Tuesday, September 04, 2012

धार्मिक आस्था के जैविक स्रोतः संज्ञानात्मक खोज



 ('समकालीन जनमत' के अगस्त 2012 अंक में प्रकाशित)
(इस आलेख का अधिकांश 'नेचर' पत्रिका के 23 अक्तूबर 2008 के अंक में प्रकाशित पास्काल बोयर के आलेख पर आधारित है)

पिछले सौ वर्षों से लगातार कहा जाता रहा है कि यह विज्ञान का युग है। यह भी अक्सर कहा जाता है कि विज्ञान ईश्वर के अस्तित्व का विरोध करता है। यह एक तरह की विड़ंबना ही है कि विज्ञान के विकास के साथ ही धार्मिक संस्थाओं की भी अभूतपूर्व बढ़त दिखती है। आखिर ईश्वर में विश्वास जनमता कैसे है। क्या यह महज सामाजिक पृष्ठभूमि से मिला आग्रह है या इसके कोई और बुनियादी कारण हैं? मसलन क्या यह जैविक विकास के साथ विकसित हुआ है? किसी और प्राणी में आस्तिक विचार नहीं दिखते। तो संभव है कि मानव की आस्था का उद्गम जैविक कारणों में हो। ऐसा विचार अलग अलग लोगों में अलग अलग किस्म की प्रतिक्रियाएँ पैदा करता है। आस्था वाले लोगों को खतरा महसूस होता है कि आस्था की वैज्ञानिक समझ से आस्था की दूकान ढह जाएगी। औरों को लगता है कि इससे आस्था विज्ञान-संगत है जैसा नारा चल पड़ेगा। ज्यादातर वैज्ञानिक पूरी बात को बकवास मानकर उड़ा देते हैं। हालाँकि विश्व भर में अनीश्वरवाद हजारों सालों से रहा है, पर वैज्ञानिकों में नास्तिकता पिछले दो सौ सालों में ही फैली है। अभी साल भर पहले ही स्टीफेन हॉकिंग का वक्तव्य आया है कि कोई ईश्वर नहीं है। यानी कि अभी तक यह सवाल बना हुआ था कि ईश्वर है भी या नहीं!

हर तरह के मानव समाज में ईश्वर में आस्था का प्रचलन रहा है। चेतना के और आयामों की तरह ही आस्था पर भी पिछले कई दशकों से गंभीर शोध कार्य चल रहा है और हाल के वर्षों में इस दिशा में कुछ ठोस समझ भी बनी है। कॉग्निटिव (cognitive) साइंस या संज्ञानात्मक विज्ञान एक ऐसी विधा है जिसमें चेतना के विभिन्न पहलुओं पर शोधकार्य होता है। इसमें दिमाग के साइंस (न्यूरोसाइंस), ऐंद्रिक अहसासों और मनोवैज्ञानिक प्रक्रियाओं आदि जटिल सवालों पर काम होता है। स्पष्ट है कि ये सभी विज्ञान के कठिनतम सवालों के विषय हैं। इसलिए इस क्षेत्र में प्रगति धीमी रही है, पर हाल के वर्षों में इसमें तेजी आई है।

अगर मान लिया जाए कि ईश्वर में विश्वास हमारी दिमागी प्रक्रियाओं का खेल है, तो यह सवाल पूछा जा सकता है कि फिर कैसा विश्वास या धर्म हमारे लिए सबसे स्वाभाविक है; यह भी कि फिर तर्कशीलता में ही विश्वास क्यों नहीं? इन विषयों पर समझ बढ़ाने के लिए सभी धर्मों में जो एक जैसे तत्व हैं, उनको समझना पड़ेगा। इस पर स्पष्ट समझ होने पर हम यह भी समझ पाएँगे कि भिन्न धर्मों में आस्था आपसी वैमनस्य क्यों पैदा करती है। यह सब कुछ खतरे से खाली नहीं है, क्योंकि ज्ञान के हर पहलू का भला और बुरा दोनों तरह से इस्तेमाल हो सकता है। एक आखिरी बात हम यह भी जान सकते हैं कि क्या मानव समाज में नास्तिकता व्यापक रूप में फैल भी सकती है या नहीं।

