'समकालीन जनमत' के ताज़ा अंक में प्रकाशित आलेख
प्राथमिक शिक्षा में निजीकरण और कॉरपोरेटीकरण
प्राथमिक शिक्षा में निजीकरण और कॉरपोरेटीकरण
अंग्रेज़ी
राज के पहले भारतीय उपमहाद्वीप
में शुरुआती तालीम के पारंपरिक
तरीके थे। मदरसे और टोल जैसे
औपचारिक ढाँचे कम ही थे।
ज्यादातर बच्चों को स्थानीय
ज़मींदारों के संरक्षण में
अध्यापक दोहों, चौपाई
आदि में मामूली हिसाब और
धर्म-कथाएँ
सिखाया करते थे। जाति-समाज
में हर पेशे में एक से दूसरी
पीढ़ी तक जातिगत काम की तालीम
अनौपचारिक तरीकों से चलती
रही। जाहिर है कि जाति-लिंग
आदि सभी विषमताओं के साथ औपचारिक
साक्षरता के न होते हुए भी सब
कुछ लीक पर चल ही रहा था,
तो औसतन
हर किसी को दुनियादारी की कुछ
तालीम तो मिलती ही थी। सामंती
समाज की ज़रूरतों के मुताबिक
राजा और प्रजा को मिलने वाली
तालीम की सीमाएँ तय थीं। फिर
भी सृजनात्मक साहित्य और कला
के फलने-फूलने
के तरीके मौजूद थे। आज़ादी
की लड़ाई के दौरान हर किसी को
तालीम की सुविधा दिलवाने के
लिए लगातार चिंतन और आंदोलन
होते रहे। जिस मैकॉले को दानव
की तरह पेश किए जाना आम बात हो
चुकी है, उसने
भी 1835 के
अपने कुख्यात मेमोरेंडम में
अंग्रेज़ी में ऊँची तालीम और
आधुनिक ज्ञान दिए जाने के
प्रस्ताव में यह तय रखा था कि
किसी दिन अंग्रेज़ी पढ़े
हिंदुस्तानी ऐसे तरीके निकालेंगे
कि यह ज्ञान देशी ज़ुबानों
में लिखा जाए, ताकि
ज्यादा से ज्यादा हिंदुस्तानी
इसका फायदा उठा सकें। ऐसा कहीं
भी लाजिम नहीं माना गया था कि
हर किसी को शुरुआत से ही अंग्रेज़ी
सीखनी पड़े। जोतिबा फुले,
दादा भाई
नौरोजी, रवींद्रनाथ
ठाकुर, आंबेडकर,
मौलाना
आज़ाद और गाँधी के अलावा
मुख्यधारा की राजनीति में हर
बड़े नेता ने तालीम का मसला
उठाया। हर बच्चे को मुफ्त
शिक्षा मिलने की बात बार-बार
की गई। 1947 में
आज़ादी के वक्त औपचारिक साक्षरता
दर 12-14 फीसद
थी। चूँकि आज़ादी की लड़ाई में
मुक्तिकामी ताकतों की अग्रणी
भूमिका थी, इसलिए
आज़ादी के तुरंत बाद बड़ी तादाद
में सरकारी और सरकारी मदद से
चलने वाले गैर-सरकारी
स्कूल खोले गए, जिनमें
तक़रीबन मुफ्त की तालीम लेकर
नया मध्य-वर्ग
बना, जिसमें
से आलमी पैमाने के अदीब,
साइंसदाँ
आदि बने। पर चूँकि समाज जाति
और वर्ग-आधारित
था और स्त्रियों के अधिकार
नहीं के बराबर थे, इसलिए
बड़ी तादाद में शिक्षा के प्रसार
को कभी गंभीरता से नहीं लिया
गया। जल्दी ही निजी क्षेत्र
को बढ़ावा दिया जाने लगा। पहले
जहाँ नामी-गिरामी
सामंत-परिवारों
के लिए दून स्कूल जैसे एक-दो
निजी स्कूल थे (विड़ंबना
यह कि उनको इंग्लैंड की तर्ज
पर पब्लिक स्कूल कहा जाता था)
, या शहरी
उच्च-मध्य-वर्ग
के बच्चों के लिए एक-दो
कॉन्वेंट स्कूल थे, अस्सी
