Tuesday, July 26, 2011

मुंबई हो या ओस्लो


पिछले चिट्ठे में हल्के मिजाज में मैंने लिखा था कि गंभीर फ्रांसीसी फिल्म याद नहीं आ रही। इस पर मित्रों ने याद दिलाया कि भइया त्रुफो गोदार्द को मत भूलो। अरे यार! मैं मजाक कर रहा था। दोपार्दू भी मेरा प्रिय अभिनेता रहा है।
नार्वे में हुई भयानक घटना के साथ भारत की समकालीन राजनीति का जो संबंध उजागर हो रहा है, उसे जानकर एक ओर तो कोई आश्चर्य नहीं होता, साथ ही अवसाद से मन भर जाता है। अवसाद इसलिए भी कि हमारे बीच कई लोग ऐसे हैं जिन्हें उस आतंकी की बातों से सहमति होगी। उसकी एक बात जो हैरान करने वाली है, वह है कि लोगों में मुसलमानों के खिलाफ नफरत फैलाने के लिए मुसलमानों को मत मारो, ऐसी आतंक की घटनाओं को अंजाम दो, जिसमें आम लोग बड़ी तादाद में मारे जाएँ। सरकारें अपनी गुप्तचर संस्थाओं के जरिए एक दूसरे के मुल्कों में या कभी अपने ही मुल्क में इस तरह की जघन्य हरकतें करती रहती हैं, यह तो सुना था, पर आतंकवादी ऐसे विचारों से संचालित हो रहे हों तो आदमी कहाँ छिपे।
पर जीवन तो चलता ही रहता है। मुंबई हो या ओस्लो, जीवन का संघर्ष निरंतर है। हम उम्मीद करते रहेंगे, वह सुबह आएगी, जब ऐसी बीमारियों से हम मुक्ति पा लेंगे। जो दबे कुचले हैं, उनमें से मानवता का ह्रास समझ में आता है, पर खतरनाक वे हैं जो संपन्न हैं, और उत्पीड़ितों की पीड़ा का फायदा उठाते हैं। मुझे अक्सर लगता है कि सामान्य पारंपरिक जीवन जीते हुए जिन पूर्वाग्रहों में हम लोग फँसे रहे, उन से मुक्त होना आसान है। पर जिनका संपन्नता के साथ परंपरा से विच्छिन्न लालन पालन हुआ है, वे जब परंपरा की किताबी पहचान शुरु करते हैं, तो विकृतियाँ सामने आती हैं। ऐसे लोग हर जगह अपनी पहचान बनाने की होड़ में और अपना वर्चस्व बनाने के लिए कभी धर्मग्रंथों में विज्ञान का डंका बजाते फिरते हैं, तो कभी परंपरा, धर्म और संस्कृति का यत्र तत्र से इकट्ठा किया अधकचरा ज्ञान सब पर लादने की कोशिश करते हैं। इनके पास दबंग आवाज होती है, जो इनकी संपन्नता का परिचायक है। पर इनकी समझ महज किताबी और कुंठित होती है। इनकी कुंठाएँ ही लोगों में परस्पर नफरत का बीज बोती हैं।

Sunday, July 24, 2011

आए! आए आए आए!


दोस्तों! इस बार स्कूटर चल गया। ओए बजाज, बजाज ओए! तो शुक्रवार को हमने फ्रांसीसी फिल्लम देखी।

Ensemble cest trop – टिपिकल फ्रांसीसी फिल्म। संबंधों पर चुटकी, यौनिकता यानी सेक्सुआलिटी पर चुटकी, यह फ्रांसीसी फिल्मों की खासियत है। मुझे याद नहीं आ रहा कि मैंने कभी कोई गंभीर फ्रांसीसी फिल्म कभी देखी हो। कोई तो ज़रूर देखी होगी। जेरार्द देपार्दू की शक्ल देखते ही लगता है बंदा शरारती है। यह अलग बात कि वह ' दाँतों' का अभिनय भी कर सकता है।
इस दौरान बड़ी बात यह हुई कि प्रत्यक्षा ने लोर्का के ''Pequeño vals vienés' के आना बेलेन द्वारा गायन की लिंक भेजी। मैंने शब्दों के बारे पूछा, तो जो लिंक उसने भेजी, उससे पता चला कि अंग्रेज़ी के प्रख्यात कवि लेनर्ड कोहेन ने भी इसे अंग्रेज़ी में गाया है। फिर वह भी ढूँढा। आए! आए आए आए!
ओ हो हो (वही टिपणिया स्टाइल) –
आए! आए आए आए!
क्या बात है!

