Friday, October 31, 2014

समान शिक्षा के लिए


29 अक्तूबर 2014 को 'जनसत्ता' में प्रकाशित संक्षिप्त आलेख को मैंने 31 अक्तूबर को यहाँ पोस्ट किया था। बाद में स्वर्गीय अशोक सक्सेरिया जी के आग्रह से इसे 'सामयिक वार्त्ता (नवंबर/दिसंबर 2014)' के लिए बढ़ा कर लिखा। यहाँ संक्षिप्त आलेख को हटा कर वार्त्ता में छपे आलेख को पेस्ट कर रहा हूँ। :
समान शिक्षा के लिए संघर्ष


पिछले दो दशकों में भारत में शिक्षा व्यवस्था में निजीकरण में तेजी आई है। नवउदारवादी आर्थिक नीतियों के तहत सरकारी शिक्षा तंत्र को सीमित किया जा रहा है और निजी संस्थानों को बड़े पैमाने पर छूट दी गई है। यह कोई विश्व-व्यापी परिघटना नहीं है है, बल्कि भारत जैसे देशों में ही यह प्रवृत्ति बढ़ रही है। मसलन संयुक्त राज्य अमेरिका (यू एस ए) को पूँजीवाद का गढ़ माना जाता है। मुक्त बाजार के लिए शोर मचाने वाले मुल्कों में और विश्व-स्तर पर पूँजीवादी अर्थ-व्यवस्था की धाक बनाए रखने में यू एस ए की भूमिका प्रमुख है। पर स्कूली तालीम के क्षेत्र में अमेरिका में निजीकरण सीमित स्तर तक लागू है और पिछले कुछ सालों में अगर इसमें बढ़त हुई भी है, तो वह नगण्य है। अधिकतर अमेरिकी स्कूल 'नेबरहूड' यानी मुहल्ले के स्कूल कहलाते हैं, जिनका खर्च कहीं संघीय तो कहीं स्थानीय सरकार चलाती है। अधिकतर बच्चों को मुफ्त तालीम मिलती है। सालाना दो लाख डालर की आमदनी वाले परिवारों में से भी केवल छब्बीस फीसद बच्चे निजी स्कूलों में पढ़ते हैं, जबकि सालाना आय का मध्य अंक (मीडियन) छियालीस हजार डालर है। यानी अति-संपन्न इस तबके के भी चौहत्तर फीसद बच्चे नेबरहूड स्कूलों में पढ़ते हैं। पचास हजार डालर की सालाना आमदनी के परिवारों से केवल छ: फीसद बच्चे ही निजी स्कूलों में पढ़ते हैं। उच्च शिक्षा में भी निजी संस्थानों के अलावा सरकारी संस्थानों की भरमार है। कैलिफोर्निया राज्य की सरकारी यूनिवर्सिटी का बर्कले कैंपस दुनिया का अव्वल विश्वविद्यालय माना जाता है। निजी संस्थानों में प्रवेश पाने वाले छात्रों को भी पर्याप्त वजीफा मिलता है, हालाँकि यह सही है कि इसमें हाल के वर्षों में कटौती हुई है। आर्थिक सहयोग और विकास संस्था (ओ ई सी डी) के अनुसार यू एस ए में सरकार सकल घरेलू उत्पाद का 5.1 फीसद से अधिक शिक्षा में लगाती है। 1990 के तुरंत बाद यह आँकड़ा साढ़े पाँच फीसद से भी ऊपर था। ध्यान रहे कि भारत की जनसंख्या अमेरिका की तीन गुनी है। अमेरिका और भारत के सकल घरेलू उत्पाद में तकरीबन आठ का अनुपात है। कीमतों के साथ संगत रखते हुए हिसाब लगाया जाए तो यह अनुपात तीन तक पहुँचता है। पिछले पचास वर्षों में भारतीय संविधान के निर्देशक सिद्धांतों के मुताबिक बनी शिक्षा नीति तय करने वाले एकाधिक आयोगों ने सकल घरेलू उत्पाद के छ: फीसद तक शिक्षा में लगाने की हिदायत दी है, पर यह आज तक संभव नहीं हो पाया है। 1990 में यह आँकड़ा चार फीसद तक पहुँच गया था, फिर संरचनात्मक आर्थिक सुधारों की वजह से लगातार गिरता चला। आखिरकार सदी के अंत में साढ़े तीन फीसद पर टिक गया। 2000-2002 के दौरान शिक्षक आंदोलन के दबाव में बेहतरी के आसार नज़र आ रहे थे, पर वह अस्थायी था और अब साढ़े तीन फीसद ही पर टिका हुआ है। मुख्यतः आर्थिक संसाधनों में कमी की वजह से शिक्षा का स्तर कभी भी सही नहीं रहा है। उच्च शिक्षा में भी सरकार का हिस्सा लगतार कम होता जा रहा है। पिछली सदी के आखिरी दो दशकों में उच्च शिक्षा में सरकार का हिस्सा तकरीबन अस्सी फीसद से गिर कर सड़सठ फीसद तक आ गया। इस सदी की शुरूआत में कुछ नए सरकारी संस्थान खुले - जिनमें करीब दस नई केंद्रीय यूनिवर्सिटी, दस नए आई आई टी, आई आई एस ई आर और एन आई एस ई आर प्रमुख हैं, पर साथ ही इससे कहीं ज्यादा बढ़त निजी क्षेत्र में हुई। 1960 तक इंजीनियरिंग कालेजों में पंद्रह फीसद भर्ती निजी संस्थानों में होती थी, अब यह आँकड़ा तकरीबन पचासी फीसद तक आ पहुँचा है। मेडिकल कालेजों का हाल इतना बुरा नहीं, पर यहाँ भी निजी संस्थानों का हिस्सा 1960 में 6.8 फीसद से बढ़ कर आज बयालीस फीसद तक आ गया है। आम कालेजों की तो बात ही क्या की जाए, इक्के-दुक्के ही सरकारी कालेज रह गए हैं। सबसे ज्यादा खतरनाक स्थिति यह है कि सेवा क्षेत्र में व्यापार के सामान्य (गैट्स- General Agreement on Trade in Services ) समझौते में भागीदारी के तहत भारत ने विदेशी विश्वविद्यालयों के लिए दरवाजे खोल दिए हैं। बराबरी की स्थिति में यह कोई चिंता की बात न होती, पर आर्थिक मजबूरियों की वजह से इन विदेशी संस्थानों के लिए भारत के शिक्षार्थियों के हित में निर्देश मनवाने की स्थिति में भारत नहीं है। ये संस्थान अधिक तनख़ाहों पर कुछेक अध्यापकों को रख कर बेहतर तालीम की मरीचिका रचेंगे और इसके लिए छात्रों से भारी फीस लेंगे। इसका सीधा नतीज़ा यह होगा कि सचमुच की बेहतर तालीम के बिना ही महज विदेशी ठप्पा लगाकर सुविधाओं का दावा करने वाली बड़ी जमात बनती चलेगी और सामाजिक गैरबराबरी बढ़ती रहेगी।