के दशक के बाद से दनादन निजी
स्कूल बढ़ते गए और नब्बे के बाद
नवउदारवादी अर्थ-व्यवस्था
और ग्लोबलाइजेशन के बाद से
उनकी बाढ़ ही आ गई।
निजी
स्कूलों की तादाद में बढ़त की
दो मुख्य वजह थीं - एक
तो यह कि इनमें से ज्यादातर
खुद को अंग्रेज़ी माध्यम का
स्कूल घोषित करते हैं और आम
लोगों में यह स्पष्ट हो गया
था कि भारत का शासक-वर्ग
देशी ज़ुबानों को अहमियत नहीं
देता है। इसलिए 'प्राइवेट'
का मतलब
आम तौर पर अंग्रेज़ी माध्यम
मान लाया जाता है। हालाँकि
मिशनरी स्कूलों की तरह ही
उत्तर भारत में आर एस एस ने
अपनी फासीवादी और सांप्रदायिक
विचारधारा फैलाने के लिए
सरस्वती शिशु मंदिरों की जो
शृंखला चलाई, उनमें
से ज्यादातर हिंदी माध्यम के
स्कूल ही थे। दूसरी वजह यह थी
कि सरकारी स्कूलों की बेहतरी
तो क्या, उनका
हाल जस का तस बनाए रखने में भी
सरकारें कतराने लगीं। जैसे-जैसे
गाँवों का शहरीकरण होने लगा
और पूँजीवादी विकास के अपने
नियमों मुताबिक सामंती समाज
में बदलाव आने लगे, आम
लोगों में भी स्कूली तालीम
के प्रति जागरुकता बढ़ी।
लोकतांत्रिक दबावों से सरकार
को स्कूलों में भर्ती बढ़ानी
पड़ी, इससे
स्कूलों पर दबाव बढ़ा, पर
सरकारी स्कूलों की संख्या
में कोई खास बढ़त नहीं हुई,
न ही अध्यापकों
की संख्या में बढ़त हुई। कुल
मिलाकर सरकारी स्कूलों की
हालत बिगड़ती चली। यह भी सही
है कि अक्सर अध्यापकों में
पहले जैसी प्रतिबद्धता का
अभाव है, और
सरकारी स्कूलों में कई जगह
तालीम का म्यार गिरता चला।
ऐसा हर कहीं नहीं हुआ,
ज्यादातर
स्कूलों में बेहतर तालीम जारी
थी, अध्यापक
मेहनती हैं, पर
बढ़ते हुए मध्य-वर्ग
में अंग्रेज़ी दौड़ की ललक और
आपा-धापी
के साथ यह कुप्रचार बढ़ता चला
कि सरकारी स्कूलों में अच्छी
पढ़ाई नहीं होती है।
नतीजतन
जहाँ कहीं भी निजी स्कूल खुलते
हैं, अपेक्षाकृत
संपन्न वर्ग के बच्चे सरकारी
स्कूलों को छोड़कर निजी स्कूलों
में भर्ती हो जाते हैं। चूँकि
संपन्न वर्ग के परिवारों में
तालीम के बारे में जागरुकता
अधिक होती है या वे ज्ञान-विज्ञान
पर चर्चा करने की थोड़ी-बहुत
काबिलियत रखते हैं, इसलिए
ऐसे परिवार के बच्चों की मौजूदगी
से कक्षा के उन बच्चों को भी
फायदा होता था जो ग़रीब परिवारों
से आते हैं और पढ़ाई का म्यार
बेहतर रहता है। जैसे ही संपन्न
वर्गों के बच्चे स्कूल छोड़ते
हैं, कक्षा
में पाठ-चर्चा
में गुणात्मक गिरावट आती है।
इससे अध्यापक का उत्साह भी
कम हो जाता है। यानी कई ऐसी
वजहें हैं, जिससे
सरकारी स्कूलों में संकट बढ़ता
रहा। जैसे-जैसे
सरकारी स्कूलों में सिर्फ
ग़रीब बच्चे पढ़ते रहने लगे,
सरकारों
ने भी स्कूलों की बेहतरी की
जिम्मेदारी से अपना पल्ला
झाड़ना शुरु किया। आज़ादी के
बाद संवैधानिक निर्देशों के
