिए मनोवैज्ञानिक सच हमारे अचेतन में है और उनके जीते जी अचेतन पर ऐसे प्रयोग नहीं हुए, जो विज्ञान की कसौटी पर खरे उतरें। यहाँ अचेतन से मतलब बेहोशी नहीं है। जागे हुए हाल में हमारी सोच और हरकतें चेतना है। अवचेतन जागती दशा में उन क्रिया-प्रतिक्रियाओं में होता है, जिनका एहसास हमें तब होता है जब हम इसके बारे में सोचते हैं। अचेतन हमारी यादों की गहरी परतें है, जो हमारे ज़ेहन में दर्ज़ हैं, पर हम सचेत रूप से उन्हें पकड़ नहीं पाते। अपनी किताब में फ्रॉयड ने लिखा, “अपने गहनतम रूप में यह हमारे लिए उतना ही अनजाना है जितनी बाहरी दुनिया की हक़ीक़त है, और यह चेतना पर दर्ज़ आंकड़ों में उतना ही अधूरा दिखता है जितना कि बाहरी दुनिया को हम एहसासों से समझते हैं।” हम अचेतन की हरकतें देख नहीं सकते। समाज में नामंज़ूर निजी हसरतों की सूची बनाकर मनोवैज्ञानिक हक़ीक़त पूरी तरह जानी नहीं जा सकती। फ्रायड अपने प्रयोगों की कमियों को समझता था। उसके मुताबिक अक्सर सबसे अच्छी तरह से बयान किए गए सपने में भी कुछ अस्पष्ट छूट जाता है। फ्रायड के शागिर्द कार्ल युंग ने सपनों में 'सामूहिक अचेतन' को ढूँढने की कोशिश की। युंग ने 'सपने के ज्ञान' के बारे में ज़्यादा साफ समझ लोकप्रिय बनाने की कोशिश की। एक तरह से, युंग एक बड़ा स्वप्नद्रष्टा था। क्योंकि, अपने पहले और बाद के कई ख़्वाब देखने वालों की तरह, वह एक ख़्वाब के ज़रिए बड़े विचार तक पहुंचा।
निजी दायरों और सामाजिक हक़ीक़तों के बीच ठोस लकीर खींचना नामुमकिन है। अल्जीरियन इंकलाब के मशहूर सिद्धांतकार और ज़ेहनी बीमारियों के इलाज़ में माहिर फ्रांत्ज़ फानोन ने भी सपनों पर खूब लिखा है। अचेतन को रुपकों से अलग कर फानोन उस सामाजिक-राजनैतिक झूठ को समझाता है, जो चेतन-हाल में हम पर हावी होते हैं, जब हम जगे होते हैं। रात में सोते हुए देखे सपनों में वह यौन-पहेलियाँ नहीं ढूँढता। उसने लिखा है, ‘कोई मज़लूम सपने में बंदूक देखता है, तो वह शिश्न नहीं, सचमुच की बंदूक देख रहा होता है।' वह सपना और हक़ीक़त को उलट कर देखता है। उपनिवेश में पराधीन जीना एक बुरा सपना है, नींद का सपना असल ज़िंदगी को पेश करता है। बर्तानवी उपनिवेशों में सफर करने वाले मानव-शास्त्री चार्ल्स गैब्रिएल सेलिगमान को भी आम लोगों के सपनों पर अपने अध्ययन से फ्रायड द्वारा प्रस्तावित ईडिपस कॉंप्लेक्स (बेटे/बेटी के अचेतन में माँ/बाप के साथ अंतरंग होने की हसरत) पर शक होने लगा। जिन लोगों का उसने साक्षात्कार लिया, उन्होंने सपने में ज़ालिम मर्द देखे थे, लेकिन वे ग्रीक कथाओं वाले ईडिपस के पिता नहीं थे; वे ब्रिटिश सिपाही थे।
सपने हमें बौद्धिक संघर्ष, नैतिक दुविधा, सौंदर्य-बोध और वजूद पर सवाल-जवाब के साथ-साथ एक बड़ी दुनिया में ले जाते हैं, जो अजीब है, पर है। निजी ख़्वाबों में रोमांटिक राजनीतिक दृष्टि की सुंदर मिसाल फ़ैज़ की 'हम देखेंगे - लाज़िम है कि हम देखेंगे' है। जो देखेंगे, वह 'तसव्वुर' में है, ख़्वाब में हैं। ख़्वाब मन के आज़ाद खेल हैं, जो ज़ुल्म से टक्कर लेते हुए स्वायत्त रूप से काम कर सकते हैं।