यूरोप में हंगरी, फिनलैंड और जर्मनी जैसे मुल्कों में तालीम पर सरकारी खर्च बजट का काफी बड़ा हिस्सा है। फिनलैंड ने पिछले पचास वर्षों में शिक्षा में बड़ा निवेश किया है और आज फिनलैंड की शिक्षा व्यवस्था को दुनिया में सबसे बेहतरीन माना जाता है। भारत में आज तक किसी भी सरकार ने खुद को पूरी तरह पूँजीवादी घोषित नहीं किया है। यह कैसी विड़ंबना है कि हमारे यहाँ शिक्षा का निजीकरण बढ़ता जा रहा है और सरकारी स्कूली व्यवस्था चरमरा रही है। शिक्षा में हर स्तर पर, खास तौर पर उच्च शिक्षा में विदेशी पूँजी का निवेश भी तेजी से बढ़ा है। 1990 के बाद से नई आर्थिक नीतियों से समाज में गैरबराबरी बढ़ी है और शिक्षा की लगातार तेजी से बढ़ती माँग के बावजूद आम लोगों के लिए स्तरीय शिक्षा मुहैया कराने से सरकार पीछे हटती जा रही है। कई राज्यों में दर्जनों सरकारी स्कूल बंद किए जा रहे हैं। अभी हाल में ही राजस्थान सरकार ने व्यापक विरोध के बावजूद भिन्न स्कूलों के एकीकरण के नाम पर दर्जनों शालाओं को बंद कर दिया है। देश के हर राज्य में हजारों पद खाली पड़े होने के बावजूद अध्यापकों की भरती नहीं की जा रही। ऐसा माहौल बनाया जा रहा है कि सरकारी स्कूलों में तालीम को लोग घटिया स्तर का मानते हैं। निजी क्षेत्र को बढ़ावा देने के लिए शिक्षा अधिकार कानून (2009) के नाम पर सरकारी स्कूलों के बच्चों को निजी स्कूलों में भेज कर सरकार द्वारा उनका खर्च निजी स्कूल के प्रबंधकों को दिया जाता है। तालीम में गैरबराबरी का जो माहौल आज भारत में दिखता है, ऐसा पहले कभी नहीं रहा। देश की अधिकांश जनता को सरमाएदारी व्यवस्था का गुलाम बनाने के लिए सरकार ने मुहिम छेड़ दी है। मौजूदा सरकार से इस स्थिति को बदले जाने की कोई उम्मीद नहीं है, बल्कि नई सरकार ने आते ही हर क्षेत्र में निजी संस्थानों के लिए सुविधाएँ बढ़ाने में चुस्ती दिखलाई है।

तालीम पर ज़मीनी लड़ाई लड़ रहे शिक्षाविदों और संगठनों ने हमेशा ही इस नाइंसाफी का विरोध किया है और अब ‘अखिल भारत शिक्षा अधिकार मंच’ के बैनर तले दर्जनों संगठन ‘अखिल भारत शिक्षा संघर्ष यात्रा’ आयोजित करने में जुट गए हैं। यह यात्रा विभिन्न राज्यों में इरोम शर्मिला के उपवास की शुरूआत के साथ जुड़े दिन2 नवंबर 2014 को शुरू हो गई है और इसका समापन 4 दिसंबर को भोपाल में गैस-कांड की वार्षिकी के दिन होगा। इस यात्रा के ज़रिए ये सभी संगठन मिलकर समान शिक्षा के मुद्दों पर जन-चेतना बढ़ाने और जनांदोलन खड़ा करने की कोशिश करेंगे। मौजूदा बहुपरती शिक्षा प्रणाली को संविधान में घोषित समानता के अधिकार के खिलाफ और भेदभाव बढ़ाने वाली कहते हुए संघर्ष का आगाज़ किया गया है। मंच की प्रमुख माँग देशभर में ‘केजी से पीजी’ तक सरकारी खर्च पर और पूरी तौर पर मुफ़्त और मातृभाषाओं के शैक्षिक माध्यम पर टिकी हुई ऐसी ‘समान शिक्षा व्यवस्था’ स्थापित करने के लिए है, जो संविधान में निर्देशित समानता और सामाजिक न्याय की बुनियाद पर खड़ी हो और जिसका लोकतांत्रिक, विकेंद्रित व सहभागिता के सिद्धांतों पर संचालन हो। मौजूदा स्थिति यह है कि संविधान के तहत गठित अकादमिक निकायों (जैसे एनसीईआरटी, यूजीसी) को लगातार दरकिनाकर करते हुए सरकारी नौकरशाही सत्तासीन राजनैतिक दलों और उनके आकाओं के हितों को सामने रखते हुए शिक्षा व्यवस्था पर हावी हो रही है। इसके विपरीत जिस लोकतांत्रिक व्यवस्था की माँग की जा रही है, उसके तहत हरेक स्कूल का एक तयशुदा ‘पड़ोस’ होगा जिसके दायरे में रहने वाले हरेक को - चाहे वह पूंजीपति, नेता, अफ़सर या मज़दूर हो - अपने बच्चों को कानूनन उसी स्कूल में पढ़ाना लाज़मी होगा। प्राथमिक से लेकर जहाँ तक संभव हो सके, उच्च-शिक्षा तक भारतीय यानी मातृभाषाओं में हो, यह पुरानी माँग है। विश्व भर के शिक्षाविदों द्वारा किए शोध से पता चलता है कि कम से कम प्रारंभिक पढ़ाई मातृभाषा में हो तो कुदरती तौर पर मिली संज्ञान की प्रक्रियाएँ सक्रिय रहती हैं और इसके विपरीत शुरूआत से ही परायी भाषा में शिक्षा देने की कोशिश बच्चों को दिमागी तौर पर पंगु बनाती है। मंच ने यह भी माँग रखी है कि बारहवीं कक्षा के बाद मुफ़्त उच्च शिक्षा में भी सभी को समान अवसर मुहैया कराए जाएँ। यहाँ यह रोचक जानकारी सामने रखी जानी चाहिए कि जर्मनी ने हाल में ही उच्च शिक्षा में ट्यूशन फीस हटा दी है यानी कालेज यूनिवर्सिटी में पढ़ने के लिए ट्यूशन फीस नहीं ली जाएगी। इसके पीछे सिद्धांत यह है कि समाज में अधिकतर लोग उच्च शिक्षा ले लें तो देश की आर्थिक तरक्की होगी।