Sunday, July 17, 2011

अखिल गति


निकला था कोरियन फिल्में देखने, सड़क पर स्कूटर ठप्प बोल गया। हुआ यह कि एक दिन और
एक रात स्कूटर बेचारा उल्टा गिरा हुआ था। ठहरा स्कूटर – किसको फिकर कि सीधा कर दे।
एक जमाने में अपुन भी गाड़ी वाले थे। जिसके लिए वह गाड़ी ली थी, वह लाड़ली धरती के दूसरी
ओर चली गई तो मैंने गाड़ी को विदा कह दिया। मुहल्ले में ही है, सच यह कि अभी भी कागजी तौर
पर मालिक मैं ही हूँ, पर वह मेरी नहीं है। खैर, स्कूटर अब भी मेरा ही है। हालांकि अब मैं पहले
जैसा  फटीचर टीचर होने का दावा नहीं कर सकता, पर स्कूटर और मैं एक दूसरे के हैं। तो एक
पूरा दिन और एक पूरी रात स्कूटर बेचारा उल्टा गिरा पड़ा रहा। शुकर पड़ोसन का कि उसने
फोन किया (क्या जमाना कि पड़ोसी से भी फोन पर बात होती है) कि मियाँ, भाई जान, यह
आप की ही औलाद लगती है, सँभालिए बेचारे को। जब मैंने सँभालने की शिरकत की तो बेचारा
धूल धूसरित पड़ा हुआ था।

बहरहाल आज बड़ी देर तक मन ही मन वाद विवाद करता रहा। दसेक किलोमीटर चलना है, 
शेयर आटो+बस+ग्यारह नंबर  गाड़ी या अपना बेचारा स्कूटर। आखिर इतवार का दिन 
(मतलब ट्राफिक कम – भारतीय सभ्यता से सामना होने का खतरा  कम) और उम्र के
आतंक के खिलाफ उठती आवाज ने मिलकर निर्णय ले लिया।  स्कूटर चलेगा भी कि नहीं डर
 था, पर ओ हो (यह 'ओ हो'  प्रह्लाद टिपणिया के स्टाइल में बोलना है) वह तो चल पड़ा। 

मनहूस।  

तीन किलोमीटर जाकर रुक गया। एक पेट्रोल पंप पर स्कूटर को खड़ा किया।   तीन घंटे हो गए हैं।
कहीं कोई कारीगर न मिला तो आखिर अपनी संस्था के बंधुओं को फोन किया। तो अब खबर है कि
बारिश का मजा लीजिए, कल स्कूटर की देखी जाएगी। कोरियन फिल्में मेरे बगैर चल ही रहीं होंगीं।
इतिहास एक महत्त्वपूर्ण अध्याय से वंचित रह गया।
बारिश पर यह तीन साल पुरानी रचना– गलती से ग़ज़ल कह दिया तो नंद किशोर आचार्य जी ने कहा
कि आज़ाद  ग़ज़ल कहोः  

ये बारिश की बूँदें टपकती रहीं रात भर 
वो बचपन की यादें टपकती रहीं रात भर  

कहाँ कहाँ हैं धरती पे बिखरे दोस्त मिरे
गीली भीगी यादें सुलगती रहीं रात भर  

मिरे मन को सहलाती रहीं जो परियाँ 
वो मिलती रहीं, बिछुड़ती रहीं रात भर  

कहीं कोई बच्चा क्या रोया जागकर 
यूँ छाती माँ की फड़कतीं रहीं रात भर  

झींगुर की झीं झीं, मेढक की टर्र टर 
आवाजें किस्म की  भटकती रहीं रात भर 

कोई शिकवा हो ज़िंदगी से अब क्यूँकर
यूँ रात उनसे नज़रें मिलती रहीं रात भर।

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 मंदिरों में पैसा कहाँ से आया - राजा जी ने दिया। राजा को पैसा किसने दिया?

