Monday, August 30, 2010

टिक्की बढ़िया गंजा बढ़िया

‘Great spirits have always encountered opposition from mediocre minds. The mediocre mind is incapable of understanding the man who refuses to bow blindly to conventional prejudices and chooses instead to express his opinions courageously and honestly.’ -ऐल्बर्ट आइन्स्टाइन (बर्ट्रेंड रसेल के पक्ष में ब्यान देते हुए)

बढ़िया रे बढ़िया
दादा!  दूर तक सोच-सोच देखा -
इस दुनिया का सकल बढ़िया,
असल बढ़िया नकल बढ़िया,
सस्ता बढ़िया दामी बढ़िया,
तुम भी बढ़िया, हम भी बढ़िया,
यहाँ गीत का छंद है बढ़िया
यहाँ फूल की गंध है बढ़िया,
मेघ भरा आकाश है बढ़िया,
लहराती बतास है बढ़िया,
गर्मी बढ़िया बरखा बढ़िया,
काला बढ़िया उजला बढ़िया,
पुलाव बढ़िया कोरमा बढ़िया,
परवल माछ का दोलमा बढ़िया,
कच्चा बढ़िया पक्का बढ़िया,
सीधा बढ़िया बाँका बढ़िया,
ढोल बढ़िया घंटा बढ़िया,
चोटी बढ़िया गंजा बढ़िया,
ठेला गाड़ी ठेलते बढ़िया,
ताजी पूड़ी बेलना बढ़िया,
ताईं ताईं तुक सुनना बढ़िया,
सेमल रुई धुनना बढ़िया,
ठंडे जल में नहाना बढ़िया,
पर सबसे यह खाना बढ़िया - 
पावरोटी और गुड़ शक्कर।
(सुकुमार राय - आबोल ताबोल)

Saturday, August 28, 2010

यातना

"Reasonable people I reason with, bigots I do not talk to" - Ashley Montagu

यातना
तालस्ताय ने सौ साल पहले भोगा था यह अहसास
जो बहुत दूर हैं उनसे प्यार नहीं है
दूर देशों में बर्फानी तूफानों में
सदियों पुराने पुलों की आत्माएँ
आग की बाढ़ में कूदतीं
निष्क्रिय हम चमकते पर्दों पर देखते
मिहिरकुल का नाच

जो बहुत करीब हैं उनसे नफरत
करीब के लोगों को देखना है खुद को देखना
इतनी बड़ी यातना
जीने की वजह है दरअसल
जो बीचोंबीच बस उन्हीं के लिए है प्यार

भीड़ में कुरेद कुरेद अपनी राह बनाते
ढूँढते हैं बीच के उन लोगों को
जो कहीं नहीं हैं

समूची दुनिया से प्यार
न कर पाने की यातना
जब होती तीव्र
उगता है ईश्वर
उगती दया
उन सबके लिए
जिन्हें यह यातना अँधेरे की ओर ले जा रही है

हमारे साथ रोता है ईश्वर
खुद को मुआफ करता हुआ।

(पश्यंती-२००१)

Friday, August 27, 2010

दर्द को झेल सको तो आ जाओ और छेड़ने के बाद मम्मी मम्मी क्यों

प्रिय गौतम, यह बढ़िया कि तुमने जवाब दे दिया तो मुझे फिर एक चिट्ठा लिखने की हिम्मत मिल गयी, वरना इन दिनों मैं ऐसा थका हुआ हूँ कि लिखा नहीं जाता। मेरे भाई, तुम इतने गुस्से में हो कि मुझमें तुम्हारे प्रति प्यार बढ़ता जाता है। इतना गुस्सा कि बोल्ड font में जताना कि मुझे राक्षस कहा - ओये होए।

पर प्यारे भाई, एक बार ठंडे दिमाग से मेरा लिखा पढ़ लिया होता। मैं फिर एक बार लिख रहा हूँ - हर इंसान में दानव बनने की संभावना होती है - सेनाओं का वजूद इसी संभावना पर टिका है।

मेरे दोस्त, 'हर इंसान' का खिताब क्या सिर्फ सैनिकों को मिला है?
गौर करो कि मैंने यह कहीं नहीं कहा कि हर व्यक्ति हर वक़्त दानव होता है। एक व्यक्ति एक ही साथ सैनिक भी हो सकता है और भाई बन्धु भी। दानव वह होता है 'जब तनाव तीव्र हो'
मैंने यह भी लिखा कि अपने सैनिक को कविता पाठक से अलग करो।
मैंने यह भी लिखा है कि 'अब तक सेनाओं का उपयोग शासकों ने इंसान का नुक्सान करने के लिए ही किया है'।

