Friday, January 29, 2010

मेरे निजी संघर्षों का भी नायक

कल फोन आया - मेरा नाम धीरेश है। मैं केरल आया हूँ, मुझे पता चला कि हावर्ड ज़िन की डेथ हो गई है।

हावर्ड ज़िन की डेथ हो गई है

थोड़ी देर वाक्य कानों में गुजरता रहा। शायद साल भर पहले की बात है जब भारतभूषण से कहा था कि हावर्ड ज़िन से बात करो और जितना अनुवाद मैंने किया है, उसके आगे कर डालो, पता नहीं कब तक है यह शख्स!

1987 में जब एकलव्य संस्था के सामाजिक शिक्षण कार्यक्रम के साथियों के साथ जुड़ा तो देखा कि जे एन यू की ऊँची नाक मुझ अदने विज्ञान के अध्यापक के सामाजिक अध्ययन पर काम करने की इच्छा झेल नहीं पा रही। थोड़ा बहुत हस्तक्षेप करता रहता। तभी नई तैयार हो रही पाठ्य-पुस्तक में अमरीका पर लिखा अध्याय देखा तो रहा नहीं गया। लगा कि बहुत ज़रुरी है कि अमरीका पर जानकारी के वैकल्पिक स्रोत हिंदी में उपलब्ध होने चाहिए। हावर्ड ज़िन की People's History of the United States चंडीगढ़ से ट्रक में आने वाली थी। फिर हरदा में बैठकर पहले अध्याय का अनुवाद किया जो 'पहल' में छपा। ज्ञानरंजन ने कोलंबस की डायरी के पन्नों के वाक्यों को अंक के विज्ञापन के लिए इस्तेमाल किया। मैंने छपे पन्नों की फोटोकापी कर ग्रामीण अध्यापकों में बाँटा। फिर दूसरा अध्याय गौतम नवलखा ने 'साँचा' में निकाला। इस तरह धीरे धीरे कुल बारह अध्यायों का अनुवाद किया जो पहल के अलावा साक्षात्कार, पल प्रतिपल, पश्यंती आदि पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए।

पहला अध्याय इतना सशक्त है कि बार बार मैं साथियों को पढ़ कर सुनाता। अभी भी सुनाता हूँ। जब छपा था तो उदय प्रकाश ने और संजय चतुर्वेदी ने लंबे खत लिखे थे जो कभी अवसाद के दिनों में खो गए।

असद जैदी ने कहा कि पूरा कर लो, पर मैं नहीं कर पाया। जितना किया था, उसकी प्रति बना कर असद को और श्याम बिहारी राय (ग्रंथशिल्पी) को भेजा कि बाकी किसी और से करवा लो, पर ज़रुरी किताब है, पूरा अनुवाद होना चाहिए।

पता नहीं कितने छात्रों ने, साथियों ने समय समय पर मदद की, पर आखिरकार पूरा नहीं हुआ। ज़िन से 90 के आसपास अनुमति भी ले ली थी, वह शायद देश निर्मोही को दे दी थी, वह भी खो गई।

वह व्यक्ति जिसने लाखों लोगों को दृष्टि दी, वह मेरे निजी संघर्षों का भी नायक है। आज कई लोग जिन्होंने उन दिनों मेरे इस obsession को महज एक सनक समझा, उनके वक्तव्य पढ़ता हूँ कि कितना महान व्यक्ति था जो गुजर गया।

Tuesday, January 19, 2010

धूप निकल आई है

कल रात चंडीगढ़ आस पास के इलाकों से भी ज्यादा ठंडा रहा। अखबार में है कि शिमला का न्यूनतम तापमान भी चंडीगढ़ से ऊपर था। मौसम विभाग का कहना है कि आबोहवा में कुछ पश्चिमी घुसपैठ हुई है। चलो यह भी सही। एक मित्र ने सही कहा कि क्यों रोते हो उनकी सोचो जिनके पास न गर्मियों में न सर्दियों में पहनने को कपड़े होते हैं। मैं खुद को निष्कर्मा महसूस करता हूँ और देखता हूँ कि इस कड़ाके की ठंड में घर में महिलाएँ और बाहर सिर्फ गरीब मजदूर ही काम करते हैं। पिछले जमानों की तुलना में जीवन काफी सुखद है, तक्नोलोजी की वजह से तकलीफ कम है, घर घर में हीटर हैं। कम से कम पश्चिमी मुल्कों के बारे में तो कहा जा सकता है कि तक्नोलोजी से समाज के सभी हिस्सों को इतना फायदा तो हुआ है कि बिजली, पानी और गर्मी की सप्लाई भारी से भारी बर्फबारी के बावजूद हर तरफ चालू है। तक्नोलोजी के विरोध में तर्क होगा कि कुछ पीढ़ियों को यह फायदा मिलेगा, पर बाद में जब ऊर्जा के संसाधन खत्म होने लगेंगे, तो जंग लड़ाई मार और धरती के विनाश के अलावा कुछ नहीं बचेगा। मैं इस चिंता में सहभागी हूँ, पर यह भी मानता हूँ कि आधुनिक तक्नोलोजी का विकल्प यह नहीं कि वापस उन्नीसवीं सदी को लौटें। संभवतः नाभिकीय ऊर्जा का सुरक्षित उपयोग एक दिन संभव हो या ऊर्जा के वैकल्पिक संसाधन ढूँढ निकाले जाएँ, फिलहाल जो संकट दिखता है, उससे कोई छुटकारा मिले।

