Thursday, October 28, 2010

करोड़ों की लड़ाई


एक समय था जब हर किसी को सही सूचनाएं उपलब्ध नहीं होती थीं. बड़े शहरों में पुस्तकालय होते थे - छोटे शहरों में भी होते थे पर उनका मिजाज़ खास ढंग का होता था. गाँव में बैठ कर सूचनाएं प्राप्त करना मुश्किल था. आज ऐसा नहीं है, अगर किसी को पढ़ने लिखने की सुविधा मिली है, और निम्न मध्य वर्ग जैसा भी जीवन स्तर है, तो मुश्किल सही इंटर नेट की सुविधा गाँव में भी उपलब्ध है - कम से कम अधिकतर गाँवों के लिए यह कहा जा सकता है. इसलिए अब जानकारी प्राप्त करें या नहीं, और अगर करें तो किस बात को सच मानें या किसे गलत यह व्यक्ति के ऊपर निर्भर है. अक्सर हम अपने पूर्वाग्रहों के आधार पर ख़ास तरह की जानकारी को सच और अन्य बातों को झूठ मानते हैं. और वैसे भी बचपन से जिन बातों को सच माना है उसे अचानक एक दिन गलत मान लेना कोई आसान बात तो है नहीं. इसलिए चाहे अनचाहे अपने खयालों से विपरीत कोई कुछ कहता हो तो असभ्य फूहड़ ही सही किसी भी भाषा में उसका विरोध करना ज़रूरी लगता है. मुझे सामान्यतः ऐसे लोगों से कोई दिक्कत नहीं होती, आखिर जो जानता नहीं, एक दिन वह सही बातें जान सकता है और इसलिए उसे दोष देना मैं वाजिब नहीं समझता. मुझे ज्यादा दिक्कत ऐसे लोगों से होती है जो शातिर होते हैं जिन्होंने अपनी आत्माएं बेची होती हैं, और जो भाषा के दांव पेंच से, न कि सही जानकारी के आधार पर, बातें रखते हैं. अक्सर ये लोग छल बल हर तरह की कोशिश से हमें नीचा दिखने की कोशिश करते हैं. फिर भी हमें लगता है कि कोई बात नहीं, संवाद की स्थिति बनाए रखना ज़रूरी है और हम बेवजह अपना वक़्त जाया करते हैं .ऐसे लोग सवाल उठाते हैं तो ऐसे कि जैसे अब यह पेंच चलाया तो अब यह . इसलिए नहीं कि हमें कोई साझी समझ बनानी है. फिर भी मानवता में विश्वास रखते हुए हम प्रयास करते हैं, हमें करते रहना चाहिए. एक पड़ाव पर आकर मुझे भी लगने लगता है इस व्यक्ति से अब बात नहीं करनी. मैंने पहले कभी ऐश्ले मोंटागु का यह कथन पोस्ट किया है, Reasonable persons I reason with, bigots I will not talk to'.

काश कि मैं इस मनस्थिति से निकल सकूं और बेहतर इंसान बनते हुए हर किसी से अनंत समय तक बात कर सकूं.मुझे यह अहसास दिलाने की कोशिश कई लोगों ने की है कि मैं भी किसी ख़ास समुदाय, किसी ख़ास सम्प्रदाय का हिस्सा हूँ. कभी मजाक में, कभी गंभीरता से, समुदायों के बीच संकट के कई क्षणों में, मुझे बतलाने की कोशिश की गयी है कि मैं, जैसा मेरा नाम बतलाता है, एक विशेष सम्प्रदाय का व्यक्ति हूँ. ये लोग सभी घटिया लोग हैं ऐसा नहीं. इनमें से अधिकतर मेरे दोस्त हैं. अक्सर बड़ी ईमानदारी से लोग कहते हैं, 'आप लोग तो..' या 'आप लोगों में ...' आदि. यह भी सही है कि 1 नवम्बर 1984 में प्रिंसटन यूनीवर्सिटी के एक से दूसरे होस्टल के टी वी रूम में दौड़ता हुआ देख रहा था कि कैसे उन लोगों को चुन कर जलाया जा रहा है जिन के सम्प्रदाय में मेरा होना तय है. फिर भी आखिर तक जो बात याद रहती है वह यही कि वे लोग गलत थे जिन्होंने मुझे बार बार यह जताने की कोशिश की कि मैं महज मनुष्य नहीं, मैं एक सम्प्रदाय से परिभाषित हूँ.

