Sunday, August 28, 2011

साधारण असाधारण


'हिंदू' में खबर है कि संजय काक ने किसी साक्षात्कार में कहा कि काश्मीर के मसले पर प्रगतिशील भारतीय भी डगमगा जाते हैं। एक काश्मीरी पंडित जिसका पिता देश के सुरक्षा बल में काम करता था, उसने ऐसा क्यों कहा? जिन्हें संजय काक की बातें ठीक नहीं लगतीं, वे कहेंगे - गद्दार है इसलिए! 'हिंदू' में मृत्यु दंड के खिलाफ संपादकीय भी छपा है - अच्छे भले पढ़े लिखे लोग ऐसा क्यों कहते हैं? अरे, सब चीन के एजेंट हैं, कमनिष्ट हैं।
इतने सारे लोग सूचनाओं की भरमार होते हुए भी जटिल बातों का सहज समाधान ढूँढते हुए, जब भी ऐसी कोई खबर पढ़ते हैं, तो आसानी से गद्दार और कमनिष्ट कहते हुए मुँह फेर लेते हैं। इंसान में कठिन सत्य से बचने की यह प्रवृत्ति गहरी है। दर्शन की सामान्य शब्दावली में इसे denial (अस्वीकार) की अवस्था कहते हैं। इसका फायदा उठाने के लिए बहुत सारे लोग तत्पर हैं। सरकारें जन-विरोधी होते हुए भी टिकी रहती हैं, दुनिया भर में सेनाएँ और शस्त्रों के व्यापारी करोड़ों कमाते हैं और तरह तरह के अनगिनत हत्यारे आम लोगों की इसी प्रवृत्ति के आधार पर रोटी खाते हैं। आश्चर्य इस बात पर होता है कि यह तो समझ में आता है कि ज्यादा पढ़ना लिखना - तहकीकात करना, इन सब पचड़ों में जाने की जहमत से बचने की कोशिश कौन नहीं करेगा, पर अज्ञान और अल्प ज्ञान के साथ नैतिकता की संरचना कैसे जुड़ी होती है! वह भी ऐसी नैतिकता जो यह घमंड पैदा करती है कि मैं ही ठीक हूँ, बाकी न केवल गलत हैं, बल्कि निकृष्ट हैं। मनोवैज्ञानिक लोग उन बीमारियों को ढूँढते परखते होंगे, जिनकी वजह से आदमी में संकीर्णता के साथ गहरा नैतिकता बोध पनपता है। एक तरह से कहा जा सकता है कि मस्तिष्क विज्ञान में महारत के बिना ही अज्ञानता और नफरत की व्यापार-व्यवस्था अपने गुलामों पर नैतिकता की संरचना थोपने में सफल हो जाती है। यह व्यवस्था अपने शोधकर्त्ता पैदा करती है, जो सच का 'निर्माण' करते हैं। स्पष्ट है कि निर्मित सच ज्यादातर थोड़े समय के बाद अपनी मौत मरता है, पर बहुत बड़ी तादाद में लोग उसी को सच मानते रहते हैं। भविष्य में जब मस्तिष्क विज्ञान में तरक्की होती चली है, यह सोचकर आतंक होता है कि लोगों को गुलाम बनाए रखने के क्या तरीके अपनाए जाएँगे।
संजय काक, साँईनाथ, नोम चाम्स्की, हावर्ड ज़िन जैसे लोग जो सच वाला सच ढूँढने बतलाने में जीवन दाँव पर लगा चुके हैं, उनको पता है कि उनकी लड़ाई लंबी है। सबसे रोचक बात यह कि अक्सर जब अन्याय के खिलाफ लोग उठ खड़े होते भी हैं तो उनका नेतृत्व किसी बहुत जानकार व्यक्ति के हाथ ही हो, यह ज़रूरी नहीं। वेनेज़ुएला में जनपक्षधर तख्ता पलट करने वाला हूगो चावेज़ कोई बड़ा ज्ञानी व्यक्ति नहीं है और न ही फिदेल कास्त्रो क्यूबा में तानाशाह को गद्दी से उतारते वक्त वैसा ज्ञानी था, जैसा समय के साथ उसमें दिखलाई दिया। यह मानव इतिहास की विड़ंबना है कि जननेता हमेशा बहुत समझदार लोग नहीं हुआ करते। लातिन अमरीका में यह बात क्रांतिकारियों ने समझी है। हमारे यहाँ ऐसी समझ है या नहीं कहना मुश्किल है। पर न समझ पाने से जूझने के तरीके अजीब हैं। जैसे मुल्क भर में गाँधी को अतिमानव बनाने के बड़े उद्योग में जो लोग शामिल हैं, क्या ये सभी लोग गाँधी के जीवनकाल में उसे वह स्थान देते, जो आज वे देते हैं। संभवतः सभी नहीं। मैं तो आज भी उसे एक सामान्य व्यक्ति मानता हूँ, जिसे अपनी सुविधाओं और ऐतिहासिक परिस्थितियों का ऐसा फायदा मिला कि वह विश्व इतिहास में एक असाधारण अध्याय रच गया। ठीक इसी तरह आज भी मेरे जैसे कई लोग साधारण में असाधारण देखकर परेशान होते हैं। कभी कभी मुझे शक होता है कि इसकी वजह हमारा वह दंभ तो नहीं, जो हममें जाति, वर्ग आदि से उपजी सुविधाओं से पनपा है। जो भी हो, किसी आंदोलन में अगर ऐसी संभावनाएँ दिखें कि ज्यादा नहीं तो कुछ ही लोगों को denial (अस्वीकार) की अवस्था से निकालने का मौका मिले तो हमें इस कोशिश में जुटना चाहिए। असाधारण में साधारण या साधारण में असाधारण दिखने से हमें परेशान नहीं होना चाहिए।