अक्सर मध्य-वर्ग के लोग मानते हैं कि सरकारी स्कूली शिक्षा में स्तर गिरने से ही निजीकरण में बढ़त हुई है। अगर ऐसा है तो उसका समाधान यह है कि सरकारी स्कूली शिक्षा-तंत्र को मजबूत बनाया जाए। हो यह रहा है कि सरकारी शिक्षा-तंत्र को लगातार विपन्नता की ओर धकेला जा रहा है और निजी हितों को बढ़ावा दिया जा रहा है। इसके पीछे ऐसी संवेदनाहीन भ्रष्ट मानसिकता है जो अधिकांश लोगों को मानव का दर्जा देने से विमुख है। निजी उच्च-शिक्षा-संस्थानों में आरक्षण जैसे कल्याणकारी कदमों को भी नकारा जाता है - इस नज़रिए से देखने पर यह ऐसा षड़यंत्र दिखता है जो बहुसंख्यक लोगों के हितों के खिलाफ है। निजी संस्थाओं का पहला उद्देश्य मुनाफाखोरी होता है, और कम से कम भारत में शोध-कार्य में उनका अवदान नगण्य है। अनगिनत छात्र निजी कालेज-विश्वविद्यालयों में पढ़ रहे हैं, जहाँ कोई शोध की संस्कृति नहीं है। सारी तालीम किताबी है और नवाचार के लिए जगह सीमित है। छात्र महज इम्तहान पास कर नौकरियाँ लेने को तत्पर हैं और सचमुच ज्ञान की सर्वांगीण धारणा से उनका लेना-देना कम ही दिखता है। इससे देश और समाज का जो नुकसान हो रहा है, उसकी भरपाई लंबे समय तक न हो पाएगी। इसलिए शिक्षा संघर्ष यात्रा शिक्षा में निजीकरण और बाज़ारीकरण का विरोध भी करेगी, जिसमें सार्वजनिक-निजी साझेदारी (पीपीपी) और विदेशी प्रत्यक्ष निवेश (एफ़ डी आई) के हर परोक्ष व प्रत्यक्ष रूप का विरोध शामिल है। ऐसे कई पीपीपी और विदेशी गठजोड़ वाले संस्थान नवउदारवादी आर्थिक नीतियों के तहत अचानक खड़े हो गए हैं, जहाँ पढ़ाई महँगी है, पर स्तर में गिरावट ही दिखती है। इनमें शिक्षा का मकसद महज बाज़ार में काम आने वाला मानव-संसाधन तैयार करना मात्र है। जाहिर है कि इनका विरोध लाजिम है।

सांप्रदायिकता और जातिवाद दक्षिण एशिया के शर्मनाक पहलू हैं, जिससे तालीम अछूती नहीं है। मौजूदा सत्तासीन दल और संघ परिवार की हमेशा से कोशिश यह रही है कि इतिहास की किताबों में भारत के अतीत को हिंदुत्व के रंग में ढाल कर पेश किया जाए। इसके साथ ही कृत्रिम किस्म की संस्कृत शब्दावली को थोपते हुए अलग-अलग तरह से ब्राह्मणवाद और मनुवाद को प्रतिष्ठित करने की कोशिशें चलती रही हैं। पंद्रह साल पहले ऐसी कोशिश में स्कूली पाठ्य-पुस्तकों में विषय-वस्तु के साथ बुरी तरह खिलवाड़ किया गया था। आज दीनानाथ बतरा और उसके साथी यह तय कर रहे हैं कि कैसे अंध-विश्वासों और भ्रामक धारणाओं को पाठ्य-सूची में डाला जाए। लोकतांत्रिक धर्म-निरपेक्ष संविधान पर गर्व करने वाले भारतीयों को चाहिए कि शिक्षा में सांप्रदायिकता और जातिवाद को जड़ से उखाड़ फेंकें। पठन-सामग्री में धर्म के नाम पर विभाजन पैदा करने के उद्देश्य से दकियानूसी बातें डालने की हर कोशिश का पुरजोर विरोध करना ज़रूरी है। शिक्षा संघर्ष यात्रा इस मुद्दे पर भी बुलंद रहेगी और शिक्षा के सांप्रदायीकरण के खिलाफ़ आवाज़ उठाएगी जिसमें पाठ्यचर्या, पाठ्य पुस्तकों व परीक्षाओं के ज़रिए आज़ादी की लड़ाई की विरासत स्वरूप विकसित संवैधानिक मूल्यों का उल्लंघन करनेवाले कट्टरवादी, संकीर्ण, विभाजनकारी व गैर-वैज्ञानिक एजेंडे को थोपने का विरोध शामिल है।

यह एक दर्दनाक विड़ंबना है कि इन माँगों को लेकर आज आंदोलन खड़ा करने की बात हो रही है, जबकि ये माँगें कौमी आज़ादी की लड़ाई की प्रमुख माँगों में से थीं। जैसा कि आंदोलन से जुड़े प्रमुख शिक्षाविद प्रो. अनिल सदगोपाल बार-बार याद दिलाते हैं, ज्योतिबाराव और सावित्री फुले से लेकर भगत सिंह, आंबेडकर और गाँधी, इन सभी राष्ट्रनेताओं के लिए समान शिक्षा का अधिकार एक बुनियादी सवाल था। हर नागरिक को यह अधिकार मिले बिना आज़ादी की कल्पना भी वे नहीं कर सकते थे। आज स्थिति यह है कि शिक्षा संस्थानों में ऐसे मुद्दों या सामान्य लोकतांत्रिक हकों की बात करने वालों पर हमले होते हैं। अभिव्यक्ति की आज़ादी पर संकट गहराता जा रहा है। समान शिक्षा का अधिकार जो पूँजीवादी माने जाने वाले मुल्कों में भी आम बात है, उसके लिए यहाँ संघर्ष करना पड़ता है। अखिल भारत शिक्षा अधिकार मंच की स्थापना इन्हीं स्थितियों के मद्देनज़र हुई थी और अब तक इस मंच ने राष्ट्रव्यापी व्यापक जनाधार बना लिया है। हर राज्य में मंच की इकाइयों ने आम लोगों तक पहुँच कर तालीम के बुनियादी मुद्दों की बात की है और एकाधिक बार सरकारी संस्थानों को बंद करने के खिलाफ सफलतापूर्वक आंदोलन किया है।