इसका मतलब यह नहीं कि जिस धर्म और संस्कृति की शिक्षा मैंने अपने पिता से पाई, उसकी कीमत कोई कम है. मुझे गर्व है कि मेरे पिता सवा लाख से एक लड़ाऊँ कहने वाले गुरु गोविन्द के अनुयायी थे. अन्याय के खिलाफ आवाज़ बुलंद करने की, किरत कर और वंड (बाँट) छक का आदर्श जीने की प्रेरणा मुझे उस धर्म से मिली. 'आदि सच जगादि सच, है भी सच होसी (जो हो रहा है ) भी सच' (Being and becoming) का दर्शन मुझे मिला. और मैंने वैज्ञानिक सोच के साथ इस संस्कार को अपने अन्दर समेटा. कोलकाता जैसे शहर में रहते हुए मैंने जाना कि हम दूसरों से अलग हैं. पूरे मोहल्ले में न केवल हम अलग धर्म के थे, हम सबसे गरीब भी थे.इसलिए दोस्तों, जो यह कहते हैं कि आप फलां लोगों के बारे में तो कहते हो, फलां के बारे में नहीं कहते, उन्हें पता ही नहीं है कि अल्प-संख्यक होना क्या होता है, विस्थापित होना क्या होता है, ऐसे विषयों में हमारी कैसी समझ है. यह संयोग की बात है कि कई कश्मीरी पंडितों से मिलने का मौक़ा मुझे मिला है. ये सभी बड़े सुशिक्षित, सुसंस्कृत लोग हैं. यह कि मैंने कभी उन्हें कश्मीरी पंडित नहीं सोचा, यही सोचा कि वे दूसरों जैसे ही आम आदमी हैं, ऐसा झूठ मैं नहीं कह सकता. सच यह कि ...जयकिशन, ... कौल, ... रैना, ऐसे कई मित्रों से मिला हूँ और इन बातों पर बहुत चर्चा हुई है कि कश्मीर में क्या कुछ हो रहा है. बहुत कुछ उन्हीं से जाना है. उन्हीं में से कुछ ने बतलाया था कि जगमोहन ने पंडितों को कश्मीर घाटी छोड़ने को कहा था (बाद में जब कुलदीप नय्यर ने यह लिखा तो जगमोहान ने इसका तीखा विरोध करते हुए लिखा). लम्बे समय तक सिर्फ उन्हीं कश्मीरी मुसलमानों को देखा था जो शिमला में सामान ढोते हैं (इन पर तुलसी रमण की एक कविता है). फिर एस आर गीलानी से मिला जिसे फांसी की सजा मिल रही थी और भयंकर विरोध के बावजूद दिल्ली के कुछ अध्यापकों ने बीड़ा उठाया था कि वे इस अन्याय को नहीं होने देंगे. नंदिता हक्सर गीलानी की वकील थीं. इसमें हम भी जुड़े और यह इतिहास है इस भयंकर काले धब्बे से यह मुल्क छूटा. फिर राजनैतिक कैदियों के अधिकारों के लिए गीलानी और गुरशरण सिंह की पहल में एक मंच बना. मैं भी उसके संस्थापक सदस्यों में से हूँ, हालांकि अपनी मजबूरियों से कभी मैं उनके लिए कुछ कर नहीं पाया हूँ. गीलानी के अलावा एक और कश्मीरी मुसलमान से मिला था जो आई आई टी दिल्ली में केमिस्ट्री के हेड थे. किसी पी एच डी वाईवा के सिलसिले में चंडीगढ़ आये थे तो शाम को उन्हें लेकर हम लोग पार्क विउ रेस्तरां में गए थे. हाल में इसी साल पंजाब विश्वविद्यालय के दो कश्मीरी मुसलमान विद्यार्थियों से मिला. उनसे मिलते वक़्त मुझे पता रहता है कि ये पंडित नहीं मुसलमान हैं. मैं भी इसी समाज का हिस्सा हूँ.चंडीगढ़ में रहते हुए यह सोचना बहुत पहले ही शुरू हो गया था कि कश्मीर के इतने पास होते हुए भी इतने कम कश्मीरी मुसलमानों को कैसे जानता हूँ. और जितने भी कश्मीरियों को जानता हूँ वे सब पंडित ही क्यों हैं. स्पष्ट है इसके लिए कोई पंडित दोषी नहीं है. यह इतिहास की दुर्घटनाएं हैं, कि लोग पंडितों और मुसलमानों में बँटे होते हैं और हम पंडितों से मिलते रहते हैं मुसलमानों से नहीं. जब कश्मीर में पृथकतावादी आन्दोलन हुआ तो पंडित एक तरफ और अधिकतर मुसलमान एक तरफ कैसे हो गए? क्या वजह है कि मेरे साथी आदरणीय कौल साहब तकलीफ से कहते हैं - ये मुसलमान कभी हिन्दुस्तान में नहीं आयेंगे. दूसरी ओर संजय काक (जिनसे मैं मिला नहीं हूँ) जैसे पंडित समुदाय से आए लोग हैं जो हमें सोचने को मजबूर करते हैं कि काश्मीरियों से आज़ादी का हक छीना जाना घोर अन्याय है.यह हमारे ऊपर है कि हम किस बात को सही मानें और किसे गलत. हम चाहें तो हमें हमेशा ही सवर्ण गरीबों की पीड़ाएं दिखेंगी, उतनी ही तीखी जितनी की दलितों की होती है या और भी ज्यादा. इसी तरह हम चाहें तो हम तुलना करते रहेंगे कि कौन ज्यादा पीड़ित है पंडित या मुसलमान.एक विकल्प और भी है - जो बहुत दर्दनाक है और वह है कि हम जानें कि बड़ी तादाद में अवहेलित पीड़ित हो रहे लोग किसी भी संप्रदाय या समुदाय के क्यों ना हों कभी न कभी अपने हकों की माँग लिए उठते हैं और तब कई तरह की विकृतियों को हमें झेलना पड़ता है, पर अंततः हमें इसी निष्कर्ष पर आना पड़ता है कि अन्याय के बल पर कोई भी व्यवस्था हमेशा टिकी नहीं रह सकती. ऐसा मानते हुए हम पाते हैं कि बहुत सी बातें जिन्हें हम शाश्वत मानते थे वे गलत हैं और इस तकलीफ को झेल पाने की हिम्मत से बच कर हम कहने लगते हैं कि अन्याय का विरोध करने वाले पापी हैं, देशद्रोही हैं, दुश्चरित्र हैं, इत्यादि इत्यादि.