मुताबिक जितने शिक्षा आयोग
हुए, हर
किसी ने शिक्षा पर सकल उत्पाद
का 6 फीसद
लगाने की बात कही है, पर
पहले ही सरकार ने यह कभी पूरा
नहीं किया और अब तो हालत ऐसी
है कि सरकार इसे कोई प्राथमिक
मुद्दा ही नहीं मानती। लब्बोलुबाब
यह कि सरकारी स्कूलों की हालत
लगातार बिगड़ते रहने से आम
लोगों को लगने लगा कि प्राइवेट
स्कूल ही पढ़ाई के बेहतर माध्यम
हैं। जैसे-जैसे
सरकारी स्कूलों में बच्चों
की संख्या कम होती गई,
कई राज्यों
में सरकार ने या तो कुछ स्कूल
बंद कर दिए या फिर आस-पास
के स्कूलों को मिलाकर (विलयन
या मर्जर) एक
स्कूल करना शुरु कर दिया।
पहले
निजी या गैर-सरकारी
स्कूल का मतलब किसी ट्रस्ट
द्वारा समाज के हित में चलाया
जा रहा स्कूल होता था। नब्बे
के दशक के बाद से मुक्त बाज़ार
की धारणा के साथ शिक्षा का
बाज़ारीकरण भी बड़े पैमाने
में होने लगा। कई लोगों ने इसे
धंधे की तरह देखा। नौकरी न
मिलने की स्थिति में लोग स्कूल
खोलने लग गए। जगह-जगह
बोर्ड लगाकर इंग्लिश मीडियम
प्राइवेट स्कूल शुरु हो गए।
2003 तक
ही ऐसे अध्ययन सामने आ गए कि
हैदराबाद जैसे शहर में छात्रों
का 61% निजी
स्कूलों में है। इन स्कूलों
में झुग्गियों में रहने वाले
ग़रीब परिवारों के बच्चे भी
पढ़ने लगे थे। जाहिर है कि ऐसे
स्कूलों का म्यार बहुत ही
घटिया था, पर
ऐसा माहौल बन गया कि लोग अपने
बच्चों को इन स्कूलों में
भेजने लगे। इन स्कूलों में
अध्यापकों को कागज़ात पर साइन
करवाकर घोषित तनख्वाह से बहुत
कम पैसे दिए जाते हैं। वे सही
तरीके से प्रशिक्षित नहीं
होते हैं और किसी तरह का कोई
संगठन का अधिकार उनके पास नहीं
होता है। इन स्कूलों में
छात्र-अध्यापक
अनुपात काफी ऊँचा होता
है और बुनियादी सुविधाएँ बहुत
ही कम होती
हैं। इसलिए
सचमुच पढ़ाई का सही माहौल इन
स्कूलों में नहीं होता है।
चूँकि
प्राइवेट स्कूलों की फीस
ज्यादा होती है, इसलिए
आम माँ-बाप
लड़कियों को वहाँ नहीं भेजते,
सिर्फ
लड़कों को भेजते हैं। इसी तरह
जाति और वर्ग की खिचड़ी वाले
इस देश में निजीकरण से जातिगत
भेद भी बढ़ता है, चूँकि
अधिकतर पिछड़ी जातियों के बच्चे
ऐसे स्कूलों में नहीं आ सकते।
गैरबराबरी वाले समाज में
सरकारी स्कूलों से भी मुक्तिकामी
तालीम की अपेक्षा रखना बेमानी
है, निजी
और कॉरपोरेट स्कूलों में तो
यह पूरी तरह से नामुमकिन है।
आखिर स्कूल ही वह सांस्थानिक
औजार है, जिसके
जरिए खास किस्म के मूल्यों
का वर्चस्व पनपता है। सरकारों
को खुला छोड़ दिया जाए तो तालीम
और स्कूली व्यवस्था नवउदारवादी
हमले से बच नहीं सकती,
जिससे समाज
में गैरबराबरी बढ़ती ही रहेगी।
इसके
साथ ही कॉरपोरेटाइज़ेशन की
प्रवृत्ति भी बढ़ने लगी। आज
देश में 300 ऐसे
स्कूल हैं, जहाँ