निजी स्तर पर सबसे शानदार सपने न तो पलायनवादी कल्पनाएं प्रदान करते हैं और न ही बाहरी दुनिया से बचने का सुरक्षित कोना दिखाते हैं। तो नई संभावनाएं लाने में सपनों का भला क्या काम हो सकता है? सामाजिक दुनिया निजी सपनों के लिए कच्चा माल लेकर आती है और सपने हमें समाज के बारे में सोचने में मदद कर सकते हैं। ख़्वाब हक़ीक़त से भागना नहीं हैं, बल्कि यह सोचने का एक और तरीका है कि सामाजिक और राजनीतिक जीवन में 'हक़ीक़त' का वास्तव में क्या मतलब है। सपने देखने वालों की ज़रूरत हमेशा ही रहेगी, भले ही दुनिया उन्हें शर्मिंदा कर रही हो।

निजी सपने पर पकड़
हर कहीं इंसान ने सपने में जो देखा, उसे कुछ हद तक पकड़े रखनेे में सफलता पाई है। इसके लिए कई तरह की रीतियाँ भी हैं। तिब्बती बौद्ध धर्म में, सपनों में योग करने की मिलम नाम की तांत्रिक तकनीकें हैं, जिससे हम जगे होने पर जो कुछ देखते हैं, उसकी भ्रामक प्रकृति को समझ पाएँ। यह मानव मन की सबसे रहस्यमय क्षमताओं में से एक है: यह जानना कि हम सोते समय भी सपना देख रहे हैं, एक ऐसी दशा जिसे lucid draming या उजागर हुए ख़्वाब कहा जाता है।
सपना कैसा हो, तय करना आसान नहीं है। पिछले पचास सालों में ही प्रत्यक्ष रूप से इस पर जानकारी ले पाना मुमकिन हुआ है। नींद के दौरान ज़ेहनी हरकतों को समझने पर लगतार प्रयोग होते रहे हैं। नींद की तक़रीबन एक-चौथाई अवधि में ज़ेहन में वैसी ही हरकतें होती हैं, जो जागे हुए हाल में होती हैं। इसे Rapid eye movement (REM) यानी आँखों में तेज़ हलचल की नींद कहा जाता है। इस दौरान सपने ज़्यादा तादाद में दिखाई पड़ते हैं। सोने के तुरंत बाद यह कम अवधि, 5-10 मिनटों, के लिए होता है। आखिरी दौर में यानी जागने के ठीक पहले नींद पूरी तरह REM की होती है। नींद के दौरान आंखों की मांसपेशियां जिस्म के बाकी हिस्सों जैसी निष्क्रिय नहीं होती हैं। अब माना जाता है कि उजागर ख़्वाब देखने वालों का बाहरी दुनिया के साथ संवाद कर पाना मुमकिन है। शोधकर्ताओं के बताए अभ्यास के साथ कई लोग सपनों पर अच्छी पकड़ ले पाते हैं और इन्हें लिख कर दर्ज़ करते हैं। यह जानने पर कि हम सपना देख रहे हैं, शांत रहना ज़रूरी है, क्योंकि ज़्यादा सोचने पर समय से पहले नींद टूट सकती है। और यदि सपना फीका पड़ने लगे या अस्थिर लगने लगे, तो आप सपने के भीतर से ही अपने हाथों को जोर-जोर से रगड़ने की कोशिश कर सकते हैं। इससे सोते हुए भौतिक शरीर के बारे में जागरूक होने, और जागने की, संभावना कम हो जाती है। ऐसे अभ्यास के कई मनोवैज्ञानिक लाभ हैं। यह बुरे सपने से निपटने में मदद कर सकता है: बस यह जानना कि आप सपना देख रहे हैं, अक्सर किसी बुरे सपने के दौरान राहत देता है। जो आपको परेशान कर रहा है उसका सामना करना, हालात से निकल बचना, या बस जाग जाना जैसी कई बातें हम तय कर सकते हैं। अभ्यास के साथ सपनों की दुनिया उतनी ही जीवंत महसूस हो सकती है जितनी जागने के बाद की दुनिया है - और हम हैरान रह जाते हैं कि तसव्वुर और हक़ीक़त के बीच की सरहद कहाँ है।

जैविक विकास और सपना