मानव जीवन और इसके विभिन्न जैविक पहलुओं के आनुवंशिक कारणों की जानकारी में जिस रफ्तार से तरक्की हुई है, उसकी वजह से मानव स्वभाव के हर पहलू को भी आनुवंशिक स्रोतों से समझने का सिलसिला भी चल पड़ा है। पर काग्निटिव साइंस में आस्था के आनुवंशिक स्रोतों को नहीं ढूँढा जाता और न ही जैविक विकास का कोई ऐसा परिदृश्य सोचा जाता है जिससे धर्मों के अभ्युदय का पता चले। इसके विपरीत कॉग्निटिव साइंस में नए सिद्धांत गढ़े और परखे जाते हैं। यह जानने की कोशिश की जाती है कि मानव स्वभाव में ऐसा क्या है कि उसने आस्था आधारित धार्मिक विश्वासों की दुनिया बनाई है। धार्मिक विचार और आचरण को संगीत, राजनैतिक व्यवस्थाएँ, पारिवारिक संबंध या जाति-संप्रदाय के संबंधों जैसे अन्य मानवीय गुणों की तरह ही देखा जा सकता है। कॉग्निटिव मनोविज्ञान, मस्तिष्क विज्ञान, सांस्कृतिक मानव-शास्त्र (cultural anthropology) और पुरातत्व विज्ञान से इकट्ठी की गई सामूहिक जानकारी से धर्म और आस्था के बारे में बेहतर समझ बनने की उम्मीद है।

देखा गया है कि अधिकतर लोगों को धर्म के बारे में विस्तार से जानने में रुचि नहीं होती। लोग मानते हैं कि सर्वव्यापी खुदा है जिसने कायनात बनाई या कुछ विशेष जगहों में अलौकिक शक्तियाँ मौजूद हैं। ऐसी मान्यताओं का कोई गहरा धर्मशास्त्रीय आधार लोगों के ज़ेहन में हो, यह ज़रूरी नहीं। ज्यादातर लोग, जैसी भी उनकी धार्मिक मान्यताएँ हों, ईश्वर को मानवीय स्वरूप में देखना चाहते हैं। पर अगर उन्हें कहा जाए कि ईश्वर बहुत सारे काम एक साथ कैसे कर लेता है तो उन्हें कोई दिक्कत नहीं आती, क्योंकि ईश्वर तो सर्वशक्तिमान है। कुछ ही क्षणों बाद सोचकर वे कह सकते हैं कि असल में ईश्वर बारी बारी से एक के बाद एक काम करता है। लोग यह भी मानते हैं कि ईश्वर का दिमाग भी मानव की तरह ही काम करता है। उसके अहसास, उसकी स्मृति, तर्कशीलता और सोच मानव जैसी ही होगी। ऐसी अपेक्षाएँ सचेत रूप से नहीं आतीं और अक्सर ये धार्मिक विश्वासों के खिलाफ भी होती हैं।

शोध से पता चला है कि सचेत रूप से मिले धार्मिक विचार सांस्कृतिक और पारंपरिक पृष्ठभूमि पर निर्भर करते हैं और एक से दूसरे धर्म या परंपरा में काफी फर्क दिखता है, पर बुनियादी मान्यताएँ बहुत अलग नहीं होतीं। शायद इसलिए भारत जैसे कई देशों में सामान्य तौर पर मिली जुली धार्मिक संस्कृति पाई जाति है। धार्मिक विचारों का बौद्धिक विमर्श लोगों को अलग करता है। बुनियादी मान्यताओं का एक जैसा होना मानव मस्तिष्क में चल रही एक जैसी प्रक्रियाओं की ओर संकेत करता है। प्रयोगों के आधार पर यह माना जा रहा है कि या तो लोग एक जैसी अलौकिक घटनाओं में यकीन करते हैं, जैसेः- दीवार छेद कर निकल जाना, या क्षणभर में कहीं बहुत दूर चले जाना, आदि या फिर सामान्य मानवीय मनोवैज्ञानिक गुणों में विश्वास करते हैं, जैसेः सामान्य अहसास, खयाल, इरादे आदि। सभी संस्कृतियों में ईश्वर की उपस्थिति संभवतः इन्हीं आम आग्रहों से जुड़ी दिमागी प्रक्रियाओं की वजह से है।