मंच ने यात्रा की शुरूआत के लिए 2 नवंबर का दिन चुना। सन् 2000 में इसी दिन इरोम शर्मिला ने मणिपुर में भारतीय सेना की उपस्थिति और सशस्त्र सेना विशेष अधिकार अधिनियम (आफ्सपा) के दुरुपयोग के खिलाफ अपना अनशन शुरू किया था। इसी तरह यात्रा की समाप्ति के लिए 4 दिसंबर का दिन तय है, 1984 में इस दिन यूनियन कार्बाइड के कारखाने से रिसी गैस से भोपाल में चार हजार लोगों की जान गई थी। यात्रा के शुरूआत और समाप्ति के लिए ये दिन चुनकर मंच ने यह समझ दिखलाई है कि तालीम का मुद्दा महज अकादमिक माथापच्ची का नहीं, बल्कि जन-संघर्ष का मुद्दा है। आज़ादी के बाद से, खास तौर पर पिछले पच्चीस सालों में देश को जिस तरह गुलामी की ओर धकेला गया है, इसके खिलाफ व्यापक संघर्ष के अलावा कोई रास्ता नहीं बच गया है। कई अर्थों में हम उपनिवेश-कालीन स्थिति में वापस पहुँच गए हैं जहाँ तालीम को अपनी स्थितियों से नहीं बल्कि अंग्रेज़ शासकों के हितों के साथ जोड़कर देखा जाता था। जाहिर है कि इसका विरोध करना ही होगा और शिक्षा संघर्ष यात्रा इस दिशा में एक ज़रूरी कदम है। अक्सर कई लोग सवाल उठाते हैं कि ऐसे प्रदर्शन, जुलूस, आदि के विरोध से आखिर क्या निकलेगा। इसका आसान जवाब है कि कुछ न करके तो कभी भी कुछ ही नहीं निकलेगा। जब हुकूमत का जनविरोधी रवैया हटने का नाम न ले, तब हर किसी को अपनी हिम्मत के साथ कुछ तो करना ही होगा। जो बौद्धिक काम कर सकते हैं, वे वही करें, पर साथ में जन-संघर्ष का चलते रहना लाजिम है। कइयों को यह चिंता रहती है कि आखिर इन संघर्षों का नारा देने वाले लोग अपने बच्चों को निजी स्कूलों में क्यों भेज रहे हैं। यह सही है कि अगर हर कोई निजी स्कूलों से मुख मोड़ ले तो वे खुद ही बोरिया-बिस्तर समेट लें। पर ऐसा संबव नहीं है, क्योंकि जब तक सरकारी स्कूलों की हालत सुधरती नहीं है, उन्हें तालीम का प्राथमिक जरिया नहीं बनाया जाता, और इसके बदले अगर निजी स्कूलों के लिए सुविधाएँ बढ़ाई जाती रहें तो जिसके पास संसाधन हैं, वह अपने बच्चों को निजी स्कूलों में ही भेजेगा। मुद्दा यह नहीं है कि अन्याय का विरोध करते हुए हर कोई व्यवस्था के साथ करो या मरो की स्थिति में हो। आज की जटिल परिस्थितियों में जीते हुए हर कोई अपने समझौतों में रहते हुए ही कोई प्रभावी बात कर सकता है। जो लोग संघर्ष में शामिल होने के लिए जीवन में किसी भी तरह के समझौते को न करने को पहली शर्त रखते हैं, वे दरअसल अपनी जिम्मेदारी से बचने की कोशिश करते हैं। संघर्ष यात्रा के लिए मंच का आह्वान सही वक्त पर आया है और इसमें सभी सचेत नागरिकों की भागीदारी वांछनीय है। उम्मीद है कि तालीम की लड़ाई राष्ट्रीय स्तर पर व्यापक फलक अख्तियार करेगी और सरकार समान स्कूली शिक्षा के लिए प्रभावी कदम लेने को मजबूर होगी।

Saturday, October 25, 2014

जी हाँ, मैं जानता हूँ





...
संयम! कैसा संयम! क्या किसी गहरी आशंका से यह संयम उपजा 

था अंधविश्वास, अरुचि, धीरज या भय? भूख हर भय को खा जाती 

है, हर धीरज भूख से हार मानता है, भूख के सामने कोई भी बात 

अरुचिकर नहीं लगती; और जहाँ तक अंधविश्वास, आस्थाएँ और जिन्हें 

आप सिद्धांत कहते हैं, वे हवा में तिनके की तरह उड़ जातेहैं। कौन नहीं 

जानता कि लगातार भूख से तड़पने से कैसी हैवानियत पैदा होती है, जो

असहनीय उत्पीड़न होता है,जो भयंकर खयाल दिमाग में आते हैं, कैसी 

गंभीर और भयानक सोच यह पैदा करती है? जी हाँ, मैं जानता हूँ।...

('हार्ट ऑफ डार्कनेस' – जोसेफ कोनराड; हिंदी अनुवाद 'पाखी' के ताज़ अंक में आया है। पुस्तक वाग्देवी प्रकाशन से आ रही है।)

Thursday, October 16, 2014

आज किशोर कल वयस्क पाठक


'कथा' पत्रिका के बालसाहित्य आलोचना विशेषांक में इस आलेख का एक स्वरूप प्रकाशित हुआ है।