एक ओर यह विचार है कि ख़्वाब देखना दिन में चल रहे खयालों से निकली फिज़ूल बात है जो नींद में जारी रहती है। दूसरी ओर, कई वैज्ञानिकों ने सपनों के विभिन्न पहलुओं पर काम किया है, और ज्यादातर यह मानते हैं कि नींद के दौरान होने वाली तंत्रिका-प्रक्रियाओं (neural activity) के ज़रिए सपने आते हैं, भले ही बाद में याद रहें या नहीं। ज़ेहन की एक खासियत है कि सपने में निष्क्रिय होते हुए भी यह न सिर्फ बाहरी दुनिया के बारे में जानकारी प्राप्त करता है, बल्कि सक्रिय रूप से उस जानकारी की व्याख्या करता है और उसमें पैटर्न की तलाश करता है। यदि सब कुछ random या यादृच्छिक होता, तो कोई पैटर्न नहीं होता। अपने तजुरबे से पैटर्न को समझकर हम ख़्वाब का मायना ढूँढते हैं। क्या इस में नियमितता या क्रम हैं? क्या कुछ घटनाएँ आम तौर पर दूसरों के साथ घटित होती हैं? यदि घटनाओं में पैटर्न हैं, तो यह क़यास लगाने में मदद मिलती है कि आगे क्या होगा। ऐसी मिसालें हैं कि सपने में मिले सुझावों का हम अनुकरण करते हैं, खतरों पर काबू पाने का अभ्यास करते हैं, और सपने यादों को पुख्ता करने या जज़्बात को नियंत्रित रखने में भूमिका निभाते हैं, या वे कल्पना-शक्ति बढ़ाते हैं जो हमें जागने के बाद जीवन में डरावनी यादों से निपटने में मदद करती है। हालाँकि, इन सिद्धांतों से मेल खाते जो नतीजे प्रयोगों से निकले हैं, वे एक दूसरे से गड्ड-मड्ड हैं - यह अनुमान लगाना असंभव है कि सपने निश्चित रूप से स्मृति या जज़्बात पर कोई असर डाल रहे हैं। ऐसे दावों के लिए शोधकर्ताओं को तब तक इंतज़ार करना होगा जब तक कि वे प्रयोगों में तयशुदा तरीकों से सपनों को बदल न सकें, यानी जब तक लक्ष्य तय कर बाहरी उत्तेजना (stimulation) की मदद से तयशुदा ख़्वाब न ला सकें।
कुछ पैटर्न तयशुदा और तार्किक हैं। उदाहरण के लिए, दिन और रात दिमाग़ में इस क्रम में जुड़े हुए हैं, कि रात के बाद दिन आएगा। एक और मिसाल : दफ्तरों के खुलने-बंद होने के समय यातायात सबसे खराब होता है, और भारी यातायात आवागमन से जुड़ा होता है। यह कुदरती नहीं है, लेकिन काम के दिनों में हम सुबह 8-10 बजे के आसपास भारी ट्रैफिक का अनुमान लगा सकते हैं। हमारे दृश्य-तंत्र में पैटर्न पहचानने की लगभग अनंत क्षमता है। लेकिन अगर आर-ई-एम नींद में हमारा दिमाग़ संभाव्य पैटर्न का पता लगाने में बेहतर है, तो हमारा जागृत मस्तिष्क तार्किक सोच के साथ तयशुदा पैटर्न की पहचान क्यों करता है? और आर-ई-एम स्वप्न-छवियां - जो इन संभाव्य पैटर्न की तस्वीर बनाती हैं - बेहोश क्यों रहती हैं? हो सकता है कि इन सवालों के जवाब जैविक विकास (evolution) में हो : यानी हम (प्रजाति) जीवित रहने के लिए ख़्वाब देखने लगे थे। जीव-विज्ञानी थियोडोसियस डोबज़ांस्की का कथन है : 'विकास की रोशनी बगैर जीव-विज्ञान में कुछ भी समझा नहीं जा सकता'।
विकास के नज़रिए से देखों तो REM नींद प्राचीन ज़ेहनी तंत्र (नेटवर्क) से उभरी है। इंसान सहित सभी स्तनधारियों को आँखों की अपनी खास तेज़ हलचल के साथ REM नींद आती है। जानवरों में जटिल खयालों को कहने-समझने के लिए भाषा कौशल की कमी होती है, लेकिन यह संभव है कि वे छवियों के माध्यम से सोचते हैं। संभवतः शुरूआत में इंसान ने भी छवियों के जरिए सोचा होगा। इस छवि-आधारित विचार को आर-ई-एम नींद के विकास से पनपे प्राचीन तंत्र (नेटवर्क) में बेहतर सँजोया जा सकता है। आर-ई-एम नींद उलझे सपनों में पैटर्न की पहचान करती है और उन्हें अचेतन छवियों में बनाए रखती है, इसकी वजह प्रारंभिक मनुष्यों के लिए जीवन के साथ जुड़ी हो सकती है।