Sunday, August 21, 2011

कास्मिक एनर्जी


आज 'हिंदू' अखबार में पढ़ा कि येदीउरप्पा ने गद्दी छोड़ने के पहले 'हज्जाम' शब्द को कन्नड़ भाषा से निष्कासित करने का आदेश दिया है। सतही तौर पर यह इसलिए किया गया कि हज्जाम शब्द के साथ हजामत करने वालों की अवमानना का भाव जुड़ा हुआ है - कन्नड़ भाषा में। हो सकता है कि 'हज्जाम' की जगह प्रस्तावित 'सविता' शब्द ठीक ही रहे। पर कन्नड़ भाषा का ज्ञान न होने की वजह से मुझे यह बात हास्यास्पद लगी कि जात पात का भेदभाव रखने वाली ब्राह्मणवादी संस्कृति से उपजे एक शब्द के लाने से अब तक हो रहा भेदभाव खत्म हो जाएगा। जून के महीने में मैं शृंगेरी गया था। वहाँ देखा घने जंगल के बीच 'सूतनबी' जलप्रपात का नाम बजरंगियों ने बदलकर कुछ और रख दिया है, चूँकि 'नबी' शब्द इस्लाम के साथ जुड़ा है। बहुत पहले शायद परमेश आचार्य के किसी आलेख में पढा था कि उन्नीसवीं सदी के अंतिम वर्षों में कोलकाता विश्वविद्यालय की सीनेट ने प्रस्ताव पारित कर बांग्ला भाषा में प्रचलित कई अरबी फारसी के शब्दों के प्रयोग पर पाबंदी लगा दी थी। यह प्रवृत्ति बंकिमचंद्र के लेखन से शुरू हुई थी - बंगाल में धर्म के आधार पर पहले बुद्धिजीवियों और बाद में व्यापक रूप से आम लोगों में हुए सांप्रदायिक विभाजन में बंकिम के उपन्यास 'आनंदमठ' की भूमिका आधुनिक भारतीय इतिहास का एक महत्त्वपूर्ण पड़ाव है। इसका असर राष्ट्रीय स्तर पर कैसा पड़ा यह कहने की ज़रूरत नहीं है।