नर्सरी में भर्ती के दौरान
ही दस लाख रुपए या ज्यादा फीस
है। इन्हें इंटरनेशनल बैकॉलॉरिएट
प्रोग्राम के अंतर्गत चलाया
जाता है। ऐसे स्कूल ज्यादातर
कॉरपोरेट घरानों के नियंत्रण
में चलते हैं। इनके अलावा देश
में दसों हजारों ' इंटरनेशनल'
स्कूल हैं,
जो हाई
स्कूल की डिग्री सीनियर केंब्रिज
जैसे बाहरी बोर्ड से दिलवाते
हैं। सीबीएसई के अंतर्गत आने
वाले स्कूलों में भी कॉरपोरेट
घरानों के नियंत्रण में चलने
वाले स्कूलों की संख्या लाख
से ज्यादा ही होगी।
यह
सवाल उठ सकता है कि अगर इन
स्कूलों में अच्छी पढ़ाई हो
रही है तो दिक्कत क्या है। और
अब तो शिक्षा अधिकार कानून
के मुताबिक 25 फीसद
सीटें ग़रीब बच्चों के लिए
सुरक्षित हैं। इसे समझने के
लिए हमें कई बातें विस्तार
से समझनी होंगी। सबसे पहले
तो यह स्पष्ट होना चाहिए कि
25 फीसद
सीटों वाला शिक्षा अधिकार
कानून बड़ा धोखा है। जिस देश
में तक़रीबन आधी जनता ग़रीबी
की रेखा से नीचे है, वहाँ
प्राइवेट स्कूलों में 25
फीसद सीटों
में नाममात्र के ही बच्चे
शामिल हो सकते हैं। इन सभी
बच्चों की तालीम की जिम्मेदारी
सरकार की है और सरकार ने न केवल
अपनी जिम्मेदारी से कन्नी
काट ली है, बल्कि
जनता का पैसा निजी और कॉरपोरेट
घरानों को दे रही है! जो
ग़रीब बच्चे इन प्राइवेट स्कूलों
में आ भी जाते हैं, उनके
साथ भेदभाव होता है, जिससे
उनका आत्म-विश्वास
गिरता रहता है और कई थक-हार
कर पढ़ाई छोड़ देते हैं। इसलिए
यह नीति समावेशी नहीं,
बल्कि
बहिष्करण की नीति बन चुकी है।
आज देश भर में कक्षा
I
से
V
तक
सकल नामांकन अनुपात (जी
ई आर)
99.2 फीसद
है,
पर
दसवीं कक्षा में आने से पहले
ही 60
फीसद
बच्चे स्कूल छोड़ देते हैं।
शिक्षा
अधिकार कानून
में
अगर कुछ बेहतर सोचा भी गया था,
जैसे
स्कूल के इनपुट्स
पर जोर डाला गया है,
कि
स्कूल बनाने,
अध्यापकों
की भर्ती,
खेलने
के मैदान और लाइब्रेरी जैसी
चीज़ों पर संसाधन लगाए जाएँ,
इन
सब पर कोई ध्यान नहीं दिया जा
रहा है और नीति आयोग द्वारा
प्रस्तावित कदमों में इनको
नज़रअंदाज कर फोकस को तालीमी-नतीजों
पर लाने का सुझाव दिया गया है।
पहली
नज़र में नतीजों
पर ध्यान
देना सही लगता है,
पर
इसमें घपला यह है कि संसाधनों
को कम करने पर नतीजे
अच्छे मिल ही नहीं सकते। अभी
जो थोड़ा बहुत सरकारी
नियंत्रण इन
स्कूलों पर है,
उसे
भी हटाने की बात कही गई है।
नवउदारवादी
ग्लोबलाइज़ेशन के साथ तथाकथित
मुक्त बाज़ार को बढ़ाने वाले
इसे तरक्की और खुलेपन की दिशा
कहते रहे हैं,
पर
दरअसल इससे व्यापक समाज
ज्ञानात्मक
रूप
से पिछड़ता जा रहा है। कितनी
विडम्बना है कि समाज के आगे
बढ़ने के साथ-साथ
तो तालीम के प्रति पूरे नज़रिए
और अपेक्षाओं में भी विस्तार
होना चाहिए था लेकिन बाज़ार