सम्प्रेषण एक जटिल प्रक्रिया है। हम सोचते हैं कि हमने बात कह दी, वह सही सही ठिकाने पर पहुँच गयी। ऐसा होता नहीं है, स्पष्ट है कि हमारे तुम्हारे बीच ऐसा हुआ नहीं है।

वैसे दोस्त मैंने गौर किया है कि गाली गलौज 'कथित' पर रुका नहीं। बहरहाल मैं फिर भी इसे प्यार की एक वजह मान कर चल रहा हूँ।

और यह बढ़िया कि मेरी कविता की मार मुझी पर ... कश्मीर में हो न, इसलिए लगता होगा कि लू तो है ही नहीं, कैद का वैसे भी कोई सवाल ही नहीं, भई भारतीय सेना के मेजर हो। (यह गाली मैंने पिछले पोस्ट में नहीं दी थी, उसके पहले तो भाई 'कथित' कहकर तुमने मुझे छेड़ा तो छेड़ने के बाद मम्मी मम्मी क्यों?)

हाँ, मुझे अपनी कैद का अहसास है, अच्छा लगता है कि तुम्हें लगता है कि तुम मुक्त हो।

तो दोस्त हमारी फौज में भर्ती चालू है, दर्दनाक ज़रूर है यह जानना कि इंसान सिर्फ इंसान होता है वह हिन्दुस्तानी पाकिस्तानी किसी और की गलती से बना है।

जो कुछ बचपन से सुनते आये हैं, जो विचार आजतक हमारे सवालों के दायरे में नहीं आये, उन पर अचानक एक दिन सवाल खड़े करना सचमुच दर्दनाक होता है. इस दर्द को झेल सको तो आ जाओ, रैंक का तो पता नहीं इधर तो सभी सिपाही हैं।

और चूंकि हम किसी भी इंसान को पहले इंसान मानते हैं, इसलिए वे भी जो कभी कभार दानव की भूमिका अपनाने को मजबूर हैं, उन्हें भी न्योता है, हमारी फौज में भर्ती चालू है।

मैं अपने प्रिय कवि Walt Whitman की पंक्तियाँ लिख कर बात ख़त्म करता हूँ:
I CELEBRATE myself, and sing myself,
And what I assume you shall assume,
For every atom belonging to me as good belongs to you...

I am the poet of the Body and I am the poet of the Soul,
The pleasures of heaven are with me and the pains of hell are with
me,
The first I graft and increase upon myself, the latter I translate
into new tongue. ...
Have you outstript the rest? are you the President?
It is a trifle, they will more than arrive there every one, and
still pass on.
I am he that walks with the tender and growing night,
I call to the earth and sea half-held by the night।
बाद की लाइनें इस प्रसंग की नहीं हैं - हो भी सकती हैं
Press close bare-bosom'd night - press close magnetic nourishing
night!
Night of south winds - night of the large few stars!
Still nodding night - mad naked summer night.
Smile O voluptuous cool-breath'd earth!
Earth of the slumbering and liquid trees!
Earth of departed sunset - earth of the mountains misty-topt!
Earth of the vitreous pour of the full moon just tinged with blue!
Earth of shine and dark mottling the tide of the river!
Earth of the limpid gray of clouds brighter and clearer for my
sake!
Far-swooping elbow'd earth - rich apple-blossom'd earth!
Smile, for your lover comes.
Prodigal, you have given me love - therefore I to you give love!
O unspeakable passionate love.
हंस में तुम्हारी कहानी कभी पढ़ी है पर याद नहीं है, पाखी मेरे पास आती नहीं है। ढूँढ कर पढूंगा। मैं मानता हूँ कि एक दिन तुम हमारे साथ खड़े होगे।

भाई गौतम तुम भी हमारी फौज में शामिल हो जाओ

प्रिय गौतम, ख़ुशी मेरी कि तुम मेरी कविताएँ पढ़ते हो। तुम्हारी पहली टिप्पणी से वैसे मुझे कोई चोट पहुंचनी नहीं चाहिए क्योंकि हिन्दी रचना संसार में गाली गलौज आम बात है। मैं इससे बचा हुआ हूँ क्योंकि मुझे अभी तक सामान्य कवि लेखक ही माना गया है और मैं तमाम विशेषण जो बाज़ार में चल रहे हैं उनके उपयुक्त नहीं माना गया होऊंगा ।