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और मुंबई के धमाकों के बावजूद कई प्रार्थी भर्त्ती के लिए आए। अखिल गति के नियम।

Sunday, July 03, 2011

झमाझम मेघा और मेधा की मार


अभी पाँच मिनट पहले से झमाझम बारिश हो रही है। यहाँ मानसून आए एक महीना हो गया। इन दिनों लगातार संस्थान में भर्ती लेने आए प्रार्थियों के लिए अलग अलग स्तर की कई साक्षात्कार समितियों में बैठना पड़ रहा है। चूँकि विज्ञान और मानविकी दोनों में मेरा हस्तक्षेप रहा है, इसलिए मेरी दुर्दशा औरों की तुलना में अधिक है। रविवार को भी छुट्टी नहीं। कल से जिन पैनेल्स में बैठा हूँ, उनका संबंध मानविकी और भाषा विज्ञान से है। हमारे यहाँ कुछ अनोखे प्रोग्राम हैं। पाँच साल में कंप्यूटर साइंस में बी टेक और मानविकी या भाषा विज्ञान या प्राकृतिक विज्ञान जैसे किसी डोमेन (विशेष क्षेत्र) में एम एस, की दो डिग्रियाँ - शुरू से ही डोमेन विषयों में शोधकार्य पर जोर है। खैर, कल उज्जैन से आए एक छात्र से कुछ कोशिश कर कालिदास का नाम निकलवाया, पर कालिदास की किसी कृति का नाम नहीं निकला। रोचक बात यह थी कि महाकाल मंदिर में जाने पर कैसे एक अलौकिक शक्ति की उपस्थिति का आभास होता है, यह जानकारी उसने हमें दी। आज इलाहाबाद से आयी एक बालिका ने बड़ी कोशिश कर याद किया कि उसने स्कूल के पाठ्यक्रम में किसी स्त्री लेखिका की कुत्ते पर लिखी कहानी 'नीलू' पढ़ी थी। वर्मा कहने पर महादेवी उसने जोड़ लिया, पर यह पूछने पर कि वह मुख्यतः कहानी या कविता लिखती थी, उसने कहानी बतलाया। ये बच्चे देश के मेधावी गिने जाने वाले बच्चे हैं। विशाखापत्तनम से आयी एक बच्ची का मानना था कि हुसैन को सरकार ने उसके अपराध की वजह से देश से निकाला था। हैदराबाद में रहने वाले एक मूलतः हिंदी भाषी बड़े ही फर्राटे से अंग्रेज़ी बोलने वाले एक जनाब का कहना था कि हालाँकि उसने ग्यारहवीं और बारहवीं कक्षाओं में अंग्रेज़ी के अलावा दूसरी भाषा के बतौर संस्कृत पढ़ी है, उसे संस्कृत का एक अक्षर भी नहीं आता, क्योंकि सब कुछ रट्टा मार कर पढ़ा था। बहरहाल मेधा की मार अभी चलती रहेगी, आगे और कई साक्षात्कार होने हैं।
आज अखबार में सर विदिया (वही विद्या नायपाल) की स्त्री लेखिकाओं पर विवादास्पद टिप्पणी पर कुछ आलेख पढ़े। स्त्री लेखिकाओं और कलाकारों को दरकिनार कर हम एक अधूरे संसार में ही जी सकते हैं। इसी प्रसंग में यह कविताः-

उन सभी मीराओं के लिए
तुम्हारे पहले भी छंद रचे होंगे युवतिओं ने
अधेड़ महिलाएँ सफाई करतीं खाना बनातीं
गाती होंगी गीत तुमसे पहले भी
किसने दी तुम्हें यह हिम्मत
कैसी थी वह व्यथा प्रेम की मीरा
कौन थीं तुम्हारी सखियाँ
जिन्होंने दिया तुम्हें यह जहर
कैसा था वह स्वाद जिसने
छीन ली तुमसे हड्डियों की कंपन
और गाने लगी तुम अमूर्त्त प्रेम के गीत
उन सभी मीराओं के लिए जो तुमसे पहले आईं
मैं दर्ज़ करता हूँ व्यथाओं के खाते में अपना नाम
मेरा प्रतिवाद कि मैं हूँ अधूरा अपूर्ण
मुझसे छीन लिए गए हैं मेरी माँओं के आँसू
आँसू जिनसे सीखने थे मैंने अपने प्रेम के बोल
अपनी राधाओं को जो सुनाने थे छंद.
('हंस' और 'प्रेरणा' पत्रिकाओं और 'सुंदर लोग और अन्य कविताएँ' संग्रह में प्रकाशित)