Tuesday, March 21, 2006

एकदिन अनुदैर्ध्य ही सही, अनुत्क्रमणीय रुप से

मुसीबत यह है कि एक तो शिक्षा व्यवस्था पर बहुत सारे लोगों द्वारा बहुत सारी महत्त्वपूर्ण पुस्तकें लिखी जा चुकी हैं। दूसरी बात यह है कि हिंदी में टंकन की आदत न रहने की वजह से ब्लॉग पर विस्तार से कुछ लिख पाना मुश्किल है। मैंने समय समय पर आलेख लिखे हैं, पर कभी ऐसा शोधपरक काम नहीं किया जिसे गंभीर चर्चा के लिए पेश किया जा सके। मतलब यह है कि अनुभवों के आधार पर कुछ दो चार बातें कहनी एक बात है और वर्षों तक चिंतन कर विभिन्न विद्वानों की राय का मंथन कर सारगर्भित कुछ करना या कहना और बात है। जब उम्र कम थी तो हरफन मौला बनने में हिचक न थी। जहाँ मर्जी घुस जाते थे और अपनी बात कह आते थे। पर अब शरीर भी और दिमाग भी बाध्य करता है कि अपने कार्यक्षेत्रों को सीमित रखें। इसलिए शिक्षा व्यवस्था पर सामान्य टिप्पणियाँ या विशष सवालों के जवाब तो चिट्ठों में लिखे जा सकते हैं, पर विस्तृत रुप से लिखने के लिए तो अंग्रेज़ी का सहारा लेना पड़ेगा (मुख्यतः समय सीमा को ध्यान में रखते हुए)।

प्रोफेसर कृष्ण कुमार की पुस्तकें गंभीर शोध पर आधारित हैं और गहन अंतर्दृष्टिपूर्ण हैं। राज, समाज और शिक्षा से लेकर उनकी दूसरी पुस्तकों में शिक्षा व्यवस्था के 'व्यवस्था' पक्ष की गहरी चीरफाड़ है। जो जल्दी टंकन कर सकते हैं या जिनके पास स्कैनिंग की सुविधा उपलब्ध है (हिंदी में स्कैनिंग के बाद वर्ड प्रोसेसिंग का कोई तरीका है क्या?), वे इस दिशा में पहल उठा सकते हैं और ऐसी पुस्तकों में से प्रासंगिक सामग्री सबके लिए उपलब्ध कर सकते हैं। अगर मैं इस काम में पड़ गया तो भई थोड़ा बहुत भी जो गंभीर काम करता हूँ वह रुक जाएगा।

प्रतीक ने लिखा हैः "जहाँ तक विज्ञान शिक्षा का प्रश्न है; जब तक उसे पुस्तकों के पन्नों से निकाल कर प्रायोगिक तौर पर नहीं सिखलाया जाएगा, तब तक उसका कोई ख़ास मूल्य नहीं है।" बिल्कुल सही - मैं फिर एकबार पुरानी बात दुहराऊँगा कि हजारों लोग इस दिशा में काम कर रहे हैं और जिन संस्थाओं का नाम मैंने पिछले चिट्ठे में लिखा था, उन्होंने इसमें अग्रणी भूमिका निभाई है।

प्रतीकः "मेरा मानना है कि मल्टीमीडिया कम्प्यूटिंग के ज़रिए विज्ञान की शिक्षा को विद्यार्थियों के लिए ज़्यादा सरलता से समझने लायक बनाया जा सकता है।"

खुशी की बात यह है कि इस बारे में पिछले एक दशक में ज़मीनी स्तर पर काम कर रहे लोगों में बुनियादी परिवर्त्तन आया है और तकरीबन हर कोई प्रतीक से सहमत होगा। इसके पहले कई लोगों की राय यह थी कि टेक्नोलोजी कुल मिलाकर विपन्न वर्गों के खिलाफ है। अगर हम सावधान न रहे तो बिल गेट्स जैसे लोग सचमुच हमें बेवकूफ बनाते रहेंगे। इसलिए हर किसी को ओपेन सोर्स आंदोलन को गंभीरता से लेना चाहिए। यह समझना ज़रुरी है कि शिक्षा या स्वास्थ्य पर हर सौ रुपया खर्चने के पीछे गेट्स की मंशा लाख कमाने की है।