उसे संकुचित ही करता जा रहा
है।निजी
स्कूलों में अंग्रेज़ी के
साथ-साथ
ऐसी संस्कृति सिखाई जाती है,
जिससे
बच्चा न घर का न घाट का होकर
रह जाता है। बच्चे
न तो अपनी मादरी ज़ुबान में
और न ही अंग्रेज़ी में महारत
ले पाते हैं। सरकारी
नियंत्रण के हट जाने पर
फिरकापरस्ती,
लैंगिक
और जातिगत भेदभाव जैसी समस्याएँ
बढ़ती रहती हैं और बचपन से ही
बच्चों को ग़लत तालीम मिलती
है। कई
गंभीर शोध-अध्ययनों
में पाया गया है कि जहाँ भी
सरकारी स्कूलों में संसाधनों
की स्थिति बेहतर है,
वहाँ
बच्चों को कहीं ज्यादा संसाधन
वाले निजी स्कूलों की तुलना
में बेहतर तालीम मिल रही है।निजी
स्कूलों में पढ़ाई अच्छी हो
रही है यह खयाल
भी
एक नव-उदारवादी
मिथक ही है। जहाँ
बहुत अच्छे अध्यापक हैं और
उनको अच्छी तनख़्वाह देने के
लिए और दूसरे संसाधनों को
जुटाने में लाखों रुपयों की
फीस ली जाती है,
वहाँ
ठीक पढ़ाई हो रही है,
पर
ज़्यादातर
निजी स्कूलों में अच्छी पढ़ाई
के चालू आमफहम
पैमानों
पर भी अच्छी पढ़ाई नहीं होती।
दूसरी बात यह
कि
तालीम के मायने ही इतने संकुचित
होते जा रहे हैं। यानी अच्छी
पढ़ाई वाकई किसे कहेंगे यह
भी एक मानीखेज़ सवाल है।
नव-उदारवादी
विमर्श ने इस परिभाषा को संकुचित
किया है,
लेकिन
बात उससे भी कहीं पुरानी है।
फुले ने अपनी एक रचना में लिखा
था कि उनके उच्च जाति के मित्र
चाहते थे कि उनके स्कूलों में
बच्चों को महज़ कुछ अक्षर-ज्ञान
व हिसाब-किताब
करना सिखा दिया जाए जबकि फुले
का मत था कि तालीम को व्यक्ति
में सही-गलत
का भेद करने का विवेक पैदा
करना चाहिए। यानी कि एक अर्थ
में सत्तापक्ष का विमर्श तालीम
को हमेशा ही एक छोटे दायरे में
रख कर देख रहा था।
पूँजीवादी
मुल्कों में सबसे ऊपर आने वाले
मुल्कों में भी सरकारी खर्च
से समान स्कूल व्यवस्था लागू
है। फिनलैंड जैसे आदर्श मुल्क
को छोड़ भी दें, जहाँ
तालीम की सारी जिम्मेदारी
सरकार की है और हर बच्चे को
मुफ्त तालीम मिलती है,
यू एस ए तक
में तक़रीबन तीन चौथाई बच्चे
'पड़ोसी'
स्कूलों
में पढ़ते हैं, जहाँ
किताब कापी, पेन,
पेंसिल
तक भी सरकार से मिलते हैं।
भारत जैसे मुल्क में शिक्षा
में निजीकरण का बढ़ना शर्मनाक
है। पर जब तक सरकारी स्कूल
बदहाल रहेंगे, हम
किसी से यह नहीं कह सकते कि आप
बच्चों को निजी स्कूलों में
मत भेजिए। इसलिए इलाहाबाद
उच्च-न्यायालय
ने दो साल पहले यह आदेश दिया
था कि सभी सरकारी कर्मचारी
अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों
में भेजें, ताकि
उनके प्रभाव से इन स्कूलों
की हालत में सुधार हो।
कई
लोग कहते हैं कि निजी स्कूल
बंद कर दिए जाने पर उन करोड़ों
अध्यापकों और कर्मचारियों
का क्या होगा जो वहाँ काम कर
रहे हैं। यह कोई सवाल ही नहीं