शुरूआती इंसान के लिए महज ज़िंदा रहना ही संघर्ष रहा होगा। ब्रिटिश सामाजिक-मनोवैज्ञानिक ग्राहम वालेस अपनी किताब 'द आर्ट ऑफ थॉट' में मिसाल पेश करते हैं कि तमाम वो चीज़ें जो 'भोजन' हैं, या विभिन्न प्रजातियों के जानवर जो सभी शिकारी हैं, इनमें एक जैसे गुणों या पैटर्न को पहचानना सहज नहीं है, यह पहचान विकास (ज़िंदा रहना) से उभरी ज़रूरत है। उन्होंने पैटर्न-पहचान के इस प्राचीन रूप को 'अलगाव में एकरूपता' देखने की क़ाबिलियत कहा। आर-ई-एम के दौरान हम कम स्पष्ट, या सहजता से न दिखने वाली एक-सी बातों की बेहतर पहचान कर पाते हैं जो आगे हो सकने वाली घटनाओं का अंदाज़ा देते हैं। अचेतन में पहले से सोची गई मानसिक छवियां भावी खतरे के प्रति हमें भरपूर तैयार करती हैं।
साल 1999 में हार्वर्ड मेडिकल स्कूल के मनोचिकित्सक रॉबर्ट स्टिकगोल्ड और उनके सहयोगियों ने दिखाया कि हम कुछ समय जगे रहने के बाद खयालों के बीच संबंधों पर जितना सोच सकते हैं, उससे कहीं ज़्यादा दूर तक आर-ई-एम नींद से जागने पर खयालों के बीच सोच लेते हैं। मसलन हम 'गर्म' शब्द के साथ आम तौर पर 'ठंडा' शब्द सोचते हैं, पर आर-ई-एम नींद के बाद कई लोग 'सूरज' कहते पाए गए। साल 2009 में कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के मनोवैज्ञानिक डेनिस काई और उनके सहयोगियों ने ऐसे परीक्षण किए जिनमें बेतरतीब के शब्द इस्तेमाल किए गए। 'गिरना', 'अभिनेता' और 'धूल' जैसे शब्दों को लें। देर तक REM नींद सोने वाले इन सभी को एक धागे में जोड़ने वाले शब्द को बेहतर समझने में क़ाबिल हैं: 'स्टार' (अंग्रेज़ी में falling star, film star और star dust पर गौर करें)। ऐसे ही निष्कर्ष 2015 में, हार्वर्ड मेडिकल स्कूल के नींद के शोधकर्ता मरे बार्स्की और उनके सहयोगियों के थे। यानी हम आर-ई-एम नींद के बाद शब्दों में झट से न दिखते संबंध ढूँढ पाने में ज़्यादा क़ाबिल होते हैं, क्योंकि हमारे दिमाग़ उस नींद के दौरान – ख़्वाबों के ज़रिए - अनुभव और घटनाओं के गैर-स्पष्ट, संभाव्य पैटर्न को पहचानने के लिए तैयार होते हैं।
आर-ई-एम नींद के दौरान दिमाग़ जागने के बनिस्बत अलग तरह से काम करता है। खास जिस्मानी हरकतों के दौरान ज़ेहन के अलग-अलग खास हिस्से सक्रिय होते हैं। एक मुख्य अंतर सिर के दोनों तरफ माथे के पीछे लेटरल प्री-फ्रंटल कॉर्टेक्स में पाया जाता है। ये हिस्से तार्किक सोच, योजना बनाने और सवालों के बेहतर हल पर ध्यान केंद्रित करने के लिए जिम्मेदार हैं। साथ ही प्री-फ्रंटल कॉर्टेक्स दिमाग को भटकने से रोकता है। लेकिन, दूर के संबंधों के आधार पर कठिन सवालों के हल के लिए, मन का भटकना या 'आउट ऑफ बॉक्स सोचना' सहज न दिखते कनेक्शन बनाने के लिए ज़रूरी हो सकता है।