बच्चों के लिए लेखन पर कुछ चिंताएँ
-लाल्टू


मेरी परवरिश बांग्ला भाषी परिवेश में हुई। जब मैं पाँचवीं में था तब तक किशोरों के लिए लिखी बांग्ला की किताबें पढ़ने लगा था। हमारे घर किताबें खरीदी नहीं जाती थीं, पर मुहल्ले में अधिकतर मध्यवर्गीय बंगाली परिवारों के घर कहानियाँ पढ़ने का चलन था। उनसे किताबें माँग लाते थे। माँ बड़ों की किताबें पढ़ती थी और हम बच्चे अपने स्तर की किताबें। हर साल (दुर्गा)पूजा के दिनों के पहले शारदोत्सव के रंगीन माहौल के साथ नई पूजावार्षिकियों का भी इतज़ार रहता। उन दिनों यह जानता न था कि कितने बड़े साहित्यकारों का लिखा पढ़ रहे हैं। ताराशंकर बंद्योपाध्याय, आशापूर्णा देवी, महाश्वेता देवी, आदि सभी बड़े लेखक बच्चों के लिए लिखते थे। आज भी यह परंपरा चलती है। उन दिनों सभी आम पत्रिकाओं के पूजावार्षिकी बच्चों के नहीं आते थे, कुछ प्रकाशक अलग नाम से साल में एक मोटी किताब बच्चों के लिए निकालते थे। हर साल उनके अलग नाम होते थे। बच्चों की पत्रिकाएँ जैसे शुकतारा, संदेश आदि की वार्षिकियाँ निकलती थीं। आज की लोकप्रिय 'आनंदमेला' का पहला रंगीन वार्षिक विशेषांक 1971 में आया, जब मैं दसवीं में था। हालांकि मेरी उम्र कम ही थी, तब तक मैं बड़ों के लिए लिखी किताबें पढ़ने लगा था। इनमें भी बच्चों और किशोरों के लिए सामग्री रहती थी। 'आनंदमेला' के उस पहले वार्षिक विशेषांक में न केवल बड़े रचनाकारों की भरमार थी, तस्वीरें बनानेवाले भी उन दिनों के सबसे बड़े नाम थे। इनमें सत्यजित राय, पूर्णेंदु पत्री, सैयद मुजतबा अली आदि जैसे लोग शामिल थे। सत्यजित राय स्वयं हर साल बच्चों के लिए एक जासूसी कहानी (फेलू दा की कहानियाँ, जिनमें से कइयों पर उन्होंने फिल्में भी बनाईं) और एक विज्ञान कथा (प्रोफेसर शंकु) लिखते थे और इनके साथ आकर्षक तस्वीरें खुद बनाते थे।

हिंदी में किताबें शुरू में स्कूल की लाइब्रेरी से लेकर पढ़ी थीं। ज्यादातर अलग-अलग प्रांतों की लोककथाओं का संकलन जैसी किताबें थीं या नैतिक संदेश वाली कहानियों की किताबें थीं। यह अहसास किशोर वय में ही पक्का हो चला था कि हिंदी में बच्चों के पढ़ने के लिए अच्छी सामग्री नहीं है। चंदामामा, पराग – ये दो आम पत्रिकाएँ खूब पढ़ते थे। नेशनल लाइब्रेरी घर से ज्यादा दूर न थी और वहाँ ये पत्रिकाएँ आती थीं। पर वहाँ भी बांग्ला में ज्यादा रोचक किताबें मिलतीं। तब तक अंग्रेज़ी पढ़ने की योग्यता बनी न थी, न ही किसे ने कभी कहा कि अंग्रेज़ी पढ़ो। पिछली दो सदी में पश्चिम में लिखे साहित्य का संक्षिप्त अनुवाद विपुल परिमाण में उपलब्ध था। इस तरह मैंने थॉमस हार्डी, आलेक्सांद्र दूमा, मार्क ट्वेन आदि को पढ़ा। साथ ही अनगिन जासूसी कहानियाँ और लघु उपन्यास पढ़े।

हिंदी में बच्चों के बारे में सोचते हुए अक्सर लोग चंदा मामा, हाथी-घोड़ा, राजा रानी आदि जैसी बातों तक सोचकर रह जाते हैं। एक ज़माना था जब बच्चे ऐसी कथाएँ और तुकबंदियो की कविताएँ सुनकर खुश होते थे। आज भी होते हैं। पर जिस तरह वक्त के साथ बच्चों के खेल और खिलौने बदले हैं, वैसे ही यह सोचना ज़रूरी है कि उनके विनोद की भाषा और वह जो पढ़ना चाहते हैं, इनमें कैसे बदलाव आए हैं। आज यह माना जात है कि भ्रूण की अवस्था से ही मानव प्रकृति और स्वयं के बारे में सीखना शुरू करता है। जन्म के तुरंत बाद दो आँखों से देखने और दो कानों से आवाज़ें सुनकर स्रोत के स्वरूप और उसकी दूरी की पहचान, वस्तुओं के आकार, इत्यादि सीखने के साथ ही भाषा सीखने और उसे पुख्ता करने की क्रियाएँ भी शुरू हो जाती हैं। शुरूआती दो-चार महीनों के बाद करवट लेने, रेंगने आदि के साथ शब्द-निर्माण बढ़ता चलता है। इस स्थिति में तकरीबन दो साल की उम्र तक चंदा सूरज जैसी पुरानी लोरियाँ आज भी बच्चों को भाती हैं। पर दो की उम्र होने तक आज बच्चे टेलीफोन, मोबाइल, कंप्यूटर आदि यंत्रों में रुचि लेने लगते हैं और जहाँ ये हर वक्त उपलब्ध हों, चार की उम्र तक उनका उपयोग भी शुरू कर देते हैं। ऐसी स्थिति में पुराने किस्म की तुकबंदी और राजा-रानी की कहानियाँ बच्चों को संतुष्ट नहीं कर सकतीं।

अधिकतर लोगों के लिए बच्चों को कुछ पढ़ने को कहना हमेशा उन्हें कुछ सिखलाने के लिए होता है। पर कला या साहित्य, कहानी-कविता का महत्व महज उस तरह की शिक्षा का नहीं होता जो वयस्क सोचते हैं। बच्चे बड़ों की बातों को गौर से सुनते हैं और उस अंजान रहस्य भरी दुनिया में घुसपैठ करने का संघर्ष निरंतर करते रहते हैं, जिसमें वयस्क डुबकियाँ लगाते हैं। जो हमें कतई शैक्षणिक नहीं भी लगता, वह सब कुछ भी बच्चों की शिक्षा में जुड़ता है।