इसलिए जब दलितों की बात होती है तो हमारे अंदर का सवर्ण कहता है कि हमने हमेशा ही दलितों से प्रेम किया है, जब स्त्रियों की बात होती है, तो हमारा पुरुष कहता है हमारी परम्परा में स्त्री देवी है, जब हम कश्मीरियों की आज़ादी की बात करते हैं, हमें याद आते हैं पंडित जिन्होंने हमेशा मुसलमानों के साथ प्यार का सम्बन्ध बनाए रखा था. और मजाल क्या है कि कोई हमें इससे अलग भी कुछ कहे, डंडे मार के दो दिनों में ठीक कर देंगे, हमारा देश हमारी मातृभूमि आदि.
एक दिन मैं भी किसी दंगे में मारा जा सकता हूँ, हो सकता है मुझे मारने वाला कोई मुसलमान ही हो, इसलिए क्या सच मुसलमान और गैर मुसलमानों में ही बँटा होगा?
काश्मीर पर मेरे ब्लाग पर पहले भी बातें हुई हैं. पाँच साल पहले जब ब्लाग लिखना शुरु किया था, बहस तब भी होती थी. एक बार रमण कौल, अतुल आदि से लंबी बहस हुई थी, पर तब आज जैसी असभ्य टिप्पणियाँ नहीं के बराबर आती थीं. एक दूसरे से सीखने की कोशिश ज्यादा थी. एक मित्र ने चिंता जताई है - क्या हम फासीवाद की तरफ बढ़ रहे हैं? मुझे यह चिंता तीन दशकों से रही है. पर पीछे मुड़ कर देखता हूँ तो हताशा से अलग उम्मीद ज्यादा दिखती है. भूखे नंगे लोगों तक सूचनाएँ पहुँच रही हैं और वे भी सूचनाओं का चयन कर रहे हैं.
वही भूखे नंगे लोग जिनका जिक्र अरूंधती ने किया. काश्मीर से भगाये गये हिंदुओं पर हुए अन्याय को अरुंधती ने अनेक बार बखाना है और इसे एक त्रासदी बताया है और साथ ही भूखा नंगा हिंदुस्तान कहने वाले पृथकतावादियों को चेताया है कि यही भूखे नंगे हिंदुस्तानी इनके हकों की लड़ाई का समर्थन कर रहे हैं. इन्हीं के बल पर लाखों काश्मीरियों के हकों की लड़ाई करोड़ों की लड़ाई बन जाती है.