परिचित लोग, स्थान और घटनाएँ, हमारे सपनों में दिखाई देती हैं, लेकिन पार्श्व प्री-फ्रंटल कॉर्टेक्स के निष्क्रिय होने के कारण, हम शायद ही कभी उन्हें वैसा अनुभव कर पाते हैं जैसा कि वे सचमुच हैं। इसके बजाय, परिचित को अपरिचित और अक्सर विचित्र बनाने के लिए लोगों, स्थानों और अनुभवों को फिर से संजोया जाता है। जो परिचित है, वह विचित्र हो जाता है, क्योंकि REM नींद के ख़्वाब में हम यादों को सीधा वैसे नहीं जीते, जैसे कि वे सचमुच में हुई थीं। सपन की छवि विचित्र होती है क्योंकि यह विभिन्न लोगों, स्थानों या घटनाओं से जुड़े तत्वों को मिलाकर बनाए गए पैटर्न को चित्रित करती है। आर-ई-एम नींद में हमारा दिमाग लोगों के बीच दूरस्थ संबंधों, या सहज न लगते पैटर्न की पहचान करने के लिए तैयार होता है। यानी जागने पर सपने अजीब लगते हैं क्योंकि वे एक पैटर्न की पहचान करने के लिए विभिन्न तजुरबों के तत्वों को जोड़ते हैं। इसके अलावा, ऐसी ग़ज़ब की छवियां याददाश्त में मदद करती हैं, क्योंकि हम सामान्य घटनाओं की तुलना में अजीब घटनाओं को अधिक आसानी से याद करते हैं। सपने अचेतन स्तर पर दर्ज़ हो सकते हैं। ज़ेहन की 98 प्रतिशत हरकत अचेतन होती है, और दर्ज़ हुए सपने इसका एक पहलू हो सकते हैं। जागने पर हमारा रवैया भूल गए सपनों में बने और पेश आए अचेतन संबंधों द्वारा तय हो सकता है।
आदिम मानव के अनुभवों ने दोहरी ज़ेहनी दशाओं को जन्म दिया होगा - जाग्रत और REM स्वप्न अवस्था। जागते समय हमारा चेतन विचार अधिक तार्किक और लकीर पर होता है। हम तय पैटर्न को पहचान सकते हैं और भरोसे के साथ यह समझने के लिए उनका इस्तेमाल कर सकते हैं कि आगे क्या होगा। जैविक विकास में सपने की अहमियत हमारे ज़िंदा रहने से है। हालाँकि आदिम मानव के सामने जैसे खतरे थे, वैसे आज नहीं हैं, और ज़िंदा रहने के लिए सपने देखने की ज़रूरत अब नहीं है। फिर भी सपनों की वही अहमियत है, क्योंकि जीवन में हर बात पहले से तय नहीं होती और अचानक आई चुनौती से जूझने के लिए ज़ेहन में 'छिपे' कोड से हमें मदद मिलती है। खतरा न हो तो भी खुद को अपने सपनों के माध्यम से समझ कर हम गहरी सोच के क़ाबिल बन पाते हैं।
जिन लोगों में दूसरों के लिए अधिक सहानुभूति होती है वे सपने ज़्यादा साझा करते हैं। पाया गया है कि जो दंपति आपस में सपने साझा करते हैं, उनमें अंतरंगता अधिक होती है। रोज़ाना ज़िंदगी की घटनाओं के साझा करने के बनिस्बत ख़्वाब साझा करना अंतरंग होने पर ज़्यादा असर डालता है। यानी ख़्वाब देखने का मक़सद जगे रहने के हाल में ही पूरा होता है। कई अध्येता इसे खुद को परिवार में बाँधने से जोड़ते हैं, ठीक वैसे ही जैसे हमने पालतू जानवरों को अपने साथ बाँधा है। सामाजिक जीवन में ख़्वाब हमारे लिए फायदेमंद होते हैं, क्योंकि उनमें साथ जीने के लिए ज़रूरी जज़्बात गहन रूप से शामिल होते हैं।

सपनों की न्यूरो-केमिस्ट्री