पुरातनपंथी और सांप्रदायिक विचार रखने वाले लोगों की यह खासियत है कि वे औरों को सहनशीलता की नसीहत देते हैं और खुद जबरन अपने खयाल दूसरों पर थोपते रहते हैं। हमारे संस्थान में अक्सर ऐसे कुछ लोग बिना औरों की परवाह किए पोंगापंथी एजेंडा चलाते रहते हैं। हाल में ऐसे एक वर्कशाप में बाहर से आए एक जनाब ने सबको अपनी 'कास्मिक एनर्जी' एक दृष्टिहीन छात्र पर केंद्रित करने की सलाह दी, ताकि उसकी दृष्टि लौट आए। इसके पहले कि बाकी लोगों को पता चले और लोग विरोध कर सकें, पोंगापंथी बंधु अपना काम कर गए।

Sunday, August 14, 2011

सभी अंग्रेज़


आगे आती थी हाले दिल पे हँसी
अब किसी बात पर नहीं आती
यह अच्छा मौका है कि जब वे सब लोग जो चार महीने पहले आधी रात के बाद पटाखे फोड़ कर मेरे जैसों की नींद हराम कर रहे थे और अब हाय हाय कर अपनी नींद पूरी नहीं कर रहे, ऐसे वक्त इस बदनसीब मुल्क की कुछ खूबियों को गिना जाए। मेरे जैसे मूल्यहीन व्यक्ति को इन दिनों जबरन मानव मूल्यों नामक अमूर्त्त विषय पर सोचने और औरों से चर्चा करने की जिम्मेदारी दी गई है। इसी प्रसंग में चर्चा छिड़ी कि स्वाधीनता दिवस क्यों मनाया जाए। वैसे तो ज्यादातर लोगों के लिए यह ध्रुवसत्य है कि यह दिन एक बड़ी जीत की स्मृति में ही मनाया जाता है; पर मजा किरकिरा करते हुए बंदे ने जनता को सलाह दी कि जीत नहीं हार मानकर भी यह दिन उत्सव मनाने लायक है। बार बार हार कर भी फिर से अन्याय के खिलाफ लड़ने के लिए उठ पड़ने का जो अनोखा उन्माद मानव मस्तिष्क में है, यह दिन उस उन्माद का उत्सव मनाने के लिए है। और चूँकि यही बात पाकिस्तान के चौदह अगस्त पर और टिंबकटू के भी ऐसे ही किसी नियत दिन पर भी लागू होती है, इसलिए उन दिनों को भी इसी खयाल से बराबर जोश के साथ मनाया जाना चाहिए। इस मुल्क की सबसे बड़ी खूबी यह कि यहाँ हम तुम कुछ लोग ही सही ऐसी बातें कर सकते हैं।
बहरहाल खेल तो खेल ही होता है पर हमारी पटाखे फोड़ू जनता के साथ यह ग़म मेरा भी कि करोड़ों का मालिक सही, सचिन को ऐसा रन आउट होना था। वेद कुरान गुरु ग्रंथों से निकला कोई वैज्ञानिक रब्ब उस आकाश में न था, जिसके लिए उसकी टीस के साथ और कई टीसें उस वक्त एकाकार हुई थीं। उस वक्त राम कृष्ण अल्लाह सभी अंग्रेज़ थे। क्या किया जाए, अंग्रेज़ी का जमाना है।
फिलहाल अंग्रेज़ी में एमा गोल्डमैन का वह भाषण फिर याद किया जाए जो उसने 1908 में दिया था, और जिसमें उसने कहा था कि - Indeed, conceit, arrogance and egotism are the essentials of patriotism. Let me illustrate. Patriotism assumes that our globe is divided into little spots, each one surrounded by an iron gate. Those who have had the fortune of being born on some particular spot consider themselves nobler, better, grander, more intelligent than those living beings inhabiting any other spot. It is, therefore, the duty of everyone living on that chosen spot to fight, kill and die in the attempt to impose his superiority upon all the others.
The inhabitants of the other spots reason in like manner, of course,....
आज़ादी की चाह मानव मन की बुनियादी प्रवृत्ति है। आज़ादी का दिन यह जानने के लिए मनाया जाए कि अभी और कितनी लड़ाइयाँ लड़नी हैं। हजारों लोग लड़ रहे हैं कि हमारे बच्चों का भविष्य बेहतर हो। इस दिन उनको सलाम किया जाए कि तमाम सलवा जुडुम और मोदियों के होते भी वे लड़ रहे हैं। स्वाधीन भारत के लिए लड़ाई स्वाधीन मानव के लिए लड़ाई है।