भाई, तुम मेरी कविताएँ पढ़ते हो तो उनमें क्या पढ़ते हो? मैंने तो आज नहीं, जैसा कि मेरी दस साल पुरानी कविता से तुमने देखा ही होगा (पिछले चिट्ठे में, जिस पर तुमने दूसरी टिप्पणी की है), हमेशा ही जंग विरोधी बातें कही हैं। यह भी मेरी ही सीमा है कि तुमने मेरी रचनाओं में इस बात को पढ़ा नहीं। मेरे पिछले सभी blogs को कभी पढ़ लेना तो भी स्पष्ट हो जायेगा कि मैं तो मनुष्य मनुष्य के बीच हिंसा का कट्टर विरोधी हूँ। खासकर जब यह हिंसा संगठित ढंग से ताकतवरों द्वारा संचालित हो।

मैं देश नामक उस धारणा का भी विरोधी हूँ जिसके नाम पर सैनिकों को जान कुर्बान करनी पड़ती है। एक सैनिक के मरने या घायल होने पर सरकार उसे पुरस्कार दे दे या उसे धन दे दे तो तो उस क्षति कि पूर्ति नहीं होती जो एक बाप या भाई या आजकल माँ या बहन के अचानक दुनिया से कूच कर जाने से या घायल होने से हुई होती है।

मेरे लिए तो देश मेरी ज़मीन, हवा, पानी है। वह कभी खिड़की से दिखने तक सीमित है तो कभी धरती से भी परे न जाने किस अनंत तक फैली है। मुझे पता है कि तुम कहोगे कि इस ज़मीन, हवा पानी को बचाने के लिए ही तो सेना की ज़रुरत है। मैं इनकार नहीं करता कि इस तरह की एक कल्पना ही आज मूर्त रूप से हमारे सामने है कि इंसान इंसान के खिलाफ हिंसक है और बचने के लिए हमें सेनाओं की ज़रुरत है। मैं चाहता हूँ कि एक और कल्पना जो अधिक संभव होनी चाहिए कि इंसान इंसान से प्यार करता है सबको मान्य हो। और मैं देखता हूँ कि अब तक सेनाओं का उपयोग शासकों ने इंसान का नुक्सान करने के लिए ही किया है।

मैं दुबारा यही लिखूंगा कि सेनाएँ हिन्दोस्तान में या पकिस्तान में कहीं भी मानवता की रक्षा करने के लिए नहीं बनाई जातीं। देश नामक अमूर्त कुछ के लिए मरना और कुछ भी हो आखिर है तो मरना ही. इस सत्य की भयावहता अपने आप में ही अमानवीय है - इसलिए जब तनाव तीव्र हो तो सिपाही इधर का हो या उधर का हो, वह एक क्रूर दानव ही होता है. ... हर इंसान में दानव बनने की संभावना होती है - सेनाओं का वजूद इसी संभावना पर टिका है. जब हम किसी एक सेना को दूसरी सेना से बेहतर मानते हैं, हमारे अन्दर भी एक दानव ही बोल रहा होता है.

तो भाई तुम्हारे सैनिक को अलग रख कविता पाठक को सजग करो तो शायद वह तस्वीर देख पाओगे जो हम देखते हैं। तुम्हें तकलीफ तो होगी कि हम तुम्हारे देखी तस्वीरें नहीं देखते या देखना चाहते पर क्या करें अपनी चाहतों से मजबूर हैं। बहुत ज्यादा प्यार की चाहत है भाई, इसलिए हमें मणिपुरी भी और पाकिस्तानी भी सभी से प्यार है। अगर उनमें से कोई मुझसे नफरत करता है तो मैं समझ सकता हूँ कि उनके पीछे क्या वजहें हैं, कभी तुम भी समझने की कोशिश करो तो शायद हमारी देखी तस्वीर देख पाओ, नहीं देखना चाहो तो भी ठीक है। इतना ही कर लो कि जो देख रहे हो वह सब को बतलाते रहो।