मानव की एक और खासियत है कि वह छोटी उम्र से ही काल्पनिक, वायवीय या अलौकिक चरित्रों के साथ संबंध जोड़ने में काबिल होता है। यह कुछ वैसा ही है जैसे किसी अनुपस्थित व्यक्ति से भी हम संबंध जोड़ लेते हैं या पहले (जब वह उपस्थित था) से बने संबंध को बनाए रखते हैं। बचपन से ही अदृश्य काल्पनिक मृत आत्मीय या प्रिय जनों से ऐसे संबंध हम बनाते हैं। वानर प्रजाति के अन्य पशुओं की अपेक्षा मानव में सामाजिकता के जो गुण मौजूद हैं, वे भी इसी अदृश्य साथी के साथ संबंध बनाने के नियमित अभ्यास से ही पुख्ता होते हैं।

एकबार अलौकिक के साथ संबंध जोड़ने की यह काबिलियत मिल जाए तो फिर ईश्वर जैसे अशरीरी और साथ ही सामाजिक कुछ भी की कल्पना कर पाना आसान है। अलौकिक एजेंट की यही सामाजिकता ही संभवतः सर्वशक्तिमान नैतिक अधिकारी के रूप में ईश्वर को लाता है। ऐसे अधिकारी की ज़रूरत आम तौर पर सिर्फ नैतिकता के सवालों के संदर्भ में होती है। प्रयोगों में देखा गया है कि कोई वयस्क इस बात की चिंता नहीं करता कि ईश्वर ने उसे खाना खाते या पानी पीते देखा या नहीं, पर यह चिंता होती है कि ईश्वर ने चोरी करते हुए तो नहीं देख लिया।

मानव और कई अन्य प्राणियों में मनोग्रस्ति (obsession) के कई रूप पाए जाते हैं। रस्मी तौर पर एक ही काम को बार बार करना, जिसका कोई खास नतीज़ा न भी निकलता हो, ऐसी ग्रस्ति दिमागी प्रक्रियाओं की गड़बड़ी से होती है। मस्तिष्क और मनोग्रस्ति के बारे में बढ़ती जानकारी से भी धार्मिक रस्मों के बारे में समझ बढ़ रही है। तीन बार छाती पीटना या 108 बार देवता का नाम लेना जैसे सूत्रों में बँधे रस्म, जिनसे कभी कोई फायदा सचमुच नहीं होता, इसलिए किए जाते हैं कि करनेवाले को लगता है कि उन्हें ऐसा करना ही पड़ेगा। आम तौर पर यह किसी न किसी प्रकार के शुद्धीकरण या किसी काल्पनिक खतरे से बचने के खयालों के साथ जुड़े होते हैं। रोगी को लगता है कि ऐसा करने पर उसे सुरक्षित और साफ परिवेश मिलेगा।

अब यह उजागर हो चुका है कि मानव मस्तिष्क में किसी संभाव्य शिकारी प्राणी से या हानिकारक प्रदूषण से बचने के लिए स्नायु जाल (network) सक्रिय है। इसी तंत्र की वजह से हम अपने परिवेश में किसी भी असुरक्षा या प्रदूषण के बारे में सचेत रहते हैं। जब यह ज़रूरत से ज्यादा सक्रिय हो जाता है तब मनोग्रस्ति की स्थिति पैदा होती है। प्रदूषण से बचने के धार्मिक निर्देश (पाक, पवित्र आचरण) जिन्हें हम सामान्य तौर पर मानते हैं, उसका कारण भी यही जैविक स्रोत है।