ज़ेहन के तंत्र में हरकतों के पीछे जिन रसायनों की भूमिका होती है, उनमें न्यूरो-ट्रांसमिटर अहम हैं। इनके प्रवाह से ही हमारे एहसास और ज़ेहन में आते खयाल और उनसे तैयार हुई जिस्मानी हरकतें होती हैं। आर-ई-एम के दौरान न्यूरोट्रांसमीटर डोपामिन (मक़सद पाने की खुशी और हलचल से जुड़ा) और एसिटाइल-कोलाइन (स्मृति से जुड़ा) की मात्रा बढ़ जाती है। साथ ही जज़्बात को हद में सँभाले रखने वाले हिस्सों - लिम्बिक सिस्टम, एमिग्डाला और वेंट्रो-मीडियल प्री-फ्रंटल कॉर्टेक्स, में हरकतें बढ़ जाती हैं। इसके उलट निजी अंतर्दृष्टि, तर्कशीलता और सही निर्णय लेने वाले हिस्से, डॉर्सो-लेटरल प्री-फ्रंटल कॉर्टेक्स, में हरकत कम हो जाती है; इसी तरह सावधानी और आत्म-नियंत्रण से जुड़े नॉर-एड्रीनलिन और सेरोटोनिन की मात्रा कम हो जाती है। सेरोटोनिन की कम मात्रा की वजह से ग्लूटामेट लगातार पैदा होता रहता है, जो ज़ेहनी हरकतों को ज़्यादा सरगर्म कर देता है, जैसा कि नशीले पदार्थ यानी हैलुसीनोजेन के सेवन से संज्ञान और एहसास पर असर पड़ता है। यानी आर-ई-एम नींद में, जज़्बात वाले केंद्र ज़्यादा सक्रिय होते हैं, जबकि हमारे चिंतनशील तर्कसंगत केंद्र बाधित होते हैं। अपने तजुरबों में आए जज़्बात और क्रियाओं के अंतहीन मायनों पर सोचने की हमें खुली छूट मिल जाती है, लेकिन चिंतनशील अंतर्दृष्टि में बेहद उतार-चढ़ाव चलता रहता है।
छवियों पर संजीदगी से सोचने की क़ाबिलियत से ज़ेहन को परे कर, सपनों की न्यूरो-केमिस्ट्री गहन जज़्बात के हालात पैदा करती है। जितना ज़्यादा नशीला ख़्वाब हो, उतना ही मुश्किल उसे समझ पाना होता है। अक्सर समझ न पाने से हम इसे ज़्यादा अहमियत भी देने लगते हैं। शायद इसी वजह से अक्सर मानसिक बीमारी वाले लोगों में धार्मिक विश्वास ज़्यादा पाए जाते हैं। पुराने ज़मानों में इंसान ने ख़्वाबों को अलौकिक से जोड़ कर देखा होगा। ख़्वाबों की ऐसी व्याख्या जिसमें से बेइंतहा कर्मकांडी रीतियाँ निकलीं, ये सब पूर्वजों के लिए अहमियत रखते थे।

फ्रायड की वापसी
एक अरसे से खारिज फ्रायड का सिद्धांत फिर से वापस सोचा जा रहा है कि सेक्स और हमारे ख़्वाबों में गहरा रिश्ता है। फ्रायड सपनों के ज़रिए खुद पर निष्पक्ष नज़र डालता था। यदि उसे सपनों में यौन आवेगों का उफान दिखा, तो ऐसा ही था। आवेगों को मन की एक बड़ी तस्वीर में समेटना, समझा और समझाया जाना था। फ्रायड की नज़र में ख़्वाब सेक्स की हसरत पूरी करते हैं। उसका सिद्धांत खयालों के खास मेल पर आधारित था, जिसकी अंतहीन व्याख्या हो सकती थी। इसकी ढेर आलोचना हुई। फ्रायड के सिद्धांतों को इतिहास के कूड़ेदान में फेंक दिया गया - वे विज्ञान नाम के लायक भी नहीं रहे। यह 1953 के बाद पूरी तरह से शुरू हो गया, जब शिकागो विश्वविद्यालय के फिजियोलॉजिस्ट नथानिएल क्लिटमैन और उनके छात्र यूजीन एसेरिंस्की ने उजागर सपनों की पकड़ के रूप में आर-ई-एम की खोज की। इस घटना की साफ जिस्मानी समझ फ्रायड के यौन सिद्धांत को उलट देती है।