खुशी मेरी यह भी कि मेरे पक्ष में भी एक फौज है और वह छोटी नहीं बहुत भारी फौज है। मैं तो उस फौज का एक साधारण सदस्य हूँ। बहुत दीवानगी है, लोग जान पर खेल कर प्यार की बात करने को मैदान में उतरे हुए हैं। उनको कोई तनखाह नहीं मिलती, वो मेरी जैसी बातें लिख कर खुशी में खोने वाले नहीं, वे कर्मवीर हैं। मैं यही उम्मीद रखूंगा कि तुम भी हमारी फौज में शामिल हो जाओ।

Thursday, August 26, 2010

युद्ध सरदारों ध्यान से सुनो

मेरे पिछले चिट्ठे पर गौतम राजरिशी की टिप्पणी है: "कमाल है कि एक कथित रूप से संवेदनशील कवि भी ऐसा नजरिया रखता है.....!!!"

गौतम राजरिशी सेना का मेजर जिसने शायदा के चिट्ठे पर लिखा था कि वह तकरीबन इस घटना का (बच्चे की मौत) चश्मदीद गवाह है और सचमुच हुआ यह कि फ़ौज के लोगों ने बच्चे को उठाया और अस्पताल पहुँचाया जहां उसकी मौत हुई।

मैं 'कथित रूप से संवेदनशील कवि' ही सही, पर यह सब लोग जान लें कि गौतम राजरिशी सेना का मेजर ही है - कथित रूप से नहीं, सचमुच. जानने पर यह बात समझ में आ जायेगी कि मैं क्यों इस टिप्पणी का जवाब नहीं दे रहा. शुक्र है कि मैं कविहूँ, गौतम राजरिशी के मातहत काम कर रहे सिपाहियों में से नहीं हूँ । नहीं तो पता नहीं कैसे विशेषण मिलते।
बहरहाल वक्त के मिजाज को देखते हुए यह कविता बकवास

कुछ पन्ने बकवास के लिए होते हैं
जो कुछ भी उन पर लिखा बकवास है

बकवास करते हुए आदमी
बकवास पर सोच रहा हो सकता है
क्या पाकिस्तान में जो हो रहा है
वह बकवास है
हिंदुस्तान में क्या उससे कम बकवास है

क्या यह बकवास है
कि मैं बीच मैदान हिंदुस्तान और पाकिस्तान की
धोतियाँ खोलना चाहता हूँ

निहायत ही अगंभीर मुद्रा में
मेरा गंभीर मित्र हँस कर कहता है
सब बकवास है

बकवास ही सही
मुझे लिखना है कि
लोगों ने बहुत बकवास सुना है

युद्ध सरदारों ध्यान से सुनो
हम लोगों ने बहुत बकवास सुना है

और यह बकवास नहीं कि
हम और बकवास नहीं सुनेंगे।

(पश्यंतीः 2000)

Wednesday, August 18, 2010

there are no just wars

काफी दिनों के बाद मैनें शायदा का ब्लॉग 'उनींदरा' पढ़ा.
हाल के अपने एक पोस्ट में उसने फेसबुक से उद्धृत काश्मीर की एक घटना के बारे में लिखा है, जिसमें किसी नें यह लिखा कि भारतीय सिपाहियों ने एक सात साल के बच्चे को क्रूरता से पीट कर मार दिया. शायदा ने इस बात को नज़रंदाज़ करते हुए कि फेसबुक की कहानी सच्ची नहीं भी हो सकती है और इस बात पर ध्यान देते हुए कि एक बच्चे की मौत के बारे में हमें सोचना चाहिए कुछ बातें लिखीं. इस पोस्ट पर कोई बयालीस टिप्पणियां हैं, जिनमें कुछ शायदा के जवाब हैं जो उसने औरों की टिप्पणियों के दिए हैं. जैसा कि अपेक्षित है, कई लोगों ने उसे नसीहत दी कि उसे फेसबुक की कहानी को सच नहीं मानना चाहिए और इस तरह भारतीय सेना और अर्धसैनिक बलों के खिलाफ प्रोपागांडा को बढ़ावा नहीं देना चाहिए. शायदा बार बार यही लिखती रही कि मैं बच्चे की मौत से दुखी हूँ, पर देशभक्तों की पीड़ा बार बार बात को कहीं और ले जाती रही. एक किसी मेजर ने यह लिखा कि वह तकरीबन इस घटना का चश्मदीद गवाह है और सचमुच हुआ यह कि फ़ौज के लोगों ने बच्चे को उठाया और अस्पताल पहुँचाया जहां उसकी मौत हुई.