पर मल्टीमीडिया को निश्चित तौर पर वेट लैब के पूरक के रुप में इस्तेमाल किया जाना चाहिए। 'पूरक के रुप में' - मैं दुबारा इस पर जोर दे रहा हूँ। हो यह रहा है कि पुराने वक्त में गरीब स्कूलों में भी हमलोगों ने जो प्रयोग किए हैं, आजकल अच्छे भले साधनों से युक्त स्कूलों में वे नहीं करवाए जा रहे हैं। जब प्रयोगशाला में गंभीरता से काम करने का पड़ाव यानी हाई स्कूल का समय आता है, अध्यापक, माँ बाप, हर कोई यही चाहता है कि किसी तरह पर्चों में अच्छे नंबर आ जाएँ। इसलिए सारा जोर कोचिंग और रटने पर होता है न कि प्रायोगिक शिक्षा पर। संपन्न घरों में मल्टीमीडिया का इस्तेमाल हो रहा है पर महज सूचना इकट्ठी करने के लिए। चूँकि इन सब बातों पर सैद्धांतिक स्तर पर बहुत कुछ लिखा जाता है, इसलिए अच्छा यह होगा कि लोग अपने अनुभव लिखें। शायद अनुगूँज पर अलग अलग अनुभव इकट्ठे हों तो उनमें से कुछ बात निकलेगी।

प्रतीकः "विज्ञान को रोचक और सरस तरीक़े से समझाने के मामले में रूसी किताबें लाजवाब हैं, ख़ासकर इस विषय पर मीर प्रकाशन की किताबें मुझे निजी तौर पर बहुत रोचक लगती हैं। बस दिक़्क़त यह है कि उनका अनुवाद काफ़ी क्लिष्ट होता है।"

एक जमाना था जब रूसी किताबें पानी के दर पर मिलती थीं। समाजवादी व्यवस्था का यह भी एक पक्ष है। हजार दो हजार नहीं रुस की साम्यवादी सरकार ने करोड़ों पुस्तकें दुनिया भर में मुफ्त बाँटी थीं। जो रुपए दो रुपए कीमत थी, वह स्थानीय कम्युनिस्ट पार्टियों के खजाने भरने के लिए थी। फिर जब उनका आर्थिक ढाँचा चरमराया तो ये किताबें मुफ्त मिलनी बंद हो गईं। मजेदार बात यह है कि रुस से बाहर भी विज्ञान की सबसे लोकप्रिय किताबें रुसी भगोड़ों द्वारा लिखी गईं। जॉार्ज गैमो इनमें प्रमुख हैं। प्रतीक ने अनुवाद का महत्त्वपूर्ण सवाल उठाया है। मैंने अपने एक चिट्ठे में साहित्य अकादमी की 'समकालीन भारतीय साहित्य' में प्रकाशित 'भाषा' शीर्षक कविताओं में से एक पोस्ट की थी। उसमें एक पंक्ति है - 'नहीं पढ़ेंगे अनुदैर्घ्य।' मैं जब १९८८ में हरदा में एकलव्य संस्था में था तो वहाँ डिग्री कालेज के रसायनशास्त्र के शिक्षक ने प्रेम-प्रसंग में आत्म हत्या कर ली। अचानक आपात्कालीन स्थिति में मैंने केमिस्ट्री के २५ लेक्चर हिंदी में लिए। एकलव्य के दफ्तर में एक लड़का था जिसने उसी कालेज से बी एस सी डिग्री ली थी। एकबार मैंने पुस्तक में 'अनुदैर्ध्य' शब्द देखा, समझ में नहीं आया कि शब्द आया कहाँ से - उससे पूछा तो उसने गोलमोल जवाब दिया। बहुत सोच कर मैं समझा कि शब्द गलत छपा है और सही शब्द अनुदैर्ध्य नहीं अनुदैर्घ्य है। अनु यानी पीछा करने वाला - दैर्घ्य का पीछा करने वाला -longitudinal. मैं सोचता रह गया कि लड़के ने बी एस सी डिग्री ले ली, उसे यह भी नहीं पता कि शब्द गलत छपा है। ऐसे कई शब्द थे। एकबार मैंने reversible शब्द का अनुवाद देखा - उत्क्रमणीय और इसी तरह irreversible का अनुत्क्रमणीय। मैं उसी कालेज में हिंदी पढ़ा रहे शिक्षकों से पूछने लगा कि ये शब्द कहाँ से आए - किसी को नहीं पता था। फिर मैंने सोचा कि राष्ट्र और भाषा के जुनून में हम इतना आगे बढ़ जाते हैं कि सोचते तक नहीं कि हम अपना कितना नुकसान कर रहे हैं। हिंदी में शुद्धता के चक्कर में हो यह रहा है कि हम विज्ञान को इस तरह पढ़ा रहे हैं जिस तरह अब इतिहास भी नहीं पढ़ाया जाता।
इसलिए कविता में मैंने लिखा था,

कहो
नहीं पढ़ेंगे अनुदैर्घ्य उत्क्रमणीय
शब्दों को छुओ कि उलट सकें वे बाजीगरों सरीके
जब नाचता हो कुछ उनमें लंबाई के पीछे पीछे
विज्ञान घर घर में बसा दो
परी भाषा बन कर आओ परिभाषा को कहला दो