Tuesday, October 26, 2010

मुझे अरुंधती से ईर्ष्या है

मैं उन करोड़ों लोगों में से हूँ, जो इस वक़्त अरुंधती के साथ हैं. ये सभी लोग अरुंधती के साथ जेल जाने की हिम्मत नहीं रखते, मैं भी डरपोक हूँ. पर इस वक़्त मैं अरुंधती का साथ देने के लिए जेल जाने को भी तैयार हूँ.
अरुंधती ने जो कहा है वह हम उन सब लोगों की तरफ से कहा है, जो निरंतर हो रहे अन्याय को सह नहीं सकते. देशभक्ति के नाम पर मुल्क के गरीबों के खून पसीने को कश्मीरियों के दमन के लिए बहा देना नाजायज है और यह कभी भी जायज नहीं हो सकता.

कश्मीर पर सोचते हुए हम लोग राष्ट्रवाद के मुहावरों में फंसे रह जाते हैं. जब इसी बीच लोग मर रहे हैं, कश्मीरी मर रहे हैं, हिन्दुस्तानी मर रहे हैं. करोड़ों करोड़ों रुपए तबाह हो रहे हैं. किसलिए, सिर्फ एक नफरत का समंदर इकठ्ठा करने के लिए.

यह सही है कि हमें इस बात की चिंता है की आज़ाद कश्मीर का स्वरुप कैसा होगा और हमारी और पकिस्तान की हुकूमतों जैसी ही सरकार आगे आजादी के बाद उनकी भी हो तो आज से कोई बेहतर स्थिति कश्मीरियों की तब होगी यह नहीं कहा जा सकता. पर अगर यह उनके लिए एक ऐतिहासिक गलती साबित होती है तो इस गलती को करने का अधिकार उनको है. जिनको यह दंभ है कि उनकी तरफ से यह निर्णय लेने का हक़ उनको है, कि सबसे बेहतर हल यही है कि कश्मीरी खुद को भारत की संप्रभुता के अधीन मान कर ही जियें, वे इतिहास में अत्याचारियों के साथ गिने जायेंगे. आज अट्टहास करने का मौक़ा उनका है, यह हमारी नियति है कि हम चीखते रहेंगे. आखिर एक दिन जीत उनकी ही होगी जो प्यार करना चाहते हैं.

मुझे अरुंधती से ईर्ष्या होती है कि जिन बातों को हम सब कहना चाहते हैं वह उनको इतने खूबसूरत ढंग से कह पाती है - उसने कहा है कि नफरत फैलाने का काम वह नहीं, भारत की सरकार और कश्मीरियों के दमन का समर्थन कर रही ताकतें कर रही हैं. उसने कहा है उसकी आवाज प्यार और मानवीय गर्व की आवाज है. सचमुच उसकी आवाज हम सब के प्यार की घनीभूत ध्वनि है.