आज के समय की ख़ास बात यह है कि एक ही घटना को लेकर कई सच निर्मित हो सकते हैं और बड़ी जल्दी ही इनमें से हर एक दूसरे से बेहतर और ज्यादा बड़ा सच बन सकता है. पर कुछ बातें शाश्वत सच होतीं हैं. आश्चर्य यह होता है कि कई लोग उनको मानते या नहीं देख सकते. जैसे कई दोस्तों को यह भ्रम है कि भारत की सेना में कोई ऐसी खासियत है उसे जो उसे पकिस्तान और अन्य दीगर मुल्कों की सेनाओं से ज्यादा मानवीय बनाती है. जब कि सच यह है कि सेना में कोई भी किसी महान इंसान बनने के इरादे से नहीं जाता, सैनिकों को एक ही बात समझाई जाती है कि उन्हें एक देश नामक कुछ के लिए लड़ना है. नीचे के तबके के सैनिकों को लगभग अमानवीय हालतों में रहकर और लगातार अफसरों की अश्लील गाली गलौज सुनते रहकर काम करना पड़ता है.

यही हाल पुलिस या अर्ध सैनिक बलों का भी है. जिसने भी कभी पुलिस या सेना के सिपाहियों के साथ कुछ समय बिताया है वे जानते हैं कि उनकी भाषा और व्यवहार में अमानवीय तत्व कितने ज्यादा हैं. एक जज की कही वह बात तो अब मुहावरा ही बन गयी है कि देश में सबसे संगठित अपराधी गिरोह पुलिस तंत्र है. शायद गूगल खोज करते ही इस पर विस्तार से पढ़ने को मिल जाए.

सेनाएँ हिन्दोस्तान में या पकिस्तान में कहीं भी मानवता की रक्षा करने के लिए नहीं बनाई जातीं. देश नामक अमूर्त कुछ के लिए मरना और कुछ भी हो आखिर है तो मरना ही. इस सत्य की भयावहता अपने आप में ही अमानवीय है - इसलिए जब तनाव तीव्र हो तो सिपाही इधर का हो या उधर का हो, वह एक क्रूर दानव ही होता है. इसके अनगिनत उदहारण हमारे मुल्क में हैं. मणिपुर से सेना हटाने की लम्बी मांग ऐसे ही नहीं रही है. सच यह है कि हर इंसान में दानव बनने की संभावना होती है - सेनाओं का वजूद इसी संभावना पर टिका है. जब हम किसी एक सेना को दूसरी सेना से बेहतर मानते हैं, हमारे अन्दर भी एक दानव ही बोल रहा होता है.

हावर्ड ज़िन जो यहूदी था और जर्मनी के खिलाफ लड़ा, उसने अपने एक प्रसिद्ध साक्षात्कार में कहा था 'there are no just wars'. सेनाओं की विलुप्ति में ही मानव की भलाई है.

राक्षस

अंदर तुम्हारे एक राक्षस है
छोटा बड़ा हिटलर बौखलाया स्टालिन
छोटे बच्चों को पीटता गली का दादा

विहग सुमन मानव
जानोगे
जब जानोगे
अंदर तुम्हारे है एक राक्षस।

Monday, August 16, 2010

याहू-याहू, याहू-याहू

देशभक्ति की धारणा पर अक्सर इस ब्लॉग पर मैंने कुछ लिखा है। अन्य संस्थानों की तरह हमारे संस्थान में भी १५ अगस्त और २६ जनवरी को झंडोत्तोलन के साथ उच्च अधिकारियों के भाषण आदि होते हैं। चूंकि चार पांच लोगों ने नियमित बोलना ही होता है; दिवस की गरिमा का तकाजा है, और तब तक छात्र पर्याप्त रूप से ऊब चुके होते हैं, इसलिए जब भी मुझे बोलने को कहा गया है, मैंने इंकार कर दिया है. पर मैं कल्पना तो करता ही हूँ कि अगर बोलना पड़े तो क्या बोलता । हैदराबाद आने के बाद कक्षा में विषय पढ़ाने के अलावा या पेशेगत शोधकार्य आदि पर भाषण देने के अलावा सामान्य विषयों पर व्याख्यान कम ही दिए हैं.
तो इस बार १५ अगस्त के लिए भी कुछ सोच रहा था कि वह भाषण जो मैं कभी नहीं देता वह कैसा होगा. पर फिर वही वक्त की समस्या - बस सोचते रह जाते हैं - लिख नहीं पाते. इसी बीच यह साईट देखी: http://lekhakmanch.com/2010/08/13/कवियों-शायरों-की-नजर-में-आ/
इसमें विष्णु नागर की कविता देखकर दंग रह गया -एक खतरनाक ख़याल दिमाग में आ रहा है कि पाखंडों से भरे इस मुल्क में ऐसा लिख कर वे बच कैसे गए :