सामाजिक और विकास-जैविकी (evolutionary biology) के अध्ययनों से पता चला है कि सिर्फ मानव ही ऐसा पशु है कि आपसी विश्वास के आधार पर कई सारे अंजान मनुष्य एक साथ मिलकर स्थायी गठबंधन बना सकते हैं। मानव ने इस क्षमता का संज्ञानात्मक जैविक विकास किया है। उसे पता है कि दूसरे व्यक्ति की विश्वसनीयता को कैसे परखा जाए। उसे अतीत में किसी के साथ हुए वैचारिक या भौतिक लेन-देन को याद करते हुए उस व्यक्ति की खासियतों का लेखा जोखा करने का ज्ञान बचपन से ही मिलने लगता है। परस्पर प्रतिबद्धता के संकेतों का लोगों में लेना देना चलता रहता है। यही धार्मिक या अन्य वैचारिक संस्थाओं या संगठनों की उत्पत्ति का कारण है।

किसी एक आस्था आधारित संगठन से जुड़ने के लिए बिना किसी चाक्षुष या अन्य प्रमाण के किसी की बात को मानना पड़ता है जो कोई और अन्य आस्था आधारित संगठन की मान्यताओं से मेल नहीं भी रख सकता। यह वैचारिक समर्पण महज अपने गठबंधन को बनाने के लिए है।

इन जानकारियों से अभी तक पूरी तरह स्पष्ट नहीं हुआ है कि किसी धर्म का अनुयायी होना परिस्थितियों के अनुकूल खुद को ढालना है या कि यह जैविक विकास से मिला गुणधर्म है। हो सकता है कि आज हम जिस तरह धर्म को सामाजिक राजनैतिक स्वरूप में देखते हैं, उसमें शामिल होना एक ऐसी मानवीय क्षमता है जो जैविक आदिकाल में परिवेश में अनुरूपता (fitness) के लिए विकसित हुआ। फिलहाल बस इतना कहा जा सकता है कि धार्मिक विचार या आस्था हमारी संज्ञानात्मक क्षमताओं से उभरा मानवीय गुण है।

जिस तरह संगीत, दृश्य कलाएँ, पाक (भोजन) रुचियाँ, आर्थिक संस्थाएँ या सजावट आदि हमारे संज्ञानात्मक क्षमताओं का इस्तेमाल करते हैं, उसी तरह धार्मिक संस्थाएँ भी इनका फायदा उठाती हैं। जैसे दृश्य कलाओं में प्रकृति से भिन्न, अधिक समरूप और सांद्र रंगों की उपस्थिति से हमें उत्तेजना मिलती है, वैसे ही धार्मिक विचार भी उत्तेजक या उद्दीपक तत्वों की तरह मनोवैज्ञानिक प्रभाव डालते हैं। ईश्वर जैसे धार्मिक एजेंट अनुपस्थित मानव- एजेंटों के सरलीकृत रूप हैं और धार्मिक रस्में सरलीकृत जैविक सुरक्षात्मक कदम हैं। धर्म हमारी क्षमताओं का फायदा उठाने के लिए अलौकिक अस्तित्व से संबंध में विश्वास करते हुए समूह बनाने जैसे हमारे विशेष जैविक गुणों को उत्तेजित करता है।

धार्मिक आस्था का कोई विशेष स्रोत होना नामुमकिन है, क्योंकि मानव मस्तिष्क में कोई एक ऐसा केंद्र नहीं है, जिसे हम इसका मूल कारण कह सकें। इसलिए धर्मों की विविधता का जो औचित्य अतीत में रहा हो, वह अब भी लागू हो, यह ज़रूरी नहीं। मस्तिष्क में अलौकिक एजेंट में विश्वास, रस्मी मनोग्रस्ति की क्रियाएँ और सामूहिक प्रतिबद्धताएँ, इन सब के लिए अलग अलग क्षेत्र और प्रक्रियाएँ हैं। यह वैसा ही है जैसे रंग और आकार के लिए दृश्य तंत्र के अलग हिस्से हैं। यानी कि ईश्वर में आस्था मात्र से नैतिक मानदंड नहीं बनते या मनोग्रस्ति के विशेष प्रकार सामने नहीं आते। आधुनिक संगठित धार्मिक संस्थाएँ एक तरह से इन सभी खासियतों का (रस्म, नैतिकता, अध्यात्म, सामाजिक अस्मिता) एकमुश्त वैचारिक मिश्रण बनाकर इंसान को मजबूर करती हैं कि वह बँधा रहे। पर सचमुच मस्तिष्क में किसी एक वैचारिक प्रवृत्ति से कोई जुड़ा स्नायु जाल नहीं होता। दरअसल भिन्न विचारों से जुड़े अनगिनत स्नायु जाल मस्तिष्क में हैं। इन सबका असर यह होता है कि धार्मिक विचार कइयों को स्वतः सत्य से लगते हैं।

