Tuesday, October 13, 2009

एक कहानी कुछ विचार

मैं इन दिनों 'रीडिंग्स फ्राम हिंदी लिटरेचर' नामक कोर्स पढ़ा रहा हूँ। 'हंस' पत्रिका के युवा लेखन पर आधारित अगस्त अंक में प्रकाशित दो कहानियाँ पढ़ी गईं। इन पर विषद् चर्चा हुई। एक छात्र (शशांक साहनी) द्वारा संयोजित कुछ टिप्पणियाँ नीचे हैं। दूसरी कहानी (तबस्सुम फातिमा की 'हिजाब') मुझे ज्यादा बेहतर लगी थी, उस पर कम चर्चा हुई, और शशांक को शायद कोई भी टिप्पणी याद नहीं रही। शायद बाकी छात्र इस ब्लाग पोस्ट पर टिप्पणी करते हुए दूसरी कहानी पर भी कुछ लिखें।


बकौल शशांकः
हमने हिंदी की कक्षा में हंस पत्रिका में प्रकाशित एक कहानी " प्रार्थना के बाहर " (गीताश्री) पर चर्चा की । हमारे साथ हैदराबाद विश्व विद्यालय के हिंदी विभाग के शोध छात्र राजीव भी थे । उन्होने सभी छात्रों से इस कहानी के बारे में अपने-अपने विचार पूछे तो सभी ने कई अलग अलग विचार प्रस्तुत किये । उनमें से कुछ निम्नलिखित हैं -
-> प्रार्थना इतनी पढ़ी लिखी होने के बावजूद ऐसी गलतियाँ कैसे कर सकती थी ?
-> पिछले विचार पर ये बात उठी की हम किन चीजों को गलत मानते हैं ? समाज में जो सही कहा जाता है क्या हम उसे ही सही मानेंगे ?
-> प्रार्थना जो कुछ भी करती थी वो उसकी मर्ज़ी थी वो किसी का बुरा तो नहीं करती थी तो हम उसे गलत क्यों कहते हैं ?
-> कई लोगो के मन में ये विचार थे की क्या रचना जैसे ईमानदार लोगों को सफलता नहीं मिलती और प्रार्थना जैसे अपनी मर्ज़ी से जीने वाले लोग सफल हो जाते हैं ?
-> चर्चा की शुरुआत में सबको लगा था कि प्रार्थना लोगों से शारीरिक सम्बन्ध बनाने के बावजूद भी पढ़कर अच्छा रैंक ले आई परन्तु तब राजीव ने कहानी कि कुछ पंक्तियाँ वापिस पढ़कर बताया जिनसे साफ़ पता चलता था कि वो परिणाम उसके दिल्ली आने से पहले की मेहनत से आया था | तो इससे ये बात तो सबको साफ़ हो गई थी कि कहानी कहीं से भी प्रार्थना के विचारों को प्रगतिशील नहीं कहती है ।
-> सभी इसी मत में थे कि प्रार्थना के विचार एक आधुनिक महिला के ख्याल थे और पुरुष प्रधान समाज को चुनौती देते थे ।
-> और तब राजीव ने इस बात की तरफ इशारा किया कि वो वही सब कर रही ही जो पुरुष करते हैं तो एक तरह से वो पुरुष प्रधान समाज के ही नक्शे कदम पर चल रही थी । अगर उसे इस पुरुष प्रधान समाज से लड़ना था तो उसे पुरुष बन कर नहीं बल्कि स्त्री बन कर लड़ना चाहिए ।
-> फिर राजीव ने कहानी के दूसरे पहलू पर सबका ध्यान खींचा। उन्होंने कहा कि प्रार्थना की रूममेट रचना को एक आम भारतीय नारी की तरह दर्शाया गया है । उसके जीवन की परेशानियाँ एक आम भारतीय नारी जैसी होती हैं ।

Monday, October 12, 2009

सोचना यह है कि हम आज कहाँ हैं।

लंबे समय से दिमाग में बातें चलती रहीं कि ब्लाग में डालना है। 'द हिंदू' में तनवीर अहमद का अपनी नानी को उनके भाई बहन से मिलवाने पर यह मार्मिक लेख पढ़ कर थोड़ा सा लिखा भी, फिर छूट गया। लेख पढ़ कर अपने और साथियों के कुछ प्रयासों की याद आ गई, जो सीमा के दोनों ओर के आम लोगों के बीच संबंध स्थापित करने की दिशा में थे। वह फिर कभी पूरा लिखा जाएगा। फिर हाल में दो खबरें ज्यादा ध्यान खींच गईं - एक तो human development index (मानव विकास सूची) में भारत और पाकिस्तान का क्रमशः १३४वें और १४१वें स्थान पर होना, और इस खबर के दूसरे ही दिन भारतीय मूल के वैज्ञानिक को रसायन विज्ञान में नोबेल पुरस्कार मिलने की घोषणा होनी।

इसके कुछ ही दिन बाद संस्थान में आए एक वक्ता द्वारा मानव के पूर्णता की ओर जाने बातचीत करते हुए यह कहना कि दो सौ साल पहले विश्व स्तर पर घरेलू सकल उत्पाद में भारत का हिस्सा २६% था (वक्ता ने कहा कि चीन का हिस्सा इससे कम था) और आज वह 0.८६% है, यह सब बातें दिमाग में चल रही थीं। आँकड़ें सही होंगे; अक्सर इस तरह की बातें ऐसे कही जाती है कि सोचो कभी सोचा था तुमने? सोचने पर दरअस्ल बात इतनी बड़ी निकलती नहीं जितनी बनाई गई होती है। आखिर औद्योगिक क्रांति के पहले पश्चिमी मुल्कों में लोग काफी फटेहाल थे, यह कौन सी नई बात है। पर हम आज की तुलना में अधिक समृद्ध नहीं थे, हम तब उनकी तुलना में कम फटेहाल थे। राजा महाराजाओं के पास लूट का माल यहाँ भी था, वहाँ भी था। आम लोग वहाँ के बनिस्बत यहाँ कम कुदरत के मारे थे।

मानव विकास सूची में चीन अब ७१वें स्थान पर है। सोचना यह है कि हम आज कहाँ हैं।