जन-गण-मन अधिनायक जय हे
जय हे, जय हे, जय जय हे
जय-जय, जय-जय, जय-जय-जय
जय-जय, जय-जय, जय-जय-जय
हे-हे, हे-हे, हे-हे, हे-हे, हे
हें-हें, हें-हें, हें-हें, हें
हा-हा, ही-ही, हू-हू है
हे-है, हो-हौ, ह-ह, है
हो-हो, हो-हो, हो-हौ है
याहू-याहू, याहू-याहू, याहू है
चाहे कोई मुझे जंगली कहे।

बस पढ़कर यही मन करता है कि याहू-याहू, याहू-याहू,...
कहीं याहू कंपनी उनसे कापीराईट का दावा ना कर बैठे.

Monday, August 09, 2010

दुविधा

विभूति नारायण राय को लेकर जो विवाद खड़ा हुआ है, उसमें उनके नया ज्ञानोदय वाले वक्तव्य के खिलाफ विरोध दर्ज करने वालों की सूची में मेरा भी नाम है। पिछले साल वर्धा में हिंदी समय समारोह में उनसे पहली बार मिला था। पहले फ़ोन पर इसी सिलसिले में बात हुई थी। साढ़े दस घंटे की ड्राइव कर वर्धा पहुँच कर ढंग की ठहरने की जगह नहीं मिली तो पहले अच्छा नहीं लगा था पर दूसरे दिन उनसे मिल कर तसल्ली हुई थी कि अच्छे व्यक्ति हैं। उनका उपन्यास कर्फ्यू पढ़ा नहीं है पर उसके बारे में पर्याप्त जानकारी थी। दो दिनों के बाद बीमार पड़ गया तो सारे दिन उनके कुलपति वाले घर के एक कमरे में पड़ा रहा। उनके भाई विकास जिनको मैं कई सालों से जानता हूँ ने मुझे दवा दी। बाद में एक बार वे हैदराबाद आए तो कुछ घंटे साथ बिताने का मौका मिला।

हमारे संस्थान की ओर से विभूति नारायण राय को विशिष्ठ व्याख्यान देने के लिए आमंत्रित किया गया है। यह आमंत्रण पहले अप्रैल में भेजा गया था। उस वक़्त नहीं आ पाए तो सितम्बर में आने के लिए मैंने निर्देशक की ओर से आग्रह करते हुए उन्हें ख़त लिखा था।

स्वाभाविक है कि ऐसी स्थिति में जब मुझसे कहा गया कि मैं भी विरोध दर्ज करुं तो मुझे दुविधा हुई। अगर मैं विरोध नहीं करता हूँ तो मैं जिन विचारों ओर मूल्यों के लिए जाना जाता हूँ, उनके प्रति मेरी प्रतिबद्धता पर सवाल उठता है। आखिर मैंने अपने विचारों को प्राथमिकता देते हुए विभूति के बयान की निंदा करना ज़रूरी समझा। अगर विभूति अगले महीने हमारे संस्थान में भाषण देने आते हैं तो उनके स्वागत में कोई कमी नहीं होगी। पहले से तय इस कार्यक्रम में हमारी अपेक्षा अब भी यही रहेगी कि वे हमें साम्प्रदायिकता और राज्य की भूमिका पर बतलाएं। पर नया ज्ञानोदय वाले बयान पर मेरा विचार यही रहेगा कि उन्होंने गलती की है।

इस प्रसंग में जो बात मुझे कहनी ज़रूरी लगती है वह है हिंदी लेखन में गाली गलौज की अवांछित अधिकता का होना। बेवजह किसी एक बात को ठीक ठहराने के लिए दूसरे चार और लोगों को बुरा कहने की एक अजीब ज़रुरत हिंदी के टिप्पणीकारों में दिखती है। इधर युवाओं में यह प्रवृत्ति और भी ज्यादा दिखने लगी है। इस तरह की बीमार परम्परा के खिलाफ एक आन्दोलन होना चाहिए।