Sunday, October 24, 2010

अरविन्द गुप्ता के बहाने


अरविन्द से मेरी पहली मुलाकात १९७९ में हुई थी. हमलोग आई आई टी कानपुर से आई आई टी बाम्बे के सांस्कृतिक उत्सव मूड इंडिगो में भाग लेने जा रहे थे. मैं हिंदी डीबेट के लिए जा रहा था (और मुझे इसमें पहला पुरस्कार भी मिला था :-) ) उस टीम में कई बढ़िया लोग थे. शास्त्रीय संगीत में भीमसेन जोशी का शिष्य नरेन्द्र दातार था, जो इन दिनों कहीं कनाडा में बसा है. वायोलिन बजाने वाला राजय गोयल मेरा बड़ा ही प्रिय था. पता नहीं इन दिनों वह कहाँ है, मैं उन दिनों स्टूडेंट्स सीनेट का सदस्य था और सीनेट का कन्वीनर एम् टेक का विद्यार्थी संजीव भार्गव हमारे साथ था, जो बाद में जबलपुर में इन्फौर्मेशन टेक्नोलोजी और मेटलर्जी वाले संस्थान का निर्देशक बना. अभी पिछले साल उसका देहांत हो गया.
रास्ते में बी टेक वाले स्टूडेंट्स तरह तरह के खेल खेलते रहे. मैंने उनसे काऊस एंड बुल्स वाला खेल सीखा, आज तक जहां भी जिसको भी मैंने यह खेल सिखाया है, उसको कुछ समय तक तो ज़रूर ही इस खेल का नशा हो जाता है (एक मित्र के साथ डाक के जरिए साल भर हमारा यह खेल चलता रहा जब हम भारत में थे और मित्र अमरीका में!) .
तो शायद पूना के पास कहीं से गाड़ी जा रही थी और किसी स्टेशन से एक निहायत ही विक्षिप्त सा दिखता व्यक्ति डिब्बे में आया. संजीव भार्गव ने परिचय दिया कि वह अरविन्द गुप्ता है और कि वे बी टेक के दौरान क्लासमेट थे. अरविन्द उन दिनों नेल्को में काम कर रहा था. संजीव और अरविन्द मुझसे चारेक साल बड़े रहे होंगे. अरविन्द ने हमें बतलाया कि वह शिक्षा के क्षेत्र में मध्य प्रदेश में काम कर रही संस्था किशोर भारती के साथ जुड़ा है. फिर उसने अपना पिटारा खोला जो उन दोनों छोटा होता था और बहुत बाद में जब इस पिटारे क़ी ख्याति काफी बढ़ चुकी थी, यह काफी बड़ा हो चुका था. फिर उसने उन बच्चों के बारे में बतलाया जो दिनभर सिर्फ पानी पीकर रहते थे - ऐसे बच्चों के लिए वह दियासलाई क़ी बुझी तीलियों और साइकल वाल्व ट्यूब से विज्ञान शिक्षा के लिए काम कर रहा था. मैं यह सब देख कर बहुत परेशान हुआ था. मैं उन दिनों इक्कीस साल का था और इंकलाबी राजनैतिक सोच के अलावा कुछ भी मानने को तैयार न था. अरविन्द ने शायद यह बतलाया था कि वह सस्ते संसाधनों से मकान बनाने वाले लौरी बेकर के साथ काम करने क़ी सोच रहा था. बाद में उसने लौरी बेकर के साथ लम्बा वक़्त गुजारा और अपने इस अनुभव को वह बहुत महत्वपूर्ण मानता है. इसके दो तीन साल बाद इंडिया टूडे में किशोर भारती पर आई एक रिपोर्ट में उसके बारे में मैंने पढ़ा. इस बार मैं इतना प्रभावित हुआ कि सोच लिया कि देश लौटने पर ऐसे संगठनों के साथ जुड़ना है. कई सालों बाद बनखेड़ी में किशोर भारती में ही अरविन्द के साथ फिर मुलाक़ात हुई. तब तक विक्षिप्त भाव काम हो गया था, पर विरागी योगियों जैसी मुद्रा अब भी थी.