दरअसल आर-ई-एम सपन-पहेली का एक अहम हिस्सा है - और यह आसानी से फ्रायड के सिद्धांतों के साथ रह सकता है। कुल मिलाकर सपनों का एक गहरा अचेतन अर्थ और मक़सद है, जो जैविक विकास में निहित है - किसी न किसी तरह, सपनों ने हमें बचे रहने में मदद की। कई अध्ययनों में यह देखा गया है कि सपने और उनके अचेतन यौन-अर्थ एक संपूर्ण कहानी का हिस्सा हैं। आर-ई-एम शुरू होने पर मर्दों को अक्सर शिश्न के खड़े होने (इरेक्शन) और औरतों को भगशेफ (क्लिटरिस) के फूलने का अनुभव होता है। हाल में चुंबकीय अनुनाद इमेजिंग (FMRI) अध्ययनों से पता चलता है कि आर-ई-एम नींद के दौरान ज़ेहन के मक़सद पा लेने से खुशी वाले हिस्से, और सर्किट (तंत्र), बहुत सक्रिय होते हैं। पुरुष और महिलाएं बिल्कुल अलग-अलग तरह के सपने देख सकते हैं, जिसमें सेक्स एक आम बात है। मर्द किसी न किसी तरह के साहसिक चाल में या दीगर मर्दों के साथ मार-काट या नाटकीय संघर्ष में लगे रहते हैं, जबकि औरतें आमतौर पर अपने दोस्तों या अन्य परिचित लोगों के साथ जोश के साथ बातें करती हैं। मुमकिन है कि करोड़ों साल पहले स्वस्थ औरत के साथ संबंध बनाने के लिए मर्द को दीगर मर्दों के साथ लड़ना पड़ता हो। इसी तरह औरत को प्रजनन में क़ामयाबी के लिए दूसरी औरतों के सामने खुद को बेहतर साबित करना पड़ता हो। इस तरह जैविक विकास के साथ यह हमारे ख़्वाब का अभिन्न हिस्सा हो गई हैं।
ऐसे प्रमाण हैं कि आर-ई-एम नींद और सपनों के दौरान सेक्स-हार्मोन में उफान आता है। नींद आते ही तेजी से प्रोलैक्टिन की मात्रा में बढ़त होती है, जो माँ को दूध पैदा करने में सक्षम बनाता है और अंडकोष को उत्तेजित करता है, और सुबह 3 से 5 बजे के बीच यह चरम पर होता है, जब आर-ई-एम प्रबल होता है। नींद की कमी से प्रोलैक्टिन अवरुद्ध हो सकता है। इसी तरह, ऑक्सीटोसिन, जो सेक्स के दौरान बंधन से जुड़ा होता है, और टेस्टोस्टेरोन, जो सेक्स-ड्राइव से जुड़ा होता है, दोनों सुबह लगभग 4 बजे चरम पर होते हैं। यह सब एफ-एम-आर-आई स्कैन के साथ मेल रखता है जो आर-ई-एम नींद के दौरान ज़ेहन के बीच वाले हिस्से की चरम सक्रियता को दर्शाता है - खास तौर पर जो आनंद, नशीली दवाओं की लत और सेक्स में शामिल सर्किट वाला हिस्सा है।
अगर ख़्वाब और सेक्स में गहरा रिश्ता है तो आर-ई-एम का सबसे लंबा दौर आखिरी पहर में क्यों होता है, जब जिस्म की रगें बेजान सी होती हैं और जिस्म में ताप-नियंत्रण की क्षमता कम होती है? इसी दौर में दिल पर भी झटके आते हैं। अक्सर लोगों को दिल के दौरे भोर से पहले या रात के आखिरी पहर में आते हैं। आखिर जैविक विकास ने हमारे साथ ऐसा क्यों किया? ज़ाहिर है कि आर-ई-एम नींद की कोई खास अहमियत होगी। डारविन ने इस ओर संकेत किया था। उसने संभोग के लिए साथी के चयन और प्रजनन को विकास के साथ जोड़ा था। जैसे शिकारियों के हाथ दबोचे जाने के डर के बावजूद मोर जैसे पंछी पंख फैलाकर अपना यौन-साथी ढूँढते हैं, इसी तरह इंसान को ख़्वाब में वह तैयारी होती है जिससे वह जागने के बाद बेहतर साथी चुन सके और प्रजनन के ज़रिए प्रजाति को अगली पीढ़ियों तक बढ़ा सके, जो अनुकूल परिवेश में ज़िंदा और सुरक्षित रह सकें। आर-ई-एम नींद के दौरान पक्षाघात एक विकासवादी सुरक्षा है, जो हमें ख़्वाबों को पूरा करने और अपने साथी को नुकसान पहुंचाने से रोकने के लिए है। अगर यह नहीं होता तो हम दूसरों से लड़ते-भिड़ते रहते। फ्रायड पहला शख्स था जिसने मानस को दीर्घकालिक यौन-छलों द्वारा प्रेरित नर-नारी संघर्ष और सहयोग के क्षेत्र के रूप में देखा। यह शाश्वत नृत्य ज़ेहन के मांस-मज्जे में लिखा जाता है और रात को अशांत सपन-क्षेत्र में दोहराया जाता है। तो सपने क्या हैं? ये महज यौन इच्छाएँ नहीं, बल्कि प्रतिस्पर्धियों के लिए लड़ाकू हरकत भी हैं। ख़्वाब में हम महज नाचते नहीं : हम खुले साँड़ बन जाते हैं।