मैं जब यह लिख रहा हूँ, देख रहा हूँ कि सूरज ने आखिर धुंध का आवरण छेद दिया है और एक मरियल सी धूप निकल आई है। तो अब सूरज से थोड़ी देर बतिया लूँ। थोड़ी ही देर सही।

Monday, January 18, 2010

ठंड के दो दिन और

इधर कुछ दिनों से चंडीगढ़ में भयंकर ठंड की मार से परेशान रहा। पिछले शुक्रवार को सीमांत अंचल के एक कालेज में भाषण का न्यौता आया तो खुशी खुशी चला। शनिवार को कोई दो तीन सौ छात्राओं से बात चीत हुई। विज्ञान, दर्शन आदि के अलावा कविता पर भी बातें हुईं। दो ईरानी फिल्में भी ले गया था - पनाही की 'आफसाइड' और मखमलबाख की 'द डे आई बिकेम अ वुमन (रोज़ी के ज़ान शोदाम)'।
रविवार को कालेज का वार्षिक मेले का उद्घाटन किया और वापस लौटा। जितना अच्छा युवाओं के बीच रहने से लगा, उतनी ही कोफ्त औपचारिकताओं से हुई। ऐसे अवसरों पर बार बार अपनी प्रशंसा सुनते हुए अजीब सा लगता है, क्योंकि हर ऐरे गैरे के लिए इसी ही तरह के प्रशंसात्मक भाषण होते हैं, यह छोटे शहर की मानसिकता है। बहरहाल इसी बहाने ठंड के दो दिन और कटे, कुछ सार्थक बातचीत हुई और अच्छा लगा कि बड़े शहरों से दूर सीमावर्त्ती इलाके में भी बौद्धिक सक्रियता है।
हुसैनीवाला चेकपोस्ट पर भी गए और वही बेवकूफी भरी रीट्रीट सेरीमोनी देखी, जिसमें नफरत का प्रदर्शन कर तालियाँ ली जाती हैं, इस बारे में पहले भी कभी लिखा है।
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मेरे पास कामरेड ज्योति बसु के साथ मेरा एक फोटोग्राफ था। करीब बीस साल पहले एक बार वामपंथी छात्रों के बुलाने पर वे पंजाब यूनिवर्सिटी आए थे। 'संस्कृति' नामक जिस संस्था का बुलावा था, उसका फैकल्टी पेट्रन मैं था। इसलिए उनके साथ ही बैठा था। आज हिंदू में उन पर लिखा वाक्य पढ़ा कि कपड़ों के मामले में 'He was immaculate in dress and bearing...' तो याद आया कि फोटो में मेरा सस्ता मोजा जिसका इलास्टिक खराब हो गया था दिखता था। इस बात से मुझे थोड़ी झेंप भी थी। मुझे याद आ रहा है कि स्टेज पर उनके साथ बैठने में मुझे झिझक तो थी ही, लड़कों के कहने पर बैठ ही गया तो थोड़ी थोड़ी देर बाद मोजा खींच रहा था। पाँचेक साल पहले सी पी एम के राज्य सचिव बलवंत सिंह ने (वे भी उस फोटो में थे - ज्योति बाबू के एक ओर मैं था - दूसरी ओर बलवंत सिंह; अब ये पार्टी में नहीं हैं) मुझसे वह फोटोग्राफ ले लिया। संस्कृति में उन दिनों जो छात्र नेतृत्व की भूमिका में थे, उनमें से एक फिल्म इंडस्ट्री में है, दूसरा अमरीका में है। ये सी पी एम के छात्र संगठन एस एफ आई से जुड़े थे। चूँकि 'संस्कृति' अपने आप में सांस्कृतिक गतिविधियों के लिए बनाई गई थी, इसलिए तय हुआ था कि पार्टी के नारे नहीं लिए जाएँगे। पर जब ज्योति बाबू आए तो एस एफ आई के लड़कों ने लाल सलाम के नारों से आस्मान फाड़ दिया। इससे जो सी पी आई के छात्र संगठन ए आई एस एफ वाले और दूसरे छात्र थे, उनको बड़ी कोफ्त हुई। मैं खुद ज्योति बाबू के साथ स्टेज तक चलते हुए असमंजस में था, पर सच यह है कि आज मुझे बड़ा अफसोस है कि वह फोटो मेरे पास नहीं है।