यह मानना ग़लत है कि बच्चों को तुकबंदी, ध्वन्यात्मकता या सांगीतिकता में वयस्कों से अधिक रुचि होती है। कल्पनाशीलता की अनंत तहों में बच्चे भी उसी तरह प्रवेश करना चहते हैं, जैसे बड़े करते हैं - बल्कि उनमें ये संभावनाएँ वयस्कों से अधिक ही होती हैं। दस की उम्र तक बच्चों में पारंपरिक पठन-सामग्री के प्रति उदासीनता और अरुचि दिखने लगती है। हिंदी पढ़ने वाले बच्चों के लिए यह संकट और गहरा है। किशोरों के लिए हिंदी में साहित्य की विशेष कमी है। हिंदी प्रदेशों में सामंती सोच का वर्चस्व व्यापक स्तर का है। लोकतांत्रिक चेतना का सामान्य अभाव आम लोगों में तो है ही, बच्चों के बारे में यह संकट तथाकथित प्रबुद्ध बुद्धिजीवियों में भी है। साहित्य में बच्चों और किशोरों के लिए पठनीय सामग्री के अभाव को लेकर बड़े रचनाकारों में चिंता का अभाव इसी संकट की पहचान है। इसलिए बांग्ला जैसी भाषाओं की तुलना में हिंदी में रोचक और उत्कृष्ट बाल-साहित्य का भयंकर अभाव दिखता है। वयस्क पाठकों के लिए लिखने वाले साहित्यिकों के लिए बच्चे महज खेल-कूद करते अल्प-बुद्धि के मानव शिशु हैं, जिनका चिंतन-संसार इतना सीमित है कि बड़े रचनाकारों को पढ़ने के काबिल वे नहीं हैं। सच्चाई इसके विपरीत यह है कि हम वयस्क ऐसी संकीर्ण सोच से ग्रस्त हैं कि हम यह कभी सोच नही पाते कि दरअस्ल बच्चों के लिए लिखने की भी दक्षता होती है और कि यह हममें कम है। ऐसे लेखन का अभ्यास करना हम ज़रूरी नहीं समझते हैं।

ऐसा नहीं कि प्रतिष्ठित रचनाकारों ने कुछ भी बच्चों के लिए नहीं लिखा है। बात यह है कि जितना लिखा गया है, वह बहुत कम है। रचनाओें की कमी है और जो है वह हर जगह उपलब्ध नहीं है। प्रशासनिक स्तर पर कई प्रयास हुए हैं, जैसे मध्य प्रदेश सरकार ने अस्सी के दशक के आखिरी वर्षों में ऑपरेशन ब्लैक-बोर्ड के तहत कदम उठाए थे कि हर सरकारी स्कूल में कहानी कविताओं की किताबें पहुँचें। पर बांग्ला में जिस तरह हर साल बड़े रचनाकार बच्चों के लिए उपन्यास लिखते हैं, ऐसा हिंदी में नहीं है। स्‍कूलों में पुस्‍तकालय पर ताला भी बच्‍चों और किताबों के बीच एक बाधा है। ऐसे में विनोद कुमार शुक्ल, राजेश जोशी आदि कई प्रतिष्ठित रचनाकारों के काम सराहनीय हैं। इनदिनों भोपाल से निकलती 'चकमक' पत्रिका में विनोद कुमार शुक्ल का धारावाहिक उपन्यास 'मुझे कुछ करना है, मैं क्या करूँ, मैं कुछ करूँ' आ रहा है, जो अद्भुत है। इसी पत्रिका में पिछले कुछ अंकों में वरुण ग्रोवर की लंबी कहानी ;हरिहर विचित्तर'‌ आई थी, जो सांप्रदायिक आधार पर दक्षिण एशिया के विभाजन पर बड़ी संवेदनशीलता के साथ लिखी गई अद्भुत फंतासी है।

एकलव्य संस्था द्वारा अस्सी के दशक से लगातार प्रकाशित हो रही 'चकमक' पत्रिका ने हिंदी में बाल-साहित्य के माहौल को काफी बदला है। न केवल स्वयं प्रकाश, तेजी ग्रोवर और रुस्तम जैसे गंभीर रचनाकार पत्रिका से जुड़े रहे हैं, राजेश उत्साही ने अपने जीवन का एक बड़ा हिस्सा 'चकमक' के संपादन में लगाया है, जिससे पत्रिका का स्तर हमेशा ऊँचा रहा। इन दिनों सुशील शुक्ला जैसे युवा साथी पूरी शिद्दत के साथ 'चकमक' के लिए अच्छी रचनाओं को इकट्ठा करने, बच्चों में साहित्य के प्रति रुचि बढ़ाने आदि काम में लगे हुए हैं। इस पत्रिका के मार्च 1987 अंक में मेरी एक कविता 'भैया ज़िंदाबाद' आई थी, जिसमें एक बच्ची अपने भाई की ओर से पिता के अन्याय के प्रति विरोध दर्ज़ करती है। यह वयस्क मानस की और मुक्त छंद में लिखी कविता है, निश्चित ही इसे बच्चों की कविता मात्र कहना ग़लत होगा; पर यह सोचना कि बच्चे इसके साथ नहीं जुड़ पाएँगे, ठीक न होगा। मेरी यह कोशिश सफल हुई या नहीं, यह औरों के सोचने की बात है, पर अगर हम कोशिश न करें और बच्चों को भोंदू मानकर उनके लिए सिर्फ पुराने ढंग की चिड़िया गुड़िया, तितली रानी आदि विषयों पर लिखें तो यह सही नहीं है। एकलव्य संस्था द्वारा बच्चों का साहित्य इकट्ठा करना और एक आंदोलन की तरह इसे लोगों तक ले जाना सराहनीय है।

ऐसे प्रयास और भी गिने जा सकते हैं। युवा कवि प्रभात ने स्वयं बच्‍चों के लिए काफी सारा लिखने के अलावा कई लोक कथाओं को सुंदर भाषा में पस्‍तुत किया है । उसके कई गीत बच्चों में लोकप्रिय भी हैं। चिल्‍ड्रन बुक ट्रस्‍ट, नेशनल बुक ट्रस्‍ट, आदि की किताबें बहुत कम दाम में और सुंदर किताबें होती हैं, लेकिन लोगों को उनके बारे में जानकारी नहीं होती। तूलिका और कथा जैसे कुछ महंगे प्रकाशन सुंदर किताबें छापते हें, जिनमें भारतीय लोक कथाओं को भी सं‍कलित किया गया है, लेकिन इन किताबों के दाम इतने ज्‍यादा होते हैं कि सामान्‍य व्‍यक्ति की पहुंच में नहीं हेातीं।

रूसी पुस्‍तक प्रदर्शनी और सोवियत रूस के समय में उपलब्‍ध अनुवादों ने जो पुस्‍तक और पढ़ने की संस्‍कृति को बढ़ावा दिया था, उसे भूलना नहीं चाहिए। अब पुस्‍तक मेले तो साल में कई बार लगते हैं, लेकिन वैसा साहित्‍य अब नहीं मिलता।