है। स्कूल बंद करने की बात
नहीं है, स्कूलों
को पूरा तरह सरकार के नियंत्रण
में होना चाहिए, ताकि
वहाँ अध्यापकों के प्रशिक्षण
और सही पाठ-चर्या
का ध्यान रखा जाए और तालीम का
म्यार बढ़े। स्थानीय तौर पर
पालकों और अध्यापकों को
स्वायत्तता होनी चाहिए,
पर संसाधन
और म्यार की ओर सरकार की नज़र
रहनी चाहिए।
पूरी
तरह निजीकरण के अलावा पीपीपी
यानी पब्लिक-प्राइवेट
भागीदारी में भी स्कूल चलाने
के लिए सरकारें कदम उठा रही
हैं। अज़ीम प्रेमजी फाउंडेशन
एक ऐसा कॉरपोरेट घराना है,
जिन्होंने
निजी स्कूल न खोलकर सरकारी
स्कूलों की बेहतरी का बीड़ा
उठाया है। पर इसका मतलब यह है
कि सरकार की तमाम जिम्मेदारियों
को, जैसे
अध्यापकों का नियमित प्रशिक्षण,
पाठ-चर्या
में बेहतरी आदि को उन्होंने
अपनाना शुरु किया है। यह सही
है कि इसके लिए वे सरकार से
पैसे नहीं लेते हैं, पर
अगर बड़े पैमाने पर यह चलता रहा
तो तालीम के सभी सरकारी सारे
ढाँचे तबाह हो जाएँगे।
इन
समस्याओं का निदान क्या है?
गैरबराबरी
पर आधारित समाज में किसी और
सामाजिक समस्या की तरह तालीम
की लड़ाई भी एक राजनैतिक लड़ाई
है। इसलिए देशभर में लाखों
लोग तालीम में बेहतरी के लिए
संघर्ष कर रहे हैं। कई
सामाजिक-राजनैतिक
संगठनों ने मिलकर अखिल भारत
शिक्षा अधिकार मंच (अभाशिअमं) बनाया है,
जिसके झंडे
तले अनेकों संगठन सरकारी स्कूल
बंद किए जाने या उनके विलयन
के खिलाफ लड़ रहे हैं। अक्सर
उन्हें बड़ी सफलता भी मिली है,
जैसे 2012
में महाराष्ट्र
के थाणे में 1200 म्युनिसिपालिटी
स्कूलों को पीपीपी में बदलने
के खिलाफ संघर्ष हुआ और सरकार
को यह निर्णय वापस लेना पड़ा।
इसी तरह कर्नाटक, आंध्र
प्रदेश और तेलंगाना राज्यों
में संघर्ष करते हुए कई सरकारी
स्कूलों का बंद होना रोका गया।
आम
नागरिक को शिक्षा से वंचित
रखना संपन्न वर्गों और जातियों
का खुला षड़यंत्र है। शिक्षा
का निजीकरण और कॉरपोरेटाइज़ेशन
इसी षड़यंत्र का हिस्सा है।
नवउदारवादी अर्थ-व्यवस्था
ने समाज में खाइयाँ बढ़ाई हैं
और आम नागरिक को महज उत्पादन
के लिए कच्चे माल की तरह देखा
जा रहा है। बहुत महँगे स्कूलों
में कल के मालिक पैदा हो रहे
हैं और सस्ते निजी स्कूलों
में मजदूर। यह निजीकरण और
कॉरपोरेटीकरण का सीधा परिणाम
है। इसे रोकने के लिए जनपक्षधर
ताकतों के पास संघर्ष के अलावा
कोई विकल्प नहीं है। अभाशिअमं
ने दिल्ली में अगली 18
फरवरी को
इन सभी मुद्दों को उठाने के
लिए अखिल भारत हुंकार रैली
का आह्वान किया है और सैंकड़ों
संगठन इसकी तैयारी में जुटे
हैं।
(इस
लेख को लिखने में अखिल भारत
शिक्षा अधिकार मंच के साथियों
से सहयोग लिया गया है)।
- (समकालीन जनमत, 2018)
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