एक बार किसी मीटिंग के बाद भोपाल से लौटते हुए मैं और अरविन्द स्टेशन पर फँस गए. घोड़ाडोमरी के पास कहीं किसी दुर्घटना की वजह से ट्रेन सारी रात नहीं आयी. मैं और अरविन्द स्टेशन से बाहर ढाबे में खाना खाने गए. मुझे पेट की चिंता थी कि उस बेकार से दीखते ढाबे की दाल पचेगी या नहीं, पर अरविन्द निश्चिंत होकर खाते रहे और मुझे भी लाचार होकर किसी तरह झेलना पडा. अरविन्द के साथ होने का सुख था, बहुत सारी बातचीत जो अब पूरी तरह याद नहीं, पर स्मृति में वह उत्तेजना है, जो उससे बातें कर होती थी. इसके बाद लगातार संपर्क रहा और इधर उधर मुलाक़ात हो ही जाती थी. एक बार पंजाब विश्वविद्यालय, चंडीगढ़, में विशिष्ठ भाषण के लिए हमलोगों ने उसे बुलाया - वह भाषण कम था और बच्चों के लिए मजेदार वर्कशाप ज्यादा था जिसमें बड़ों ने भी बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया. यह अरविन्द का स्टाइल है. अरविन्द के साथ कुछ काम करने का मौक़ा भी मिला. एक बार रविवारी पत्रिका में मेरी एक कहानी छपी (एक और नरिंदर) तो साथ में अरविन्द का कालम भी था. इस तरह बात चीत होती रहतीपिछले हफ्ते थर्ड वर्ल्ड साइंस अकादमी क़ी सभा के दौरान अरविन्द प्रधान मंत्री से सम्मानित होने के लिए हैदराबाद आया था. इसी अवसर पर हमारे संस्थान में अरविंद को विशिष्ठ व्याख्यान के लिए बुलाया गया. संयोग से हमारे निर्देशक और अरविन्द भी बी टेक में क्लासमेट थेअरविंद ने मिलते ही प्यार से गले लगाया।
अरविन्द ने अपनी जीवन यात्रा और विज्ञान शिक्षा के लिए अनोखे खिलौनों के बारे में बतलाया और बाद में एक वर्कशाप भी क़ी. इस दौरान अपने कई अनोखे अनुभवों को भी हमारे साथ साझा किया. किस तरह शंकर गुहा नियोगी से मिल कर इंकलाबी सोच से ओत प्रोत हुए - ऐसी कई बातें कुछेक नितांत ही निजी बातें जिनको वह बच्चों की तपह हमें सुनाता रहा.अरविन्द के अनगिनत कामों में एक पुस्तक है 'कबाड़ से जुगाड़', जो लाखों की तादाद में प्रकाशित हुई और बँटी है. इन दिनों वह पूना में आई यू सी ए यानी इंटर यूनीवर्सिटी सेंटर फार ऐस्ट्रोनोमी ऐंड ऐस्ट्रोफिज़िक्स में कार्यरत है. उसके वेबसाईट पर उसके काम पर और जानकारी उपलब्ध है. इच्छुक मित्र अवश्य देखें.