दूसरी भाषाओं, खास तौर पर अंग्रेज़ी से विश्व-साहित्य का अनुवाद हिंदी में विपुल मात्रा में उपलब्ध है। पर अब लगातार बढ़ते मध्य वर्ग के किशोर अंग्रेज़ी में पढ़ सकते हैं और अंग्रेज़ी के पास राजनैतिक ताकत है तो वे हिंदी में अनुवाद क्यों पढ़ें? खास तौर पर किशोरों के लिए कहानियों में जैसी अनौपचारिक शब्दावली का उस्तेमाल किया जाता है, हिदी में उसका अनुवाद न केवल कठिन है, अक्सर यह असंभव है। क्लासिक अनुवादों में शमशेर बहादुर सिंह का लुइस कैरोल की विश्व-विख्यात कृति 'एलिस इन वंडरलैंड' का अनुवाद उल्लेखनीय है। प्रबुद्ध रचनाकारों का बच्चों के लिए लिखना कितना ज़रूरी है वह शमशेर की कविता 'चाँद से थोड़ी सी गप्पें' पढ़ने से समझ में आता है। शमशेर की चाँद से गप्पें दस ग्यारह साल की लड़की की गप्पें तो हैं ही, वो मेरी और आपकी गप्पें भी हैं। वैसे तो हर बड़े में एक बच्चा होता है। पर मैं उस बच्चे की बात नहीं कर रहा। 'चंदा मामा दूर के' वाले चाँद से शमशेर का चाँद अलग है। इस पर मैंने विस्तार से लिखा है (उद्भावना - 2011; साखी - 2011)। शमशेर बच्चों के लिए भी एक नई भाषा और एक नया फार्म गढ़ रहे थे। चंद्रमा पर विजय प्राप्त करना जैसा गौरव गीत या या चंदामामा से बतियाना जैसी लोरियों से अलग कविता - सचमुच कविता की ज़मीन बनाने की सोच रहे थे, ऐसी कविता जो बच्चों के नैसर्गिक विकास से जुड़े। जन्म के उपरांत जीवन क्रमशः व्यक्ति में निहित मानवता के विनाश के खिलाफ संघर्ष की प्रक्रिया है। सामाजिक परवरिश और औपचारिक शिक्षा में बहुत कुछ ऐसा है जो हमें अपनी नैसर्गिक अस्मिता से दूर ले जाता है। इसलिए बच्चों के विकास पर गहराई पर सोचने वाले अनेक चिंतकों ने औपचारिक स्कूली शिक्षा की आलोचना की है। एक सचेत कवि से भी यही अपेक्षित है।

भारत के हर क्षेत्र में लोककथाओं, लोकगीतों और स्थानीय 'नॉनसेंस' (पहेलियाँ, चुटकुले, बुझव्वल और इनके अलावा भी यूँ बतरस के लिए प्रचलित) की एक समृद्ध परंपरा रही है। कुछ हद तक बांग्ला जैसी भाषाओं में बाल-साहित्य की मुख्य-धारा में इसने जगह बनाई है। पर हिंदी में यह धीरे-धीरे लुप्त-प्राय हो गई है। इसका मुख्य कारण पारंपरिक सामग्री को बदलती स्थितियों के अनुरूप ढाल पाने में हमारी अक्षमता और अरुचि ही है। पंजाब में लोहड़ी के त्यौहार के दौरान गाया जाता 'सुंदरी वे मुंदरिए...' और मध्य प्रदेश के कई क्षेत्रों में 'पोसम राजा' जैसे अनेक गीतों को इकट्ठा कर उन पर काम किया जाना ज़रुरी है। पर्याप्त ध्यान के बिना ये गीत धीरे धीरे विलुप्त हो जाएँगे। सुवास कुमार और मैंने बांग्ला से सुकुमार राय की प्रसिद्ध कृति 'आबोल ताबोल' का 'अगड़म बगड़म' शीर्षक से अनुवाद किया है जो पिछले वर्ष साम्य पत्रिका के विशेषांक के रूप में प्रकााशित हुआ है। नानसेंस की अच्छी समझ गंभीर साहित्य के लेखन में प्रेरणा का काम करती है। नागार्जुन ('मंत्र' या अन्य कविताएँ), रघुवीर सहाय ('अगर कहीं मैं तोता होता' आदि कविताएँ), सर्वेश्वर दयाल सक्सेना ('बतूता का जूता' आदि) या अन्य कई कवियों की रचनाओं में हम यह बात देख सकते हैं। अन्यथा गंभीर या वैचारिक सामग्री को रसीले तरीके से सीधे पाठक के अंतस् तक पहुँचाने का इससे बेहतर तरीका और कोई नहीं है। रोचक बात यह है कि 'नॉनसेंस' बच्चों और बड़ों के लिए अलग-अलग अर्थ लिए आता है।

आज का किशोर ही कल के वयस्क साहित्य का पाठक है। हिंदी में पाठक की उदासीनता पर अक्सर चर्चा होती है, पर इसे बाल साहित्य के संदर्भ में कम ही सोचा गया है। यह ज़रूरी है कि हिंदी का हर लेखक या कवि इस पर गंभीरता से और नए आयामों की तलाश के साथ इस पर सोचे। अच्छे बाल-साहित्य के बिना वयस्कों के लिए अच्छे लेखन का होना संभव तो है, पर वह व्यापक नहीं हो सकता।

Wednesday, October 15, 2014

हम मिथक जीते हैं


संशय



हमेशा संशय रहता है
ठीक ही हूँ न?

कितने लोगों को आज सूर्योदय से अगले साल इसी दिन सूर्योदय तक अपनी पहचान बदलनी है? फूल कुतरने की मशीनों की रफ्तार बढ़ती जा रही है। हम मिथक जीते हैं और तय करते हैं कि आज कौन बलि चढ़ रहा है। एक दिन राजकुमार आएगा और राक्षस को मार डालेगा।

राक्षसों ने लाटरियाँ बंद कर दी हैं।
किसी ने दोलन चक्रों पर काम किया है?


