बीच
में कहीं बैठा हूँ
बसंत
बहुत पहले चला गया, ग्रीष्म
जा चुका है, वर्षा
आखिरी दिनों में है,
देखता
हूँ कि धरती और आस्मान रूपरंग
बदलते चले हैं
बीच
में कहीं बैठा हूँ कि कविता
लिखूँ
कहीं
'हरी
घास पर क्षण भर' या
कि बादलों पर सवार।
दुनिया
है ऐसी कि उसमें एक देश मेरा
है
चाहूँ
न चाहूँ उसी में रहना है
हो
न हो उसे महान कहना है
देखता
हूँ कि यहाँ हर कुछ बदल रहा है
बहुत
कुछ देखता हूँ
खुद
दृश्य बन जाता हूँ कभी
दिलो-दिमाग
मेरे हैं या किसी और के
किसकी
पीड़ा के गीत गाता हूँ खबर नहीं
है
चाहता
हूँ कि सबको बहुत सा प्यार दूँ
जब
हर कहीं हर कुछ जल रहा है
शरद
आएगा तो क्या लिखूँगा
सोचने
से पहले फिक्र है कि क्या बचेगा
कुछ
बचेगा भी क्या बहुत फिक्र है
चाह
कर भी किसी से कर पाऊँगा प्यार
क्या
देखता
हूँ कि धरती और आस्मान रूप-रंग
बदलते चले हैं
बीच
में कहीं बैठा हूँ कि कविता
लिखूँ
गूँज रहा चारों ओर शैतान का
अट्टहास। - (अदहन -2018)
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