सपनों की विविधता से पता चलता है कि जैविक सेहत के लिए ख़्वाब देखना उतना ही अहम है जितना कि जागना है, और मुमकिन है कि इसमें कई ज़रूरी तंत्र और क्रियाएँ भागीदार हों। मसलन नींद में डरावने खतरों वाले सपने देखने से हमें दिन में उन खतरों से बचने में मदद मिलती है, और पहले से सामना किए गए सपने के किरदार या परिवेश बार-बार देखने से सपने देखने की संज्ञानात्मक तासीर के संयोजन या बदलने का काम चलता रहता है।
हम हर वक्त सपने देखते हैं। हालाँकि सपने सितारों की तरह होते हैं जो केवल रात में ही उभरते हैं, वाक़ई तारे हमेशा मौजूद रहते हैं, भले ही दिन का उजाला न हो। इसी तरह, सपने चेतना में हमेशा एक बहाव की तरह मौजूद रहते हैं, भले ही जागने से अस्पष्ट हो जाते हैं। युंग ने इस अंतर्धारा को जाग्रत स्वप्न कहा है। सच्चाइयों से दूर ले जाने वाले दिवास्वप्नों से उलट, जाग्रत स्वप्न उन अनुभवों और अंतर्धाराओं में हमें अधिक गहराई से बुलाता है। जाग्रत स्वप्न कला, खेल, कल्पना, अंतरंगता, आध्यात्मिक प्रथाओं और नींद की सीमाओं से जुड़ी चेतना की एक कुदरती दशा है।
जानवर भी सोते हुए वास्तविक दुनिया को छोड़कर खुद को कल्पना-लोक को सौंप देते हैं। यह शोध का मौजू है और बहुत सारी जानकारी इकट्ठी हुई है, जिससे जानवरों को समझते हुए हम अपने ज़ेहन और ख़्वाब के बारे में भी जान पाए हैं।

आखिर में - सपन और भक्ति
ज़ेहन और चेतना का सवाल आज के वक्त का सबसे बुनियादी सवाल है। इस पर कई विधाओं का मिला-जुला शोध चल रहा है और जानकारी तेज़ी से बढ़ रही है। एक रोचक बात यह कि ऐसा दावा किया गया है कि सूफी चिंतन, ख़्वाब और फ्रायड में गहरा रिश्ता है। एक मायने में हर सूफी गुरु, फ्रायडियन मनोचिकित्सक है। इस्लामी विचारकों ने सपनों की व्याख्या की साझा परंपराओं के साथ-साथ धार्मिक ज्ञान के अव्यक्त और ज़ाहिर मायनों के बीच रिश्ते के ज़रिए ग्रंथों और सपनों को समझने की साझा तकनीक की ओर इशारा किया है। 1950 के दशक में मिस्र के सूफी संप्रदाय के शेख और बाद में काहिरा विश्वविद्यालय में इस्लामी दर्शन के प्रोफेसर अल-तफ्ताज़ानी, ने सूफीवाद और मनोवैज्ञानिक परंपरा की तुलना की है। उसने कहा कि दोनों में खुद की परख अहम है; दोनों मानस या रूह (नफ्स) की ज़ाहिरा बातों के साथ नहीं, बल्कि इसकी छिपी बातों के साथ जुड़े हुए थे, एक कूप जो अक्सर यौन इच्छाओं द्वारा चिह्नित होता है। अहम बात यह है
कि दोनों में 'बातिन' या गूढ़ मायने के दायरे के साथ-साथ चेतन (अल-ला-शुऊर) की गहराई में पहुँचने की कोशिश है। सूफी शेख को अपने दरवेश से अचेतन विचारों और ख़्वाहिशों का पता लगाना होता है। ज़ाहिर है कि सूफीवाद और फ्रायडवाद में क़रीब का रिश्ता है। बेशक ऐसे ही संबंध भक्ति-आंदोलन में भी मिल सकते हैं।

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