(2009; 'नहा कर नहीं लौटा है बुद्ध' में संकलित')

Monday, October 13, 2014

फिर भी जीना


हो सकता है और है

हो सकता है
दो महीने साथ किसी पहाड़ी इलाके में रहना।
हर सुबह एक दूसरे को चाय पिलाना।
थोड़ी सी चुहल। पिछली रात पढ़ी किताब पर चर्चा।
दोपहर खाना खाकर टहलने निकलना।
घूमना। घूमते रहना।
शाम कहीं बीयर या सोडा पीना।
इन सब के बीच आँगनबाड़ी में बच्चों को कहानियाँ सुनाना।
एक साथ बच्चे हो जाना।

है
बच्चों की बातें सुन कर रोना आना।
बच्चों को देख-देख रोना आना।
रोते हुए कुमार विकल याद आना।
कि 'मार्क्स और लेनिन भी रोते थे
पर रोने के बाद वे कभी नहीं सोते थे।'
फिर यह सोच कर रोना आना
कि इन बातों का मतलब क्या
धरती में नहीं बिगड़ रहा ऐसा बचा क्या।
इस तरह अंदर बाहर नदियों का बहना।
पहाड़ी इलाकों से उतरती नदियों में बहना।
नदियों में बहना खाड़ियों सागरों में डूबना।
कोई बीयर सोडा नहीं जो थोड़ी देर के लिए बन सके प्रवंचना।

फिर भी जीना।
साथ बहते हुए नदियाँ बन जाना।
ताप्ती, गोदावरी, नर्मदा, गंगा
अफरात नील दज़ला
नावों में बहना, नाविकों में बहना।
यात्राओं में विरह गीतों में बहना।
आखिर में कुछ लड़ाइयों में हम जीतेंगे खुद से कहना। 
  (पहल -2013)

Friday, October 10, 2014

मुझ में एक बाग़ है

सपना

1

महालक्ष्मी कमल पर बैठी थीं 
 
या था सदी का दर्दनाक बुरा सपना

रोशनी कम होती चली, हताशा बढ़ती चली

दिलासा बन कर आते शब्द – आदि सच जग-आदि सच

कर्त्ता-पुरख ब्रह्मा सामने या उनका बनाया पुतला मैं

आज़ाद कायनात को साथ लिए घूमता कायनात भर मैं

जादू कि

ईश्वर उग रहा फटेहाल पसलियों से बच्चों की 
 
कुछ भी स्पष्ट नहीं 
 
स्वर्ग धुँए से भरा भीड़ त्राहि-त्राहि चीखती

मुझे यहीं होना था 
 
प्यार के अकाल में खून से रँगे कमल-दल में डूबता

हाय अंबालिका, मैं नहीं कारण पीत भवितव्य का

कैसे आएगी स्वस्थ संतान

इतना जहर है हमारे चारों ओर।


2

कालिदास नहीं उसकी साँसों से बना मैं

समय बहता रहा मुझमें से नदी की तरह

जागा अपनी सदी में एक और सपने में

मेरे रोओं से वैसी ही बह रही हवा

गंध थी उसमें मृत्यु की

हालाँकि वह अहसास सपने में का था

हर देश हर काल में हर प्राणी बदलता जा रहा

भयावह उस सपने में पेड़-पौधे
 
बन रहे मेरी प्रतिकृति 
 
बिलखते सर पीटते, समूह गान में रो रहे 
 
सूरज उगा या कि छिप रहा 
 
अँधेरा भी रोशनी भी

सपने में जगा मैं बहते समय के साथ

कालिदास, यह कैसा अभिशाप।


यह ज़िद

सुबहो-शाम

'आह से उपजा होगा गान' गाते रहने की

यह घातक चाह


वह जल था या थल

आकाश या पाताल

ज़मीं हरी थी या कि स्याह

साथ कणाद भी थे

थे अल बरूनी 
 
सपने में हम उनकी कथाओं के चरित्र थे


मैं और तुम इकट्ठे रो रहे थे

पहला और आखिरी भी आँसू प्यार का था।


3

यह दंभ भी मुझे ही होना था

नगरपालिका अस्पताल में जन्मा

तय किया कि जीना है कवि सा

कौन देवी आ बैठी अंदर कि 
 
जैसे वैज्ञानिक सपने में देखते हैं कुदरत के रहस्य

अर्थशास्त्री खाताबही में राजनीति 
 
मुझे सपना आया कि बुनने हैं शब्द

रंग, राग, धिन-ता-धिन जैसे शब्द

गुलमोहर के पागल दिनों के शब्द

रोजाना की चीखों से गीले हुए शब्द

सपने में देखा कि सपनों का सागर हैं शब्द 
 
अगर देखता सपना कि मैं बदल रहा पारे को सोने में

या कि बहुत ऊँचा पुल बना रहा हूँ

सो लेता आराम की नींद

आँखें खुलने पर आँसुओं के खारेपन से बच जाता

यह कैसा दंभ बसा मुझमें कि

मेरे दुखों में अनंत का सरगम है


कि मुझे सुकरात के दर्शन से अचंभित होकर 
 
उससे जहर का प्याला छीन लेना है 
 
पीते हुए विष सँकरी गलियों में से गुजरना है

सारे नकाब फाड़ फेंकने हैं

कि ढूँढना है प्यार जो कभी स्थिर न हो

लिखने हैं अपने ही खिलाफ गीत बच्चों के लिए 
 

4

मैं शहर का रुदन गाता हूँ

मेरा आँगन सिकुड़ता चला है

वहाँ चाँदनी नहीं आती

मेरी सड़कों पर गाढ़ी काली धूल है

मेरे सामने पीछे हर पल छैनियाँ चल रही हैं

सुनो यह आवाज बहुत पहले कट चुके पेड़ों की साँस का आना-जाना है

इसमें कहीं न दिखती चिड़ियों की चीं-चीं सुनो


मैं कागा काँव-काँव कविता करता

सदियों से उड़ रहा

शहर में कोई रंग ऐसा दिखला दो

जो न हो थका


मैं कुछ देर छंद अलंकारों से निकलकर बैठना भर चाहता हूँ

अँधेरा होने पर एक बार वर्षों पहले देखे तारों को ढूँढना चाहता हूँ

वह कोना दिखला दो जहाँ न हो रोशनी भरा अँधेरा 

 
 
मेरे दंभ को दिल से न लगाना

मुझ में एक बाग़ भी है


वहाँ आबिदा बुल्ले शाह गाती हैं

और ग़ालिब अपनी पारी का इंतज़ार करते हैं

वहाँ कोई तख्त पर बैठा नहीं है

हरी नर्म घास है सबके लिए


मेरा दिल मयकदा है

नासेह भी झूमते दिखते हैं
 
सचमुच मेरे लफ्ज़ों में डींगें नहीं हैं

जो दिखता है वह देखता हूँ

यही जो तुम्हारा प्यार है, आराध्य है, यही साध्य है


स्तुति या सम्मान नहीं चाहता 
 
वह तो उन पत्थरों जैसे हैं 
 
जिन्हें चुन-चुन कर मैं अपने दिल से निकालता हूँ

जगह बनाता रहता कि तुम थोड़ा और बस जाओ

तुम्हीं से भरा हुआ होता हूँ 
 
जब मुझसे खेलते हैं शब्द ।

(वागर्थ - 2014)