Saturday, July 31, 2010

कुछ तो फटे पैरों के चिह्न रह ही जाएँगे

बड़ी मुश्किल से तकरीबन २५ साल पहले हरदा शहर में गुजरे डेढ़ सालों पर संस्मरणात्मक कुछ लिख डाला। हरदा के ज्ञानेश चौबे ने ठान लिया है हरदा में रह चुके लोगों के संस्मरणों को इकठ्ठा कर किताब निकालेंगे। पुरानी बातों को लिखने में डर लगता है। खासकर जब जल्दबाजी में लिखा जाये। बहरहाल लिख डाला और अब जिनको बुरा लगे तो लगे। पांच सितम्बर को हरदा जाने की हामी भी भर दी; अब सोच रहा हूँ कि नागपुर से सीधी बस ले लूं तो कैसा रहेगा। हो सकता है बेतूल से रास्ता ठीक हो। एक बार गूगल मैप देखकर लम्बी यात्रा में जाकर फँस गया था। बेलारी होकर जाना था जहां रेड्डी भाइयों की कृपा से सभी सडकें खुदी हुई हैं।

कई बार बड़ी तकलीफ के साथ कुछ बातें लिखी जाती हैं। जो सबको अच्छी नहीं लगतीं। किसी अन्य प्रसंग पर कभी यह कविता लिखी थी जिसे दोस्तों ने अच्छी तरह लिया - आशीष ने तो शायद अपने ब्लॉग में पोस्ट भी किया था।

जब शहर छोड़ कर जाऊँगा
कुछ दिनों तक
कुछ लोग करेंगे याद

छोड़ी हुई किताबें रहेंगीं
कुछ दोस्तों के पास
कपड़े या बर्त्तन जैसी चीज़ें
छोड़ने लायक हैं नहीं
जो रह जाएँगीं फेंकी ही जाएँगीं

कुछ तो फटे पैरों के चिह्न
रह ही जाएँगे

दफ्तरी सामान पर होगी
दफ्तरी लोगों की मारकाट
ठीक है
मर्जी थी
जाना था
चला गया
कह कह कर झपटेंगे
वे हर स्क्रू
हर नट बोल्ट पर

यह कोई मौत तो नहीं
कि कोई रोएगा भी
वक्त भी ऐसा
कि वक्त पहले जा चुका

अब पूरा ही तब होऊँगा
जब जाऊँगा यहाँ से

शायद होगी चर्चा सबसे अधिक
मेरे अधूरेपन पर ही
जब शहर छोड़ कर जाऊँगा।
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इधर लिखना कम हो गया है - ये गर्मियां मेरे लिए थकान भरी थीं (गर्मी किसे नहीं थकाती ) पता नहीं कहाँ से काम इतना जुट गया कि खत्म ही नहीं होता। फिर फुरसत में टीवी ज्यादा देखने लगा हूँ। दो बार घर भी शिफ्ट किया। इधर कथन पत्रिका का ताज़ा अंक देखा। संज्ञा ने अच्छी बहस छेड़ी है कि स्त्री को स्त्री ही रहने दो यानी महिला न कहो।

Tuesday, July 27, 2010

La Lucha Continua

गुड गवर्नेंस ।

नरेन्द्र मोदी की बात करते हुए अक्सर विकास और तरक्की की बात होती है। ऐसी ही बातें छत्तीसगढ़ के बारे में भी होती हैं। हिटलर के बारे में भी यह बात कही जाती थी। हमारे मुल्क में अभी हाल तक हिटलर का नाम लेकर जर्मन लोगों की कार्यकुशलता की प्रशंसा करने वाले लोगों की बड़ी भीड़ रही है।

इस तरह तानाशाहों और हत्यारों के प्रचार में पूंजीवादी व्यापारी वर्गों की भूमिका बहुत बड़ी है। स्पेन के गृह युद्ध के दौरान व्यापारी वर्गों ने तानाशाह का खुल कर साथ दिया था। कहने को पश्चिमी मुल्कों ने (जर्मनी के अलावा) फ्रांको की सरकार के खिलाफ नाकाबंदी की हुई थी, पर असल में यह नाकाबंदी सिर्फ उन अन्तर्राष्ट्रीय स्वैच्छिक सिपाहियों के खिलाफ थी जो स्पेन की लोकतान्त्रिक ताकतों के साथ मिल कर लड़ना चाहते थे। आखिरकार लोकतान्त्रिक ताकतों की हार हुई थी और फ्रांको लम्बे समय तक निरंकुश शासन करता रहा।

२००२ से लेकर आज तक एक के बाद एक नृशंस हत्याओं के होते रहने और अनगिनत मानव अधिकार कार्यकर्त्ताओं के अथक परिश्रम से तैयार व्यापक जनमत के बावजूद और विश्व भर में निंदा होने पर भी मोदी अभी भी सत्ता में है। यह हमारी सभ्यता के मानव विरोधी पक्ष की पहचान है।

अमित शाह को जेठमलानी छुड़वा ले जाएगा और बीजेपी वाले सीना ठोक कर कहेंगे कि क्या कर लोगे। पर भले लोग उम्मीद नहीं छोड़ सकते। न ही हमें लोकतंत्र पर आस्था खोनी है। इसलिए मन ही मन कहते हैं - La Lucha Continua संघर्ष जारी है।

Friday, July 02, 2010

किसी की आँखों का बादल छूता हूँ।

घर तो बदल लिया।
फिर बदलना है।
एक मंजिल और ऊपर चढ़ना है।
यानी अभी तक फालतू की व्यस्तता । आगे और चलेगी दो चार हफ्ते।

इस बीच में नए घर आकर वर्ल्ड कप की वजह से टी वी क्या चालू कर लिया, फुरसत का वक़्त सारा उसी में गायब हो जाता है।
नए मकान के चारों ओर अभी भी काम काज चल रहा है। घड़ घड़ धड़ धड़ दिन भर चलता रहता है। जब आया था तो वुड वर्क हुआ नहीं था पांच दिन बुरादे की गंध में सोया। नए मकान में आकर पेट ज्यादा तंग करने लगा है, बचपन से ही पेट का मरीज़ हूँ ।

बहरहाल इसी बीच में काम बढ़ता चला था, धीरे धीरे निपटा रहा हूँ।

इधर बादलों का मौसम है तो यह कविता -

मुझमें बहते बादल

मुझमें बहते बादल।

अंधकार में स्तब्ध सुनता हूँ
बूँदों का आह्वान।

पर्वतों के पार से
आती उफनती नदियों की हुंकार

हाथ बढ़ा किसी की आँखों का बादल छूता हूँ।

अँधेरे में चमकते बादल
दूर गाँवों में नीले बादल
जीवन को घोलें भय रंग में
स्नेह ममता समाहित प्रलय रंग में

टिपटिप मायावी संसार पार
दहाड़ते गड़गड़ाते बादल।

जीवन कविता बन
मुझमें बहते लयहीन बादल

विश्रृंखल उत्श्रृंखल बादल।