Sunday, October 17, 2010

लेट पोस्ट

एक हफ्ता लेट पोस्ट कर रहा हूं। लिख लिया था पर पोस्ट नहीं कर पाया था। कुछ बिखरे से ख़याल हैं।

चीले देश के कोपीपाओ क्षेत्र की खदान में फंसे तैंतीस लोगों की दो महीने की दर्दनाक कैद से मुक्ति इन दिनों की बड़ी खबर है। आधुनिक तकनोलोजी की एक बड़ी सफलता के अलावा यह मानव की असहायता से मुक्ति के लिए संसार भर के लोगों की एकजुटता का अद्भुत उदाहरण है। कहने को यह महज एक देश के लोगों की कहानी है, पर विश्व भर में जिस तरह लोगों ने उत्सुकता के साथ इस घटना को टी वी के परदे पर देखा या अखबारों में पढ़ा, उससे पता चलता है कि अंततः मानव मानव के बीच प्रेम का संबध ही अधिक बुनियादी है न कि नफरत का। ऐसी ही भावुकता पहले भी नज़र आयी है जब हरियाणा के प्रिंस नामक एक बच्चे को एक कुँए में से निकाल बचाया गया था।

इसके विपरीत हमारे देश में जो ख़बरें इन दिनों चर्चा में हैं, वे मानव को मानव से विछिन्न करने वाली ख़बरें हैं। एक निहायत ही पिछड़ेपन की सोच को लेकर बहुसंख्यक लोगों को उत्तेजित कर अल्पसंख्यकों के खिलाफ सामयिक तौर पर ही सही जीत हासिल करने का संतोष कुछ लोगों को है। एक कोशिश है कि अन्याय के विरोध में कोई बातचीत न हो सके। कभी संभाव्य हिंसा की दुहाई देकर तो कभी इतिहास को विकृत ढंग से पेश कर लगातार कहा जा रहा है कि हम मानव और मानव के बीच नफरत के सम्बन्ध को मान लें। कुछ और लोग जनता के श्रम की लूट पर अतीत की गुलामी के प्रतीक बने बहुराष्ट्रीय खेलों में आंशिक सफलता को लेकर मदमत्त है।

ऐसी कोशिशें हमेशा होती रही हैं। पर विरोध में उठे स्वर कभी कमज़ोर नहीं पड़े। पैंतीस साल पहले वियतनाम ने अमरीकी साम्राज्यवाद के विरुद्ध जीत हासिल कर यह दिखाया था कि लाख ताकतों के बावजूद आततायी के खिलाफ मनुष्य की जीत होती ही है।
अंत में मानव के प्रति मानव के प्रेम की जीत होगी ही, यह हम मानते हैं। अगर भारत में चल रही जनविरोधी प्रवृत्तियाँ हमें हताश करती हैं, तो चीले की जीत हमें प्रेरित करती है। मानव का इतिहास या वर्तमान किसी एक देश की सीमाओं में आबद्ध नहीं है - वह भौगोलिक सीमाओं के पार विश्व भर में प्रशस्त है। चीले की घटना का महत्व कुछ दार्शनिक कारणों से भी है। कई लोग कहेंगे कि अगर आधुनिक जीवन शैली की गुलामी न होती, प्रकृति पर विजय पाने की बेतहाशा होड़ न होती तो ऐसा संकट आता ही नहीं जिस पर विजय पाने की बात हम कर रहे हैं। प्रकृति के साथ सामंजस्य का जो संकट मनुष्य को झेलना पड़ रहा है, उस के बारे में हमारी जो भी स्पष्ट समझ है, वह हमें आधुनिक विज्ञान से ही मिली है। सवाल यह है कि इस समझ को हम किस तरह काम लायें। आधुनिक विज्ञान से आधुनिक तकनोलोजी का विकास हुआ है। अभी तक ज्यादातर यही हुआ है कि आधुनिक तकनोलोजी को मानव विरोधी शोषक वर्गों ने हाईजैक कर लिया है। कइयों को यह लगता है कि पूंजीवादी व्यवस्था की लपेट में आए शोषित लोग उतना ही लालायित हैं कि पैसों का नंगा खेल और उससे जुड़ी संस्कृति चलती रहे। हम यह समझते हैं कि आधुनिक सोच का अभाव हमारा पहला संकट है, पर साथ ही पश्चिमी मुल्कों की गलतियों से सीखना भी ज़रूरी है और तकनोलोजी का मानव के पक्ष में इस्तेमाल हो, इसकी निगरानी ज़रूरी है।

इधर मेरी परेशानी मूषक संबंधी है. एक रात चूहा केले खा गया, परसों एक चुहिया मरी दिखी. अब कोई यह मत पूछना कि कैसे जाना कि वह चुहिया थी.