मेरे पिता साधारण श्रमिक थे, सरकारी गाड़ी चलाते थे। बचपन से ही उनको रीवर्स गेयर (गीयर) बोलते सुना था। मुझे नहीं पता कि कौन यह तय करता है कि अॉक्सीकरण शब्द हो सकता है पर रीवर्सनीय या रीवर्सिबल शब्द नहीं हो सकता है। या 'विपरीत संभव'। मैने हिंदी के कई बड़े लेखकों को लिखा है कि हिंदी में विज्ञान लेखन हिंदी भाषियों के खिलाफ षड़यंत्र है। मुसीबत यह है कि जैसे गाँव में पंचायत को पैसे मिले तो स्कूल पर नहीं लगते क्योंकि पंचों के बच्चे गाँव के सरकारी स्कूल में नहीं पढ़ते, इसी तरह विज्ञान के क्षेत्र में जिन हिंदी भाषियों की आवाज सुनाई पड़ सकती है वे सभी मंदिर मस्जिद तो ज़रुर जाएँगे पर हिंदी में क्या लिखा जा रहा है इस पर सोचने वाले नहीं हैं।

इसके विपरीत एक राय यह है कि अंग्रेज़ी में आम बोली में तकनीकी शब्दों का आना औद्योगिक विकास के साथ हुआ है, जिसमें कम से कम दो सौ साल लगे हैं, इसलिए हिंदी वाले भी एकदिन अनुदैर्ध्य ही सही, अनुत्क्रमणीय रुप से बोलेंगे।

उफ्, इन शब्दों को लिखते हुए भी जबड़े दुखने लग गए हैं।

2 comments:

आलोक said...

हिंदी में स्कैनिंग के बाद वर्ड प्रोसेसिंग का कोई तरीका है क्या?

फ़िलहाल तो नहीं पर इस पर काम चल रहा है।

आठवीं कक्षा में हिन्दी के लिए एक विज्ञान सम्बन्धी खोजों के बारे में पुस्तक भी थी। उस पर मेरी शिक्षिका ने कहा था कि ये मैं नहीं पढ़ाने वाली, वैसे भी हिन्दी की टीचरों की साइंस पुअर होती है।

ये बात खूब खली। किताब विज्ञान पर थी भी नहीं, वैज्ञानिकों और उनकी खोजों पर थी। जब जनता जनार्दन दोहे और ललित निबन्ध पढ़ाने में ही सन्तुष्ट है तो हिन्दी पढ़ा ही क्यों रहे हो।

अनुनाद सिंह said...

देर से टीका करने के लिए माफी चाहता हूँ | सबसे पहले आपको धन्यवाद कि आपने एक गंभीर विषय पर अपने विचार प्रकट करना शुरू किया है | रूसी पुस्तकों को मैने भी बहुत पढा है | "रोचक बीजगणित" के बहुत से प्रश्न अब भी मन ही मन आनन्द देते हैं |

आपने विज्ञान-शिक्षण के सन्दर्भ में पारिभाषिक शब्दावली का जो प्रश्न उठाया है, बहुत ही महत्वपूर्ण है | मेरा खयाल है कि भारतीय विद्यार्थियों के लिये अंगरेजी की शब्दावली कहीं अधिक समस्यामूलक है | ऐसे उदाहरण दिये जा सकते हैं जहाँ हिन्दी शब्दावली निहायत ही आसान है : एम्फिबियन-उभयचर , मम्मल- स्तनपोषी/स्तनजीवी , इन्सुलेटर-कुचालक आदि-आदि | अंगरेजी में भी प्रयुक्त पारिभाषिक शब्दावली पर ग्रीक, लैटिन आदि का जबरजस्त प्रभाव है | होता यह है कि विज्ञान पढते-पढते आप ग्रीक भी पढ रहे होते हैं | "बायोलोजी" का अर्थ बताते समय शिक्षक (और पुस्तकें) हमे यह सीखाती हैं कि ग्रीक में बायो का अर्थ यह है और लोगस का यह | जबकि "जीवविज्ञान", "वनस्पतिशास्त्र" आदि का अर्थ किसी को बताने की आवश्यकता नहीं पडती | ऐसे ही हजारों "अंगरेजी" के पारिभाषिक शब्द होंगे जो दिमाग पर कोई "पिक्चर" नहीं बनाते और हम उनसे जुडी हुई वैज्ञानिक परिकल्पना से ही उनको जानते हैं |

भारत में आम जनता में वैज्ञानिक साक्षरता बढ रही है ; एक बार प्रचलन में आ जाने के बाद कठिन से कठिन शब्द भी आसान लगते हैं |

इसका एक और पहलू यह है कि पारिभाषिक शब्द , चाहे वे हिन्दी के हों या अंगरेजी के, अपने-आप में पूरी बात (फेनामेनन्) कहने की क्षमता नहीं रखते | यदि ऐसा होता तो न तो परिभाषा की जरूरत पडती और न ही मोटी -मोटी विज्ञान की पुस्तकों की | लोग शब्द रट लेते और वैज्ञानिक बन जाते |