संज्ञानात्मक विकास-जैविकी से प्राप्त ये जानकारियाँ प्रतिष्ठित धर्म संस्थाओं की दो केंद्रीय मान्यताओं के खिलाफ जाती हैं। पहला तो यह कि कोई एक धर्म-विचार अन्य (भ्रमित) धर्म-विचारों से अलग है; दूसरा यह कि आस्था का होना वास्तविक अलौकिक या अशरीरी अस्तित्व को जानने पर संभव होता है। सच यह है कि सभी धर्मों के पीछे एक ही बुनियादी कारण हैं, और अलौकिक एजेंट की कल्पना नैसर्गिक मानवीय प्रक्रियाओं से ही संभव हुआ है। इस सच को मानने से किसी की आस्था पर चोट नहीं आनी चाहिए। आस्था हमारे संज्ञानात्मक तंत्रों के अनुकूल सबसे आसान मानवीय स्वभाव है। अनास्था के लिए हमें सोचना पड़ता है, बौद्धिक श्रम करना पड़ता है। कनाडा में ब्रिटिश कोलंबिया विश्वविद्यालय के विल गेर्वेस और आरा नोरेंत्ज़ायान ने हाल में 'साइंस' पत्रिका में प्रकाशित (27 अप्रैल 2012) अपने पर्चे में यह दिखलाया है कि विश्लेषणात्मक चिंतन से अनास्था बढ़ती है। उन्होंने सूचना के प्रोसेसिंग के दो तंत्रों का उल्लेख किया है। पहले, सिस्टम 1, में सहज-बोध यानी जैविक विकास से प्राप्त क्षमताओं से हम उपलब्ध सूचना को ग्रहण कर उस पर प्रतिक्रिया प्रकट करते हैं। दूसरे, सिस्टम 2, में सायास विश्लेषणात्मक चिंतन का इस्तेमाल होता है। ये दोनों तंत्र साथ साथ काम करते हैं। संभव है कि उपलब्ध सूचना के विश्लेषणात्मक प्रोसेसिंग से निम्न-स्तरीय सहज-बोध की प्रक्रियाओं में अवरोध आए और उच्च स्तरीय धार्मिक संज्ञान को कोई चुनौती न मिले। इसलिए अक्सर विश्लेषणात्मक चिंतन को टक्कर देती हेतुवादी बहस की प्रवृत्ति दिखलाई पड़ती है। इसके विपरीत यह भी संभव है कि विश्लेषणात्मक सोच निम्न-स्तरीय सहज-बोध को न छूते हुए विभिन्न सांस्कृतिक प्रसंगों में उच्च स्तरीय संज्ञान को रोकने की कोशिश करती हो। यानी हेतुवादी बहस करते हुए भी ईश्वर में आस्था को दरकिनार करते हुए हम अनीश्वरवाद की ओर बढ़ सकते हैं। तीसरी एक संभावना यह भी है कि दरअसल किसी भी स्तर पर पहले से मौजूद धार्मिक संज्ञान को कोई जैविक अवरोध न हो और महज नई रोशनी ढूँढते हुए हम धर्म में आस्था को गलत मानें। इन सभी प्रक्रियाओं पर संज्ञान-विज्ञान में शोध जारी है। पिछले दस वर्षों में इस क्षेत्र में द्रुत तरक्की के बावजूद यह कहा जा सकता है कि संज्ञान के बारे में हमारी समझ अभी प्राथमिक स्तर तक की है। अलग अलग सामाजिक-सांस्कृतिक पृष्ठभूमि से आए लोगों पर किए गए शोध के निष्कर्ष अलग हो सकते हैं। इसलिए जल्दबाजी से बचते हुए सावधानी के साथ इन निष्कर्षों को परखना पड़ेगा।